Gyan Ganga: जब श्रीराम ने बाण नहीं चलाने का कारण बताया तो सुग्रीव हैरान रह गये

By सुखी भारती | Mar 18, 2021

यह तो प्रभु की महती कृपा थी कि सुग्रीव बालि की मजबूत पकड़ से छूट पाया। और भागकर प्रभु की शरण में जा पहुँचा। अन्यथा साक्षात काल के मुँह से बचकर आज तक भला कौन लौटा। सुग्रीव प्रभु के पास पहुँचा तो बस हाँफे जा रहा है। फूले हुए श्वाँसों में, एक ही श्वाँस में बहुत कुछ कहना चाह रहा है। पर यह उखड़ती श्वाँसें उसे कहाँ कुछ कहने दे रही थीं। बालि ऐसा बलशाली था कि धरती पर मुक्का मारे तो धरा के दो पाट हो जाए। और यहाँ तो बेचारा हाड़ माँस का पुतला सुग्रीव था। सुग्रीव कराह रहा था क्योंकि उसका अंग−अंग दर्द का सागर बन चुका था। मन में बस यही शिकवा था कि प्रभु ने जब मुझे बालि से भिड़ने भेज ही दिया। तो उन्होंने अपना बाण संधान क्यों नहीं किया। यद्यपि मैंने तो प्रथम भेंट में ही कह दिया था कि बालि मेरा वध करना चाहता है। वह मेरा काल है, और अब तो मैंने यह कटु अनुभव बड़ी निकटता से देख लिया−

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मैं तो कहा रघुबीर कृपाला।

बंधु न होइ मोर यह काला।।


यह तो गनीमत रही कि मुझमें स्वभाव से यह गुण विद्यमान है कि मौका आने पर, मैं सही समय व सही दिशा में भाग लेता हूँ। वर्ना आज समय से पहले ही मेरी पत्नी विधवा हो जाती। इधर श्रीराम जी हैं कि सुग्रीव को बस देखे ही जा रहे हैं। साथ में यह भी पता है कि सुग्रीव के मन में एक ही मुख्य काँटा फंसा हुआ है कि मैंने बाण क्यों नहीं चलाया। श्रीराम जी मन में काँटा रहने भी कहाँ देते हैं। श्रीराम जी सुग्रीव को स्नेह पूर्वक बताते हैं कि हमने बाण क्यों नहीं चलाया जिसे सुनकर आश्चर्य होता है कि भगवान श्रीराम जी यह क्या कह रहे हैं। श्रीराम जी बोले−


एक रूप तुम्ह भ्राता दोऊ।

तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ।।


श्रीराम जी कहते हैं कि हे सुग्रीव! मैं बाण तो चलाना चाह रहा था लेकिन मुझे भी भ्रम ने घेर लिया। भ्रम यह कि मुझे तुम दोनों का रूप एक जैसा ही प्रतीत हो रहा था। कहीं कोई भिन्नता नहीं थी। इस कारण मैं पहचान नहीं पाया कि तुम में से कौन बालि है और कौन सुग्रीव। 

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सज्जनों कैसी विचित्र लीला है प्रभु की। भला वे तो सात दीवारों के उस पार पहचान लें कि चींटी किस ओर करवट ले रही है। तो पच्चीस पचास कदम पहचानना भला कौन-सी बात थी। फिर कह रहे हैं कि मुझे भ्रम हो गया कि तुम दोनों में बालि कौन है। भला 'ब्रह्म' को 'भ्रम' हो यह बात पचने वाली तो नहीं। लेकिन श्रीराम जी फिर ऐसा क्यों कह रहे हैं। वास्तव में श्रीराम जी के वाक्य केवल दैहिक घटनाक्रम व स्वरूप से संबंधित नहीं होते। अवश्य ही वे अपने शब्दों में किसी अध्यात्मिक संदेश को प्रकट करना चाहते हैं। जैसे उन्होंने कहा कि तुम दोनों का रूप एक-सा प्रतीत हो रहा था तो यहाँ श्रीराम जी बाह्य रूप की बात नहीं कर रहे हैं अपितु उन दोनों के आंतरिक अवस्था के स्वरूप की ओर इंगित कर रहे हैं। क्योंकि श्रीराम जी को लेकर दोनों की एक जैसी ही मनोस्थिति है। बालि श्रीराम जी को सिर्फ शब्दों में ही तो समदर्शी कह रहा है। लेकिन वास्तव में उसे ऐसा कोई दृढ़ व ठोस अनुभव एवं विश्वास नहीं है। क्योंकि अगर उसे दृढ़ विश्वास होता तो निश्चित ही वह श्रीराम जी के चरणों में आकर क्षमा याचना करता और प्रबल भाव से कहता कि प्रभु अगर आप यूँ एकनिष्ठ भाव से मुझे किनारे कर सुग्रीव के पक्ष में खड़े हैं तो अवश्य ही मैं अपराधी होऊंगा, जिसे मैं अज्ञानता वश नहीं जान पाया। इसलिए आप ऐसी कृपा करो कि मैं अपने अपराधों को सुधरकर आपकी सेवा में रत्त हो पाऊँ।


लेकिन बालि वास्तव में ऐसा कहाँ करता है। अपितु वह तो सुग्रीव को मारने दौड़ता है। तारा भी जब समझाती है कि वे दोनों भाई रण में काल को भी जीतने में सक्षम हैं। तो बालि अपनी पत्नी को केवल टालने के लिए कहता है कि अगर वे भगवान हैं तो भगवान का प्रथम गुण तो यह है कि वे समदर्शी होते हैं। जिस कारण वे मुझमें और सुग्रीव में भला क्यों भेद करेंगे। दूसरा अगर मैं मारा भी गया तो भी क्या हानि। क्योंकि मैं सनाथ हो जाऊँगा और परम धम को प्राप्त हो जाऊँगा− 


कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।

जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ। 


यद्यपि अध्यात्म में ऐसा कोई सिद्धांत ही नहीं है कि सामने प्रभु हों और आप उनसे बैर, हठ व उनसे लड़ने बैठ जाओ। और प्रभु द्वारा मरकर परमधर्म प्राप्त करो। यही सर्वमान्य सिद्धांत अगर होता तो फिर शबरी, हनुमान व जटायु को मिलते ही उनकी सेवा−अर्चना करने की बजाय उन्हें प्रभु के साथ युद्ध में डट जाना चाहिए था। क्यों उन्होंने अपना समस्त जीवन सेवा, साधना में बिताने का मार्ग चुना। स्पष्ट शब्दों में कहें तो बालि प्रभु को लेकर अत्यंत भ्रम की स्थिति में था। 


इधर सुग्रीव के मन की अवस्था भी लगभग वैसी ही थी। उसमें भी श्रीराम जी के प्रति अडिग विश्वास का अभाव था। तभी तो सुग्रीव श्रीराम जी की परीक्षा तक ले लेता है। उनसे ताड़ के पेड़ कटवाता है व दुदुंभि राक्षस के पिंजर तक उठवाता है।


केवल श्रीराम जी के प्रति ही नहीं अपितु सुग्रीव तो बालि के प्रति भी भ्रम की स्थिति में है। वह बालि को कभी अपने परम शत्रु के रूप में देखता है और कभी अपने क्षणिक वैराग्य के कारण माया रचित कोई लीला का अंश मानता है। अर्थात् सुग्रीव सिर्फ भ्रम नहीं अपितु महाभ्रम की स्थिति में है।

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प्रभु ने जब देखा कि सुग्रीव और बालि दोनों ही भ्रम की स्थिति में हैं तो निष्कर्ष यही था कि भ्रम का भ्रम से कभी युद्ध हो ही नहीं सकता। केवल मिलन होता है। ठीक वैसे जैसे अंधकार और अंधकार का मिलन स्वाभाविक है। लेकिन युद्ध की बात हो तो युद्ध अंधकार और प्रकाश के मध्य होता है। बालि अंधकार है और सुग्रीव प्रकाश, तो युद्ध होना निश्चित ही था। लेकिन यहाँ तो वह दोनों भाई ही अंधकार व भ्रम के रूप में एक जैसे हैं। ऐसे में भला मैं किसे मारूँ और किसे छोडूँ। इस स्थिति में हमने भी आपके इस भ्रम−भ्रम के खेल में शामिल होनें का मन बना लिया। और कह दिया कि हमें भी भ्रम हो गया।


बालि−सुग्रीव युद्ध में सुग्रीव को जब बालि काल रूप में नज़र आया तो प्रभु यही चाह रहे थे कि हे बालि तुम्हें स्पष्ट व सही दृष्टि रखनी ही चाहिए। क्योंकि हम तुम्हें किष्किंध का राज्य देने का वचन दे चुके हैं तो एक राजा दृष्टि भ्रम रखकर भला कैसे प्रजा का पालन कर सकता है? जो तुम्हारा भ्रम मेरे वचनों से नहीं मिटा वह बालि के लात−घूंसों के प्रहार द्वारा ही मिटना संभव था। मेरे तीर चलाने से यह संभव न हो पाता। और तुम कभी न कह पाते कि−


मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। 

बंधु न होइ मोर यह काला।।


प्रभु ने देखा कि सुग्रीव का दृष्टि भ्रम तो दूर हो गया है अब इसे पुनः बालि को ललकारने हेतु भेजना है। लेकिन सुग्रीव की भयक्रांत मनोस्थिति इसकी आज्ञा नहीं दे रही। लेकिन कुछ भी हो बालि के आतंक से छुटकारा पाने के लिए सुग्रीव को जाना ही पड़ेगा। 


क्या सुग्रीव बालि से भिड़ने को पुनः तत्पर हो पाता है अथवा नहीं...जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम


-सुखी भारती

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