हर एक की मुरादें पूरी करते हैं ख्वाजा साहब, तभी तो सभी धर्मों के श्रद्धालु दरगाह पर खिँचे चले आते हैं

By प्रीटी | Jul 05, 2021

भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है। यहां पर जहां एक तरफ हर क्षेत्र की बोलियों में विभिन्नता पाई जाती है वहीं हर क्षेत्र के तीज−त्यौहारों में भी भिन्नता मिलती है। किन्तु कुछ ऐसे भी धार्मिक त्यौहार तथा धार्मिक पुरुषों की याद मनाने वाले दिवस होते हैं, जिन्हें मनाते हुए पूरे भारतवर्ष में एकरूपता की झलक मिलती है। मनुष्य के रास्ते अलग हैं, किन्तु मंजिल एक है, इंसानियत को मानव एकता का यह पैगाम देने वाले महान सूफी संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की याद में राजस्थान के अजमेर शहर में मनाया जाने वाले सालाना उर्स में सभी धर्मों के लोगों का जमावड़ा लगता है।

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गरीबों के हिमायती और इंसानियत के मसीहा ख्वाजा के इस उर्स में देश−विदेश के मुसलमान तो जुटते ही हैं साथ ही अन्य धर्मों के श्रद्धालु भी बाहर से आते हैं। अमीर, गरीब, बच्चे एवं बूढ़े सभी लोग श्रद्धा से ख्वाजा की मजार पर शीश झुकाकर दुआ मांगते हैं। मध्य एशिया के सीस्तान कस्बे में नौ रजब 530 हिजरी 1143 ई. को एक साधारण कस्बे में जन्मे ख्वाजा साहब के पूर्वज संजार कस्बे में रहते थे इसलिए उन्हें संजरी भी कहा जाता है। उनके खानदान के ख्वाजा इसहाक शामी हिरात के पास चिश्त कस्बे में रहने के कारण उन्हें चिश्ती के नाम से भी जाना जाता है। चौदह वर्ष की अल्पायु में माता बीबी महानुर का इंतकाल होने तथा इसके कुछ दिनों बाद ही पिता गयासुद्दीन का साया सिर से उठने से वह एक तरह से बेसहारा हो गये। ख्वाजा साहब को दो पत्नियों बीबी अमातुल्ला और बीबी अस्मत शरीक से तीन बेटे और एक बेटी हुई। 


महान संत हजरत शेख इब्राहिम कंदौजी से अध्यात्म की प्रेरणा पाने के बाद ख्वाजा को दुनियादारी बेमानी लगने लगी। सत्य एवं ज्ञान की खोज में वह विभिन्न देशों की यात्रा करते हुए मक्का पहुंचे। हज के बाद उनकी मुलाकात मशहूर संत शेख उस्मान हारूनी से हुई और वह उनके शिष्य बन गये। करीब 52 वर्ष की उम्र में ख्वाजा साहब को उनके गुरु ने इस दीक्षा के साथ अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया कि दीन दुखियों की सेवा करना, भूले भटकों को राह दिखाना और मायारूपी संसार की बुराइयों से बचाना एक संत का मुख्य धर्म है। 


ख्वाजा मोईनुद्दीन अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए भारत आए और अजमेर में अपना बसेरा बनाया। लोगों को एकता, भाईचारे और इंसानियत की राह पर चलने की सीख देने वाले ख्वाजा की ख्याति कुछ ही समय में चारों और फैल गई और पूरे भारतवर्ष से संत उनके पास आने लगे। ख्वाजा साहब ने साधारण जीवन जीया। कभी भरपेट खाना नहीं खाया और संत के रूप में तमाम उम्र एक ही वस्त्र में गुजार दी। वस्त्र के फटने पर वह उसमें पैबंद लगा लिया करते थे। कहा जाता है कि पैबंद लगने के कारण उनका पहनावा इस कदर भारी हो गया कि उनके इंतकाल के बाद जब इसे तौला गया तो इसका वजन करीब साढ़े बारह सेर था। ख्वाजा साहब एक दिन में दो बार पूरी कुरान पढ़ जाते थे उन्होंने अपने जीवन में 51 बार हज की पैदल यात्रा की। ख्वाजा साहब ने अनीसुल अरवाह और एक अन्य पुस्तक लिखी। इन पुस्तकों में जहां ख्वाजा साहब के उच्च आध्यात्मिक विचारों के दर्शन होते हैं, वहीं रहस्यवाद पर इन्हें विश्व में उच्च कोटि की पुस्तकों में शुमार किया जाता है। ख्वाजा साहब एक आला दर्जे के शायर भी थे। उनकी कविताओं का एक संग्रह दीवान−ए−मोईन के नाम से प्रकाशित भी हो चुका है। इसमें ख्वाजा साहब की करीब 250 कविताएं संग्रहित हैं।

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यह महान संत जीवन के अंतिम क्षण 6 रजब 633 हिजरी की रात इशा की नमाज के बाद अपनी कुटिया का दरवाजा बंद कर इबादत में मशगूल हो गया। रात बीतने तक उनकी आवाज आती रही, लेकिन अंतिम पहर में आवाज अचानक बंद हो गई। दिन निकलने तक जब कुटिया का दरवाजा नहीं खुला तो उनके शिष्यों को चिंता हुई। दरवाजा तोड़ने पर पता चला कि इंसानियत के मसीहा ने देह का चोला उतार फेंका था। दुनिया की इस अजीम हस्ती की याद में उस स्थान पर एक दरगाह का निर्माण किया गया जो आज देश भर में विख्यात है। बहुरंगी चित्रकारी एवं नक्काशी से बनी यह दरगाह पूरी तरह संगमरमर की है। इसके ऊपर एक आकर्षक गुम्बद है जिस पर एक सुनहरा कलश है। मजार पर मखमल की गिलाफ चढ़ी हुई है और इसके चारों ओर परिक्रमा के स्थान पर चांदी के कटघरे बने हुए हैं। यहीं वह पावन स्थल है जिसे देखने हजारों मील दूर से जायरीन आते हैं और स्वयं को ख्वाजा के निकट पाकर सफर की थकान भूल जाते हैं।


गौर करने लायक बात यह है कि ख्वाजा साहब की मजार−ए−मुबारक बहुत दिनों तक कच्ची बनी रही। मजार को भव्य रूप उनके शिष्यों द्वारा दिया गया। दरगाह के गुम्बद की नक्काशी सुल्तान महमूद बिन नासिरूद्दीन ने कराई और मजरी का दरवाजा बादशाह मांडू ने बनवाया। मजार के अंदर सुनहरा कटहरा बादशाह जहांगीर और दूसरा कटहरा शहजादी जहांआरा बेगम द्वारा चढ़ाया हुआ है। मजार पर लगा दरवाजा मुगल बादशाह अकबर ने भेंट किया। इसके छत पर मखमल की छतरी भी लगी हुई है। उर्स के दिनों में जायरीनों के दर्शन के लिए खोला जाने वाला बुलंद दरवाजा भी अति मनोहर है। हिजरी 1047 में मुगल बादशाह शाहजहां ने लाल पत्थर से नक्कार खाना शाहजहांनी बनवाया। इसके ऊपरी हिस्से में अकबरी नक्कारखाने रखे हुए हैं। सुल्तान महमूद खिलजी द्वारा बुलंद दरवाजा हिजरी 700 में बनवाया गया। यह दरवाजा करीब 85 फीट ऊंचा है। दरवाजे की बुर्ज पर ढाई फीट लम्बे सुनहरे कलश लगे हुए हैं। शाहजहां द्वारा बनाए नक्कारखाने का निर्माण 131 हिजरी में हैदराबाद के नवाब मीर महबूबअली खां ने करवाया था। 70 फीट ऊंचे दरवाजे वाले इस नक्कारखाने में प्रति दिन पांच बार नोबत बजाई जाती है। उर्स के दिनों में कव्वालियों के लिए बने महफिल खाने का निर्माण आज से 106 वर्ष पूर्व हैदराबाद के नवाब बगीरूद्दौल ने कराया था। मुगल बादशाह अकबर द्वारा भेंट किया गया सहन चिराग दरगाह के प्रवेश द्वार पर बुलंद दरवाजे के सामने रखा गया है। बुलंद दरवाजे के पश्चिम में रखी गई बड़ी देग मुगल बादशाह अकबर की देन है।


प्रति वर्ष उर्स की शुरुआत पहले रजब को चांद नजर आने पर नक्कारों और शहनाईयों की मधुर धुनों से होती है। उर्स के प्रारंभ में एक विशेष झंडा भी फहराया जाता है। जन्नती दरवाजा भी विशेष तौर से इन्हीं दिनों में ही खोला जाता है। रोजाना दरगाह शरीफ को गुलाबी जल से धोया जाता है और इसके ऊपर इत्र छिड़का जाता है। कहा जाता है कि 6 दिन उर्स मनाए जाने के पीछे ख्वाजा साहब के निधन की तिथि की अनिश्चितता है। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनका देहांत किस दिन और किस विशेष घड़ी में हुआ। इसलिए ख्वाजा साहब का उर्स 6 दिनों तक मनाया जाता है। उर्स के दिनों में ख्वाजा साहब की मजार पर अनगिनत चादरें चढ़ाई जाती हैं। चादर चढ़ाने के पीछे मान्यता यह है कि जो व्यक्ति अपनी मनोकामना पूरी करता है वह चादर चढ़ाना या देग लुटवाना जैसी रस्म निभाता है। उर्स के दौरान पूरे 6 दिनों तक रात भर कव्वालियां गूंजती हैं और इसमें देश−विदेश से आने वाले कव्वाल भाग लेते हैं। इस प्रकार हिन्दुओं के धार्मिक स्थल पुष्कर से कुछ दूरी पर स्थित ख्वाजा साहब का यह स्थल सर्वर्धम सद्भाव की प्रेरणा देता है।


-प्रीटी

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