रेलमार्गों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन

By इंडिया साइंस वायर | Apr 20, 2022

रेलमार्गों की आधारभूत संरचना में ट्रैकबेड बिछाने के लिए सघन मिट्टी से बने तटबंध का उपयोग होता है। यह तटबंध रेलगाड़ियों की आवाजाही के दौरान रेल पटरी से आने वाले भार को संभालने में भूमिका निभाता है। पारंपरिक तटबंध निर्माण प्रक्रिया अपनाये जाने से रेलों के चलने से उत्पन्न भार संभालने के लिए जानकारी तो मिल जाती है, पर मौसमी बदलावों के कारण तटबंध पर पड़ने वाले असर का पता नहीं चल पाता है।

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भारतीय शोधकर्ताओं सहित अंतरराष्ट्रीय अध्ययनकर्ताओं की एक टीम ने जलवायु परिवर्तन से रेलमार्गों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के अध्ययन के लिए एक नये यंत्र का निर्माण किया है। इस यंत्र का निर्माण इस तरीके से किया गया है, जिससे यह रेलमार्गों को बिछाने में प्रयोग होने वाली सघन मिट्टी के अंदर सक्शन को नाप सके, और यह कार्य मिट्टी के सैंपल पर प्रयोगशाला में उपयोग होने वाले साइक्लिक त्रीआक्सीअल यंत्र के साथ संपन्न किया जा सके।


यह अध्ययन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मंडी और डरहम यूनिवर्सिटी, यूनाइटेड किंगडम के शोधकर्ताओं द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि रेलमार्गों की आधारभूत संरचना में ट्रैकबेड बिछाने के लिए सघन मिट्टी से बने तटबंध की मिट्टी में बारिश एवं सूखे के बदलावों की वजह से पानी की मात्रा बदलती रहती है, जिसकी वजह से सक्शन भी बदलता है और मिट्टी की क्षमता पर भी असर पड़ता है। 


मिट्टी में बारिश एवं सूखे जैसे मौसमी बदलाव जैसे पहलुओं का पारंपरिक निर्माण प्रक्रिया में ज्यादातर उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन बदलती जलवायु के कारण बारिश और सूखे की प्राकृतिक गतिविधियां गंभीर होती जा रही है, जिसके फलस्वरूप यातायात संरचना के सुचारु कार्यान्यवन के सामने नई चुनौतियाँ उत्पन्न हो गई हैं। इसीलिए, सुचारु रेल यातायात सुनिश्चित करने में इस अध्ययन की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। 


यह अध्ययन आईआईटी, मंडी से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉ आशुतोष कुमार और यूनिवर्सिटी ऑफ पोर्ट्समाउथ, यूनाइटेड किंगडम के शोधकर्ता डॉ अर्श अज़ीज़ी एवं डरहम यूनिवर्सिटी, यूनाइटेड किंगडम के इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत प्रोफेसर डेविड ज्यॉफ्री टोल द्वारा किया गया है। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ सिविल इंजीनियरिंग की शोध पत्रिका जर्नल ऑफ जिओटेक्निकल ऐंड जिओएन्वॉयर्नमेंटल इंजीनियरिंग में इस अध्ययन को प्रकाशित किया गया है। 


सघन मिटटी का उपयोग रेलमार्ग बिछाने के दौरान तटबंध बनाने में किया जाता है, जो प्रायः असंतृप्त अवस्था में पायी जाती है। वातावरण में होने वाले बदलावों की वजह से इसकी क्षमता कमजोर हो जाती है। बारिश के मौसम में पानी के मिट्टी में प्रवेश करने, एवं सूखे के दौरान मिट्टी से पानी के क्षरण होने की वजह से ऐसा होता है। ऐसी स्थिति में, रेलवे ट्रैक पर निरंतर गुजरने वाले रेल भार से असंतृप्त सघन मिटटी की क्षमता को घटाने वाली प्रक्रिया तेज हो जाती है, जिससे रेल-पथ का प्रदर्शन प्रभावित होता है।

 

शोधकर्ताओं ने वातावरणीय बदलाव और रेल के गुजरने वाले भार का असंतृप्त सघन मिट्टी की क्षमता पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों का अध्ययन किया है। इसी आधार पर साइक्लिक त्रिएक्सियल यंत्र, जो रेल भार से उभरी विकृतियों के मापन के लिए उपयोग होता है, में कुछ जरूरी बदलाव किये गए हैं, ताकि मिट्टी में सक्शन को भी मापा जा सके। इस तरह, वातावरण के प्रतिकूल प्रभावों के असर को रेलमार्गों की आधारभूत सरंचना की डिजाइन प्रक्रिया में सम्मिलित किया जा सकता है। इस अध्ययन में, मिट्टी के नमूने 650 किलोमीटर लम्बी रेलवे कोल लाइन से प्राप्त किये गए हैं, जो कि लगभग 40 कोयले की खदानों को रिचर्ड्स-बे कोल टर्मिनल, साउथ अफ्रीका से जोड़ती है।

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डॉ आशुतोष कुमार कहते हैं कि "असंतृप्त सघन मिट्टी, जिसका उपयोग रेलवे तटबंध बनाने में किया जाता है, की क्षमता पर रेल भारों के साथ-साथ एन्वॉयरन्मेंटल लोडिंग के प्रभाव को समझने में यह अध्ययन उपयोगी है। इसके लिए जो यंत्र बनाया गया है, उसमें एक उच्च क्षमता वाले टेंसिओमेटेर, जिसको डरहम यूनिवर्सिटी ने निर्मित किया है, का उपयोग किया गया है, जिसका काम सक्शन को मापना है। भार के कारण मिट्टी के नमूनों में होने वाली विकृतियों को मापने के लिए अन्य यंत्र भी लगाए गए हैं। प्रयोगशाला में शोध को व्यावहारिक रूप देने के लिए तीन अलग-अलग प्रारूप  तैयार किये गये थे।"


शोध से यह स्पष्ट हुआ कि असंतृप्त सघन मिट्टी की क्षमता में गिरावट और इसका विघटन मिट्टी पर हुए मौसमी बदलावों से गहन संबंध रखता है। शोधकर्ताओं द्वारा विकसित किए गये यंत्र का उपयोग प्रयोगशाला एवं वास्तविक स्थिति में किसी भी तरह के मिट्टी के नमूने पर शोध करने के लिए किया जा सकता है। इस शोध पर आधारित निर्माण प्रणाली सतत् एवं टिकाऊ परिवहन की आधारभूत संरचना विकसित करने के लिए जरूरी जानकारी प्रदान कर सकती है, जो कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने की जरूरी समझ प्रदान करती है।


(इंडिया साइंस वायर)

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