By अभिनय आकाश | Apr 11, 2022
परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।
मशहूर कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने पंक्तियां आज से 102 साल पहले जलियांवाला बाग में शहीद हुए लोगों की याद में लिखी थी। भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन की यंत्रणाओँ और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की कुर्बानी की नुमाइंदगी 1919 में हुए इस कत्लेआम से अधिक कोई नहीं कर सकता। साल 1919 में 13 अप्रैल की तारखी और वैशाखी का दिन, पंजाब का अमृतसर और वहां का जालियांवाला बाग वहां पर जनरल डायर के नेतृत्व में गोलियां बरसाईं गईं। सैकड़ों लोग मारे गए। जालियांवाला बाग नरसंहार की कहानियों से तो सभी रूबरू हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि इससे पहले भी अंग्रेजों ने इससे कई गुणा भीषण और विभित्स नरसंहार को अंजाम दिया था। ये कहानी है 1857 की जब दुनिया अपने पहले सामूहिक नरसंहार से मुखिातिब हुई थी और इसकी व्यापकता का अंदाजा इसके आंकड़ों से लगा सकते हैं। इस नरसंहार में करीब एक करोड़ भारतीयों की मौत हो गई थी। 1857 का विद्रोह आज भी लोगों को याद है। अंग्रेजों के खिलाफ हुए इस विद्रोह में कई क्रांतिकारी शहीद हो गए थे, जोकि इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिनका आज तक कहीं जिक्र नहीं किया गया।
सभ्यताओं का युद्ध
लेखक और मुंबई स्थित इतिहासकार अमरेश मिश्रा का कहना है कि 1857 के दौर में एक गुमनाम नरसंहार की वजह से करीब 10 मिलियन लोगों की मौत हो गई। ब्रिटेन उस समय दुनिया की महाशक्ति था, लेकिन मिश्रा कहते हैं, वह अपने सबसे बेशकीमती अधिकार यानी भारत को खोने के करीब आ गया था। आज इस रिपोर्ट के माध्यम से भारतीय विद्रोह के इतिहास का एक विवादास्पद नया पन्ना पलटने जा रहे हैं जो गुमनामी के साये में पिछले 150 सालों से खोया हुआ है। जो एक समय में 19वीं शताब्दी में किसी भी यूरोपीय शक्ति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया था। जिसके बाद अंग्रेजों ने एक अभियान चलाकर लाखों लोगों का सफाया किया जिस किसी ने भी उनके खिलाफ उठने की हिम्मत की। गिलगिट से लेकर मदुरई तक और मणिपुर से लेकर महाराष्ट्र तक ऐसा कोई इलाका नहीं बचा था जो इस विद्रोह से अछूता रहा हो। देश के पहले स्वाधीनता संग्राम के बारे में अब तक न कही गई ये कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें अमरेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक 'War of Civilisations: India AD 1857' में बयां किया है।
मिश्रा का दावा है कि पारंपरिक इतिहास में केवल 1 लाख भारतीय सैनिकों की गिनती की गई है, जो क्रूर प्रतिशोध में मारे गए थे। लेकिन किसी ने भी ब्रिटिश सेना द्वारा मारे गए विद्रोहियों और नागरिकों की संख्या की गणना नहीं की। लेखक का कहना है कि उन्हें ये जानकर आश्चर्य हुआ कि "इतिहास की बैलेंस बुक" यह नहीं बता सकी कि 1857 के बाद कितने भारतीय मारे गए। ये एक ऐसा नरसंहार था, जिसमें लाखों लोग गायब हो गए थे। अंग्रेजों को लगता था कि जीतने का एकमात्र तरीका कस्बों और गांवों में पूरी आबादी को नष्ट करना है। मिश्रा ने गॉर्जियन को बताते हुए कहा कि ये सरल और क्रूर था। उनके रास्ते में जो भी भारतीय खड़े हुए उन्हें मार दिया गया। लेकिन इसकी व्यापकता को गुप्त रखा गया है। उनकी गणना को कुछ इस तरह रखा गया- मारे गए धार्मिक प्रतिरोध सेनानियों की संख्या से संबंधित रिकॉर्ड हैं या तो इस्लामी मुजाहिदीन या हिंदू योद्धा संन्यासी जो अंग्रेजों को बाहर निकालने के लिए प्रतिबद्ध थे।
1857 के 150 वर्ष पूरे होने के बाद अमरेश मिश्रा की किताब उन तथ्यों को उजागर करती है, जिन्हें आज तक शायद जानबूझकर दबाया-छिपाया ही जाता रहा है। मसलन, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों द्वारा किए गए नरसंहार की व्यापकता और भयावहता पर इतने प्रामाणिक आंकड़े और विवरण पहले इतिहास की किताबों में नहीं दिए जाते थे। दूसरा, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों को भारतीय जमींदारों और राजे-रजवाड़ों द्वारा सौदेबाजी के तहत जो सहयोग किया गया, उसके बारे में भी इतिहास में अब तक बहुत कुछ छिपाया जाता रहा है। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई को बर्बरता से कुचलने में जिन राजे-रजवाड़ों और जमींदारों ने अंग्रेजों का सहयोग किया, उन्हीं के वंशज बाद में आजादी के बाद राजनीतिक दलों में शामिल होकर सत्ता में आ गए और आज भी शासन कर रहे हैं।