दीन-हीनों की माँ तथा मानवता की मूर्ति थीं मदर टेरेसा

By ललित गर्ग | Aug 26, 2019

माँ दुनिया का सबसे अनमोल शब्द है। एक ऐसा शब्द जिसमें सिर्फ अपनापन, सेवा, समर्पण और प्यार झलकता है। माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है। माँ शब्द जुबान पर आते ही एक नाम सहज ही सामने आता है और वह है मदर टेरेसा का। कलियुग में वह माँ का एक आदर्श प्रतीक थीं जो आज भी प्रेम की भांति सभी के दिलों में जीवित हैं। वह मानव बनकर संसार में आईं थीं। उनके जीवन की कहानी आकाश की उड़ान नहीं है। उनके स्वर कल्पना की लहरियों से नहीं उठे थे, बल्कि अनुभूति की कसौटी पर खरे उतरकर हमारे सामने आए थे। उनकी सतत गतिशील मानवता ने उन्हें महामानव बना दिया। जिसकी पृष्ठभूमि में विजय का संदेश है। वह विजय थी− अंधकार पर प्रकाश की, असत्य पर सत्य की, मानव उत्थान की और पीड़ित मानव मन पर मरहम की। वह शांति एवं सेवा का शंखनाद थीं।

 

मदर टेरेसा का नाम जुबान पर आते ही मन श्रद्धा से भर जाता है। दिल की गहराइयों में प्यार का सागर उमड़ने लगता है। उनकी हर सीख हमें याद आती है, जो उन्होंने हमें सिखाई है। हर व्यक्ति को वह बहुत प्यारी लगती थीं और अपने करीब लगती थीं। सभी कहते हैं कि उनके जैसा कोई नहीं है, वह एक ही थीं और एक ही रहेंगी क्योंकि उन्होंने असहायों और निराश्रितों की सेवा में अपना पूरा जीवन बिताया। उन्होंने अपनी आयु के हर लम्हे को पीड़ित, दुखी और जरूरतमंदों की सहायता में न्यौछावर किया। उनकी निःस्वार्थ सेवा, स्नेह और समर्पण इस धरती पर हमेशा याद रहेगा। वे सचमुच संसार की माँ थीं, उनकी स्मृति युग−युगों तक मानवता को रौशनी देती रहेगी।

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युगों से भारत इस बात के लिये धनी रहा है कि उसे लगातार महापुरुषों का साथ मिलता रहा है। इस देश ने अपनी माटी के सपूतों का तो आदर−सत्कार किया ही है साथ ही अन्य देशों के महापुरुषों को न केवल अपने देश में बल्कि अपने दिलों में भी सम्मानजनक स्थान दिया और उनके बताए मार्गों पर चलने की कोशिश की है। हमारे लिए मदर टेरेसा भी एक ईश्वरीय वरदान थीं। भारतीय जनमानस पर अपने जीवन से उदाहरण के तौर पर उन्होंने ऐसे पदचिन्ह छोड़े हैं जो सदियों तक हमें प्रेरणा एवं पाथेय प्रदत्त करते रहेंगे। क्या जात−पांत, क्या ऊंच−नीच, क्या गरीब−अमीर, क्या शिक्षित−अनपढ़, इन सभी भेदभावों को ताक पर रख कर मदर ने हमें यह सिखाया है कि हम सभी इंसान हैं, ईश्वर की बनाई हुई सुंदर रचना हैं और उनमें कोई भेद नहीं हो सकता। उनका विश्वास था कि अगर हम किसी भी गरीब व्यक्ति को ऊपर उठाने का प्रयत्न करेंगे तो ईश्वर न केवल उस गरीब की बल्कि पूरे समाज की उन्नति के रास्ते खोल देगा। वे अपने सेवा कार्य को समुद्र में सिर्फ बूंद के समान मानती थीं। वह कहती थीं, 'मगर यह बूंद भी अत्यंत आवश्यक है। अगर मैं यह न करूं तो यह एक बूंद समुद्र में कम पड़ जाएगी।' सचमुच उनका काम रौशनी से रौशनी पैदा करना था।

 

मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 में सोप्जे मैसिडोनिया में हुआ था। 12 वर्ष की छोटी−सी उम्र में ही उन्होंने 'नन' बनने का निर्णय किया और 18 वर्ष की आयु में कलकत्ता में 'आइरेश नौरेटो नन' मिशनरी में शामिल हो गयीं। वे सेंट मैरी हाईस्कूल कलकत्ता में अध्यापिका बनीं और लगभग 20 वर्ष तक अध्यापन के द्वारा ज्ञान बांटा। लेकिन उनका मन कहीं और था। कलकत्ता के झोपड़ पट्टी में रहने वाले लोगों की पीड़ा और दर्द ने उन्हें बैचेन−सा कर रखा था। देश में गरीबी और भुखमरी की स्थिति काफी गंभीर थी। बीमारी, अशिक्षा, छुआछूत, जातिवाद एवं महिला उत्पीड़न जैसी सामाजिक बुराइयां अपनी पराकाष्ठा पर थीं। इन स्थितियों ने उन्होंने आन्दोलित कर दिया। यही कारण था कि 36 वर्ष की आयु में उन्होंने अति निर्धन, असहाय, बीमार, लाचार एवं गरीब लोगों की जीवनपर्यंत सेवा एवं मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फॅमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गईं, जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ जुड़ गयीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहम पट्टी की और उनको दवाइयां दीं। धीरे−धीरे उन्होंने अपने कार्य से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

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कोलकता में सन् 1950 में 'मिशनरीज ऑफ चौरिटी' का आरम्भ मात्र 13 लोगों के साथ हुआ था पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय (1997) 4 हजार से भी ज्यादा 'सिस्टर्स' दुनियाभर में असहाय, बेसहारा, शरणार्थी, अंधे, बूढ़े, गरीब, बेघर, शराबी, एड्स के मरीज और प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित लोगों की सेवा कर रही हैं। मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले। 'निर्मल हृदय' का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों का सेवा करना था जिन्हें समाज ने तिरस्कृत कर दिया हो। 'निर्मला शिशु भवन' की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। समाज के सबसे दलित और उपेक्षित लोगों के सिर पर अपना हाथ रख कर उन्होंने उन्हें मातृत्व का आभास कराया और न सिर्फ उनकी देखभाल की बल्कि उन्हें समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए भी प्रयास शुरू किया। सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता, यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई।

 

मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें पहले पद्मश्री (1962) और बाद में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' (1980) से अलंकृत किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें वर्ष 1985 में मेडल ऑफ फ्रीडम से नवाजा। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला। उन्हें यह पुरस्कार गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिया गया था। मदर ने नोबेल पुरस्कार की धन−राशि को भी गरीबों की सेवा के लिये समर्पित कर दिया।

 

मदर टेरेसा ने समय−समय पर भारत एवं दुनिया के ज्वंलत मुद्दों पर असरकारण दखल किया, भ्रूण हत्या के विरोध में भी सारे विश्व में अपना रोष दर्शाया एवं अनाथ−अवैध संतानों को अपनाकर मातृत्व−सुख प्रदान किया। उन्होंने फुटपाथों पर पड़े हुए रोते−सिसकते रोगी अथवा मरणासन्न असहाय व्यक्तियों को उठाया और अपने सेवा केन्द्रों में उनका उपचार कर स्वस्थ बनाया। पीड़ित एवं दुखी मानवता की सेवा ही उनके जीवन का व्रत था। दया की देवी, दीन हीनों की माँ तथा मानवता की मूर्ति मदर टेरेसा एक ऐसी सन्त महिला थीं जिनके माध्यम से हम ईश्वरीय प्रकाश को देख सकते थे। हम उन्हें ईश्वर के अवतार के रूप में एवं उनके प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं।

 

मदर शांति की पैगम्बर एवं शांतिदूत महिला थीं, वे सभी के लिये मातृरूपा एवं मातृहृदया थीं। परिवार, समाज, देश और दुनिया में वह सदैव शांति की बात किया करती थीं। विश्व शांति, अहिंसा एवं आपसी सौहार्द की स्थापना के लिए उन्होंने देश−विदेश के शीर्ष नेताओं से मुलाकातें कीं और आदर्श, शांतिपूर्ण एवं अहिंसक समाज के निर्माण के लिये वातावरण बनाया। कहा जाता है कि जन्म देने वाले से बड़ा पालने वाला होता है। मदर टेरेसा ने भी पालने वाले की ही भूमिका निभाई। अनेक अनाथ बच्चों को पाल−पोसकर उन्होंने उन्हें देश के लिए उत्तम नागरिक बनाया। ऐसा नहीं है कि देश में अब अनाथ बच्चे नहीं हैं लेकिन क्या मदर टेरेसा के बाद हम उनके आदर्शों को अपना लक्ष्य मानकर उन्हें आगे नहीं बढ़ा सकते?

 

मदर टेरेसा ने कभी भी किसी का धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश नहीं की। प्रार्थना उनके जीवन में एक विशेष स्थान रखती थी जिससे उन्हें कार्य करने की आध्यात्मिक शक्ति मिलती थी। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था। उन्होंने अपनी शिष्याओं एवं धर्म−बहनों को भी ऐसी ही शिक्षा दी कि प्रेम की खातिर ही सब कुछ किया जाये। उनकी नजर में सारी मानव जाति ईश्वर का ही प्रतिरूप है। उन्होंने कभी भी अपने सेवा कार्य में धर्म पर आधारित भेदभाव को आड़े नहीं आने दिया। जब कोई उनसे पूछता कि 'क्या आपने कभी किसी का धर्मांतरण किया है?' वे कहती कि 'हां, मैंने धर्मांतरण करवाया है, लेकिन मेरा धर्मांतरण हिंदुओं को बेहतर हिंदू, मुसलमानों को बेहतर मुसलमान और ईसाइयों को बेहतर ईसाई बनाने का ही रहा है।' असल में वे हमेशा इंसान को बेहतर इंसान बनाने के मिशन में ही लगी थीं।

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मदर टेरेसा त्याग, सादगी एवं सरलता की मूर्ति थीं। वह एक छोटे से कमरे में रहती थीं और अतिथियों से प्रेमभाव के साथ मिलती थीं और उनकी बात को गहराई से सुनती थीं। उनके तौर तरीके बड़े ही विनम्र हुआ करते थे। उनकी आवाज में सहजता और विनम्रता झलकती थी और उनकी मुस्कुराहट हृदय की गहराइयों से निकला करती थी। सुबह से लेकर शाम तक वे अपनी मिशनरी बहनों के साथ व्यस्त रहा करती थीं। काम समाप्ति के बाद वे पत्र आदि पढ़ा करती थीं जो उनके पास आया करते थे।

 

मदर टेरेसा वास्तव में प्रेम और शांति की दूत थीं। उनका विश्वास था कि दुनिया में सारी बुराइयाँ व्यक्ति से पैदा होती हैं। अगर व्यक्ति प्रेम से भरा होगा तो घर में प्रेम होगा, तभी समाज में प्रेम एवं शांति का वातावरण होगा और तभी विश्वशांति का सपना साकार होगा। उनका संदेश था हमें एक−दूसरे से इस तरह से प्रेम करना चाहिए जैसे ईश्वर हम सबसे करता है। तभी हम विश्व में, अपने देश में, अपने घर में तथा अपने हृदय में शान्ति ला सकते हैं। उनके जीवन और दर्शन के प्रकाश में हमें अपने आपको परखना है एवं अपने कर्तव्य को समझना है। तभी हम उस महामानव की जन्म जयन्ती मनाने की सच्ची पात्रता हासिल करेंगे एवं तभी उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करने में सफल हो सकेंगे।

 

- ललित गर्ग

 

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