हे भगवान, ये कुर्सी और सिंहासन के चक्कर में हम कितने चूर-चूर हो गए हैं, न? पहले जब कोई सिंहासन पर बैठता था, तो वह सिंह बन जाता था, और अब कुर्सी पर बैठते ही व्यक्ति को लगता है कि वह तानाशाह बन गया है! पर बात तो यह है कि सिंहासन और कुर्सी में कुछ ज्यादा बड़ा अंतर नहीं है। जैसे ही कोई कुर्सी पर बैठता है, उसकी अहमियत का सिंह बनकर उसके दिल में दहाड़ने लगता है! और इस तंत्र की उत्पत्ति पर क्या कहें! यह अंग्रेजों की देन है, पर कुर्सी का सिंहासनी अस्तित्व हमारे देश में बहुत पहले से है। जब किसी हिन्दुस्तानी को पहली बार किसी सिंहासन जैसी कुर्सी पर बैठने का मौका मिलता है, तो उसके दोस्त और चमचे उसे 'चीयर' कहते हैं। 'चीयर' का अपभ्रंश 'चेयर' हो गया, और अब यह शब्द हिन्दुस्तान की हर गली-मोहल्ले में मिल जाता है! कभी-कभी मुझे लगता है कि हम सभी भगवान के एक ही चुटकुले हैं, और वह है - "कुर्सी पर बैठने के बाद सबका सिर घुम जाता है!" अरे भगवान, यही है हमारी हालत। पहले जब कोई सिंहासन पर बैठता था, तो वह सिंह बन जाता था, और अब कुर्सी पर बैठते ही व्यक्ति को लगता है कि वह तानाशाह बन गया है! पर यह सब कुछ भी नहीं है। जैसे ही कोई कुर्सी पर बैठता है, उसकी अहमियत का सिंह बनकर उसके दिल में दहाड़ने लगता है!
पहले बात तो यह है कि अंग्रेजों ने हमें तो कुर्सी का सिंहासनी अस्तित्व दिया, पर क्या हम उनका स्वागत करें? और जब हिन्दुस्तानी को पहली बार किसी सिंहासन जैसी कुर्सी पर बैठने का मौका मिलता है, तो उसे उसके दोस्त 'चीयर' कहते हैं! 'चीयर' का अपभ्रंश 'चेयर' हो गया, और अब यह शब्द हिन्दुस्तान की हर गली-मोहल्ले में मिल जाता है!
मेरा एक मित्र था, उसने एक बड़ी सी कुर्सी पर अपना हक जमाया। पर क्या था! जैसे ही उसने उस पर बैठने का दावा किया, उसके मुँह से टेढ़े शब्द निकलने लगे! उसका टेढ़ा मुँह सीधे होने के बाद उसके शब्द भी सीधे हो गए, पर जब मैंने उसकी कुर्सी की जाँच की, तो मुझे उसके अंदर खटमलों की भीषण सेना का पता चला! और उन खटमलों ने मुझे बहुत कुछ सिखाया, जैसे कि कुर्सीधारी के रक्त में से कितने भयंकर 'जर्म्स' निकलते हैं!
हमारे शहर में एक जनसेवक हैं, जो सोते जागते शहर की सेवा करने का शौक रखते हैं। पर क्या यह सही है कि जब उन्हें विधानसभा में बैठाया गया, तो उनके मुँह सीधे हो गए? नहीं नहीं, वह भी तो उसी खटमलों के कट्टर प्रभाव में आ गए, जिससे उनका मुँह टेढ़ा हो गया! हमारे देश के सेठ भी कम नहीं हैं। उन्होंने समझ लिया है कि कुर्सी की जोड़ी में किसी धर्म का कोई फर्क नहीं होता। इसलिए उन्होंने अपनी दुकानों में तकिए की बजाय कुर्सी रखी है! कुर्सीधारी और सेठ में बहुत अंतर है, पर उस अंतर को समझना कितना मुश्किल है! जितनी बार भी कुर्सी पर बैठते हैं, व्यक्ति की आदतें बदल जाती हैं, और उसे सेठ बनने का शौक हो जाता है! उन्होंने समझ लिया है कि कुर्सी की जोड़ी में किसी धर्म का कोई फर्क नहीं होता। इसलिए उन्होंने अपनी दुकानों में तकिए की बजाय कुर्सी रखी है! कुर्सीधारी और सेठ में बहुत अंतर है, पर उस अंतर को समझना कितना मुश्किल है! जितनी बार भी कुर्सी पर बैठते हैं, व्यक्ति की आदतें बदल जाती हैं, और उसे सेठ बनने का शौक हो जाता है!
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)