हमारा प्रेम, हमारी आजादी, हमारी संवदेनाएं, हमारी आकांक्षाएं, हमारे सपने, हमारा जीवन सबकुछ जब दांव पर लगा था तब एक हवा का तेज झोंका आया और हम सब के लिये एक संकल्प, एक आश्वासन एवं एक विश्वास बन गया। जिन्होंने न केवल हमें आजादी का स्वाद चखाया बल्कि हमारे जीवन का रहस्य भी उद्घाटित किया। एक अमृत पुत्र एवं महान क्रांतिकारी के रूप में जिनकी पहचान हैं महर्षि अरविन्द। राष्ट्रीय एवं मानवीय प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करते हुए उन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी एवं दार्शनिक बन गये और इन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। उनका अनुभूत सत्य है कि ‘रहे भीतर, जीयें बाहर’। जो भी उनकी विलक्षण आध्यात्मिक एवं योग की सन्निधि में आता, वह निरोगी एवं तेजस्वी बन जाता। जो राष्ट्रीय सोच की छांव में आता, देश के लिये बलिदान होने को तत्पर हो जाता है और जो भी उनकी उन्नत वैचारिकता की छांव में आता, विभाव स्वभाव में बदल जाता। उस आभावलय का प्रभाव ही विलक्षण एवं अनूठा था कि व्यक्ति भीतर से रू-ब-रू होने लगता। स्वयं की पहचान में उसे शब्द नहीं तलाशने पड़ते। जरूरत इस बात की है कि हम योगी अरविन्द को भौतिक चमत्कारों से तोलने का मन और माहौल न बनायें बल्कि उन्हें जीकर देखें तो सही आचरण स्वयं चमत्कार बन जायेगा। उनके बताये मार्ग का अनुसरण करें, यही उस दिव्य आत्मा के जन्म दिन को मनाने की सच्ची सार्थकता होगी।
योगी अरविन्द देश की राजनीतिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक क्रांति के सशस्त हस्ताक्षर थे। वे एक क्रांतिकारी, योगी, मनीषी, साहित्यकार, समाज-सुधारक, शिक्षाशास़्त्री, विचारक एवं दार्शनिक थे। क्रांतिकारी इसलिए की वे गरमदल के लिए प्रेरणास्रोत थे और दार्शनिक इसलिए की उन्होंने ‘क्रमिक विकास’ एवं इवोल्यूशन का एक नया सिद्धांत गढ़ा। दर्शनशास्त्र में जीव वैज्ञानिक चाल्र्स डार्विन के साथ उनका नाम भी जोड़ा जाता है। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। वे व्यक्ति नहीं, धर्म, दर्शन, योग, साहित्य साधना, संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के प्रेरणापुरुष थे। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। वे कवि भी थे और गुरु भी। पर हमारे सामने समस्या यह है कि हम कैसे मापे उस आकाश को, कैसे बांधे उस समन्दर को, कैसे गिने बरसात की बूंदों को? अरविन्द के क्रांतिकारी एवं आध्यात्मिक जीवन की उपलब्धियां उम्र के पैमानों से इतनी ज्यादा है कि उनके आकलन में गणित का हर फार्मूला छोटा पड़ जाता है। उन्होंने पुरुषार्थ से न केवल स्वयं का बल्कि राष्ट्र का भाग्य रचा, जो आज भी हमारे जीवन की दशा एवं दिशा बदलने में सक्षम है। उन्होंने अपने पुरुषार्थ से उन लोगों को जगाया जो सुखवाद एवं सुविधावाद के आदी बन गये थे और संबोध एवं प्रेरणा दी उन लोगों को जो जीवनके महत्वपूर्ण कार्यों को कल पर छोड़ देने की मानसिकता से घिरे थे जबकि जीवन का सत्य सदैव वर्तमान क्षण है।
महान क्रांतिकारी एवं ऋषिपुरुष महर्षि अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता (बंगाल की धरती) में हुआ। उनके पिता के. डी. घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे, जबकि उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गए। डॉक्टर घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र 7 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल 18 वर्ष की आयु में ही आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। पारिवारिक वातावरण पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित होने के बावजूद उनमें भारतीय संस्कृति रची-बसी थी। देशभक्ति से प्रेरित एवं आजादी के लिये कुछ अनूठा करने की भावना रखने वाले अरविन्द ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली।
योगी अरविन्द की प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अतः उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षाशास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बडौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यतापूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया। 1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी।
लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा, आन्दोलित हो गया। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल लॉ कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र 75 रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अतः वे सभी को विस्मित करते हुए छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका वन्देमातरम् का प्रकाशन प्रारम्भ किया। बंगाल के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियों को बढ़ाने के लिये उन्होंने कुछ मदद मौलाना अबुल कलाम आजाद से ली थी। उन्होंने वन्देमातरम् पत्रिका के द्वारा विदेशी सामानों का बहिष्कार और आक्रामक कार्यवाही सहित स्वतंत्रता पाने के कुछ प्रभावकारी एवं अचूक तरीके उल्लिखित हैं। उनके क्रांतिकारी लेखन और भाषणों ने स्वदेशी, स्वराज और भारत के लोगों के लिये विदेशी सामानों के बहिष्कार के संदेश को फैलाने में मदद की एवं क्रांति की अलख जगायी।
योगी अरविन्द की उग्र राष्ट्र सोच एवं क्रांतिकारी विचारों से ब्रिटिश सरकार अत्यधिक आतंकित एवं भयभीत थी अतः 2 मई 1908 को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे ‘अलीपुर षडयन्त्र केस’ के नाम से जानते है। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया। अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। वे जेल में गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे तब उन्हें साधना के दौरान भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। श्रीकृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन को छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए। जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। वे गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए। वहीं पर रहते हुए उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है। वे एक बहुभाषीय व्यक्ति थे जो अंग्रेजी, फ्रेंच, बंगाली, संस्कृत, जर्मन, ग्रीक एवं इटेलियन आदि भाषाओं को अच्छे से जानते थे। वे अंग्रेजी भाषा के साथ बहुत स्वाभाविक थे क्योंकि अंग्रेजी उनके बचपन की भाषा थी। वे अच्छे से जानते थे कि उस समय में अंग्रेजी संवाद करने का एक अच्छा माध्यम था और उसकी उपयोगिता भी थी। अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करके भाव, विचार और निर्देशों का आदान-प्रदान करने का अच्छा फायदा था। वे एक उच्च नैतिक चरित्र के विलक्षण व्यक्ति थे जिसने उनको एक शिक्षक, लेखक, विचारक, संपादक, योगी एवं क्रांतिकारी बनने के काबिल बनाया। वे एक अच्छे लेखक थे जिन्होंने अपने कई लेखों में मानवता, दर्शनशास्त्र, शिक्षा, भारतीय संस्कृति, धर्म और राजनीति के बारे में लिखा था। खासकर उन्होंने डार्विन जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिंद्धात से आगे चेतना के विकास की एक कहानी लिखी और समझाया कि किस तरह धरती पर जीवन का विकास हुआ। उनकी प्रमुख कृतियां हैं- द मदर, लेटर्स ऑन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोयट्री। उनकी आध्यात्मिकता एवं राष्ट्रीयता दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू थे। योगी अरविन्द जहां राष्ट्रीयता की प्रेरणा थे तो तनावों की भीड़ में शांति का सन्देश। अशांत मन के लिये वे समाधि का नाद थे तो चंचल चित्त के लिये एकाग्रता की दीपशिखा। विचारों के द्वेत में सापेक्ष दृष्टिकोण थे तो संघर्ष के क्षणों में संतुलन का उपदेश। ऐसी दिव्य चेतना को जन्म दिवस पर नमन्!
- ललित गर्ग