समाजवादी पार्टी का वन नेशन वन इलेक्शन का विरोध सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम लट्ठा जैसा है। ऐसा लगता है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव को वन नेशन वन इलेक्शन में खामियां निकालने के लिये कोई गंभीर मुद्दा नहीं मिल रहा है। वन नेशन, वन इलेक्शन के खिलाफ अखिलेश की बयानबाजी हवा हवाई से अधिक कुछ नहीं हैं। वह किसी भी तरह से जनता में भ्रम पैदा करना चाहते हैं। इसी लिये वह बेतुके संदेह व्यक्त कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि अखिलेश इस बिल का इस लिये विरोध कर रहे हैं क्योंकि वन नेशन वन इलेक्शन मोदी सरकार की मंशा है। अखिलेश की मंशा सियासी है इसलिये उनकी पार्टी में भी इसको लेकर फूट नजर आ रही है। अखिलेश से इत्तर समाजवादी पार्टी के नेता रविदास मेहरोत्रा ने वन नेशन वन इलेक्शन का खुलकर समर्थन किया है। यह और बात है कि पार्टी ने रविदास मेहरोत्रा के बयान को उनकी निजी राय बता कर पल्ला झाड़ लिया है।
बात वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर अखिलेश के बिगड़े बोलों की कि जाये तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने पूछ रहे हैं, ‘अगर ‘वन नेशन, वन नेशन’ सिद्धांत के रूप में है तो कृपया स्पष्ट किया जाए कि प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक के सभी ग्राम, टाउन, नगर निकायों के चुनाव भी साथ ही होंगे। यदि अखिलेश रिपोर्ट पढ़ लेते तो उन्हें मालूम रहता कि पहले चरण में लोकसभा व देश के सभी विधान सभाओं और दूसरे चरण में 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकायों के चुनाव कराने की सिफारिश की गई है। अखिलेश पूछ रहे हैं कि किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने पर क्या जनता की चुनी सरकार को वापस आने के लिए अगले आम चुनावों तक का इंतज़ार करना पड़ेगा या फिर पूरे देश में फिर से चुनाव होगा?इसको लेकर भी रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि अगर किसी विधान सभा का चुनाव अपरिहार्य कारणों से एक साथ नहीं हो पाता है तो बाद की तिथि में होगा,लेकिन कार्यकाल उसी दिन समाप्त होगा जिस दिन लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होगा। यदि किसी राज्य की विधान सभा बीच में भंग हो हाती है,तो नया चुनाव विधानसभा के बाकी के कार्यकाल के लिये ही कराया जायेगा। अखिलेश पूछ रहे हैं वन नेशन वन इलेक्शन योजना चुनावों का निजीकरण करके परिणाम बदलने की तो नहीं है? ऐसी आशंका इसलिए जन्म ले रही है क्योंकि कल को सरकार ये कहेगी कि इतने बड़े स्तर पर चुनाव कराने के लिए उसके पास मानवीय व अन्य जरूरी संसाधन ही नहीं हैं, इसीलिए हम चुनाव कराने का काम भी (अपने लोगों को) ठेके पर दे रहे हैं। यह भी हास्यास्पद है।
ऐसा नहीं है कि कभी लोकसभा और विधान सभा के चुनाव साथ हुए ही नहीं हैं। 1951 से 1967 तक चुनाव एक साथ होते थे। उसके बाद में 1999 में लॉ कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में ये सिफ़ारिश की थी देश में चुनाव एक साथ होने चाहिए, जिससे देश में विकास कार्य चलते रहें। वन नेशन, वन इलेक्शन कोई आज की बात नहीं है. इसकी कोशिश 1983 से ही शुरू हो गई थी और तब इंदिरा गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया था। ये कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराए जाने का अंततः सबसे अधिक फ़ायदा बीजेपी और कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को होगा और छोटी पार्टियों के लिए एक साथ कई राज्यों में स्थानीय और लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान चलाना कठिन हो सकता है।
बहरहाल, कांग्रेस कह चुकी है कि वो एक राष्ट्र, एक चुनाव के विचार का कड़ा विरोध करती है और इस विचार पर काम नहीं करना चाहिए। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने हाई लेवल कमेटी के आगे पूरी तरह से वन नेशन वन इलेक्शन का विरोध नहीं किया था लेकिन उसने इसको लेकर चिंता जताई। पार्टी प्रमुख मायावती ने सोशल मीडिया वेबसाइट एक्स पर पोस्ट कर कहा कि एक देश, एक चुनाव की व्यवस्था के तहत देश में लोकसभा, विधानसभा व स्थानीय निकाय का चुनाव एक साथ कराने वाले प्रस्ताव को केन्द्रीय कैबिनेट की मंज़ूरी पर हमारी पार्टी का स्टैंड सकारात्मक है, लेकिन इसका उद्देश्य देश व जनहित में होना ज़रूरी है।