By राजेश कश्यप | Dec 15, 2018
भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में हुआ युद्ध कोई सामान्य युद्ध नहीं था। इस युद्ध ने कई नई ऐतिहासिक मिसालें कायम कीं। इस युद्ध पर पूरे विश्व की नजर टिकी हुई थी और इसे विश्व युद्ध के बाद चौथी छोटी लड़ाई की संज्ञा दी गई। यह युद्ध 3 दिसम्बर, 1971 से लेकर 14 दिसम्बर, 1971 तक चला। मात्र दो सप्ताह तक चले इस युद्ध ने देखते ही देखते एक नए राष्ट्र 'बांग्लादेश' का निर्माण कर दिया और साथ ही पाकिस्तान के 93000 सैनिकों द्वारा भारतीय सैनिकों के समक्ष आत्म−समर्पण की घटना ने एक नया वैश्विक रिकार्ड भी कायम कर दिया। इतनी बड़ी संख्या में आज तक किसी देश के सैनिकों ने आत्म−समर्पण नहीं किया है। केवल इतना ही नहीं, इस युद्ध ने पूरी दुनिया में रणनीतिक कौशल की एक नई मिसाल भी कायम की है। जिस युद्ध में विश्व की अमेरिका और ब्रिटेन जैसी महाशक्तियां भी युद्ध में पक्षकार न बनने के लिए विवश हो जाए, भला उससे बढ़कर और रणनीतिक युद्ध कौशल की और अनूठी मिसाल क्या हो सकती है ?
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जी, हाँ! वर्ष 1971 के भारत−पाक युद्ध में अमेरिका और ब्रिटेन ने पाकिस्तान के पक्ष में भारत के विरूद्ध भयंकर जहाजी बेड़े समुन्द्र के रास्ते रवाना भी कर दिये थे, लेकिन ऐन वक्त पर उन्हें पाकिस्तान की मदद करने से अपने कदम तत्काल वापिस हटाने के लिए विवश हो जाना पड़ा। यह सब हुआ, भारतीय सेना के पराक्रमी और शूरवीर सैनिकों की बहादुरी, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की राजनीतिक कौशलता, रणनीतिक कूटनीति, अनूठी दूरदृष्टिता और जल−थल और वायु सेना के अभेद्य युद्धनीति।
इस युद्ध के लिए सीधे−सीधे तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान जिम्मेदार था। वर्ष 1971 से पहले पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटा हुआ था, पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान। पश्चिमी पाकिस्तान की संकीर्ण सियासत और क्रूर व अमानवीय करतूतों ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में भारी आक्रोश भर दिया। जब आक्रोश चरम पर था तो पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान की तमाम आत्मिक भावनाओं को भयंकर आघात पहुंचाते हुए उर्दू को राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया। इस पर बांग्ला भाषा को अपनी आन−बान और शान समझने वाले पूर्वी पाकिस्तान ने बगावत का झण्डा बुलन्द कर दिया। इसी समय पश्चिमी पाकिस्तान ने एक और ऐसा गलत राजनीतिक फैसला ले लिया, जिसने देखते ही देखते एक ऐतिहासिक भयंकर युद्ध का शंखनाद कर दिया। दरअसल, यह गलत राजनीतिक फैसला लिया पश्चिमी पाकिस्तान की पी.पी.पी. पार्टी के नेता जुल्फीकार अली भुट्टो ने। पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग पार्टी के नेता शेख मुज़ीबुर्रहमान ने 313 सदस्यों वाली पाकिस्तानी संसद में 168 सीटें जीतकर सरकार बनाने का दावा ठोंक दिया। जुल्फीकार अली भुट्टो को यह सब नागवारा गुजरा और उसने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर न केवल शेख मुज़ीबुर्रहमान को सरकार की बागडोर सौंपने से स्पष्ट इनकार कर दिया, बल्कि सेना को पश्चिमी पाकिस्तान की सड़कों पर उतार दिया। इन सैनिकों ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दीं और बांग्ला भाषियों को चुन−चुनकर बुरी मौत देने लगे। इसके साथ ही शेख मुज़ीबुर्रहमान को आधी रात को 1.30 बजे गिरफ्तार करके पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में डाल दिया गया। इन सब अत्याचारों से त्रस्त सभी बांग्लाभाषी सिर पर कफन बांधकर पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के खिलाफ सड़कों पर उतर आए और स्वतंत्र बांग्लादेश के निर्माण का संकल्प ले लिया।
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इसी घटनाक्रम के बीच पाकिस्तान सेना के एक मेजर जिया उर्रहमान बगावत का झण्डा बुलन्द करते हुए शेख मुज़ीबुर्रहमान को अपना नेता घोषित कर दिया और अपनी आजादी का स्पष्ट ऐलान कर दिया। अब सीधे तौर पर पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तानी आमने−सामने आ चुके थे। मुक्तिवाहिनी सेना से कई गुरिल्ला संगठन बनाए और उन्होंने पाकिस्तानी सेना पर तीखे हमले करने शुरू कर दिए। पूर्वी पाकिस्तान में सरेआम कत्लेआम मच गया। पूर्वी पाकिस्तान ने भारत से मदद की गुहार लगाई। भारत सरकार ने एक जिम्मेदार राष्ट्र होने के नाते इस सन्दर्भ में ठोस कदम उठाने का निश्चय किया। भारत ने मुक्तिवाहिनी सेना को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। पश्चिमी पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के शिकार 10 लाख से अधिक शरणार्थियों को शरण दी। मामले की संवेदनशीलता को भांपते हुए भारती की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने बड़ी सूझबूझ, दूरदृष्टिता और कुशल कुटनीति का परिचय देते हुए दुनिया के देशों को पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे इस कत्लेआम को समझने का आह्वान किया। बेहद विडम्बना का विषय रहा कि किसी भी देश ने उनके इस आह्वान पर कोई गौर नहीं किया। जब पानी सिर से गुजर गया तो भारत खुलकर पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा हो गया।
3 दिसम्बर, 1971 की शाम 5.30 बजे पश्चिमी पाकिस्तान ने भारत पर हमले की घोषणा कर दी। इसके दस मिनट बाद, 5 बजकर 40 मिनट पर पाकिस्तान के पहले दस्ते ने पी.ए.एफ. लड़ाकू जहाजों के साथ भारत पर हमले के लिए उड़ान भर दी। भारत के खिलाफ हवाई किलेबंदी करने के उद्देश्य से पाकिस्तानी लड़ाकू जहाजों ने सरगोधा से उड़ान भरकर शाम 5 बजकर 45 मिनट पर अमृतसर एयरबेस पर बम बरसाने शुरू कर दिये। इसके ठीक पाँच मिनट पर श्रीनगर एयरबेस को भी निशाना बना लिया। इसके साथ साथ ही पाकिस्तानी एयरफोर्स ने पठानकोट, अनंतीपुर और फरीदकोट पर बम बरसाने शुरू कर दिये। देखते ही देखते रात्रि 10.30 बजे तक अंबाला, आगरा, हलवारा, अमृतसर, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर पर भी भारी बमबारी करनी शुरू कर दी। भारतीय हवाई क्षेत्र पर कब्जा करने की नापाक कोशिशें रात्रि 11.30 बजे तक चरम पर पहुँच गईं।
पाकिस्तान ने एयरफोर्स के हमले के बाद जम्मू के पूंछ सैक्टर में युद्धक टैंक भी उतार दिए और जमीनी लड़ाई का आगाज कर दिया। इसके बाद पाकिस्तानी सेना ने छंब सैक्टर पर अत्यन्त आक्रामक हमला बोल दिया और उस पर कब्जा कर लिया। इस कामयाबी से उत्साहित होकर पाकिस्तानी कमाण्डर टिक्का खान के नेतृत्व में ब्रिगेड जम्मू की तरफ बढ़ चली। पाकिस्तान अपनी तरफ से हर वो कदम उठा चुका था, जो कि वह उठा सकता था। अब बारी भारत की थी। प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने ऑल इण्डिया रेडियो पर राष्ट्र को संबोधित किया और पाकिस्तान को जवाब देने की घोषणा कर दी। उसके तुरन्त बाद इंडियन एयरफोर्स ने जवाबी हमला करते हुए पाकिस्तान के मुरीद, मियांवाली, सरगोधा, चांदेर, दिसानेवाला, रसीद और मसरूद एयरबेस को नेस्तनाबूद कर दिया। पाकिस्तान के पास भारत के लड़ाकू हवाई विमानों हंटर के अलावा एच.एफ. 24, मिग−21 और सुखोई आदि का कोई जवाब नहीं था। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान की सीमाओं पर तैनात टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों आदि के परखच्चे उड़ा दिये। दूसरी तरफ पूंछ, जम्मू इलाकों में भारतीय थल सेना पाकिस्तानी सेना को धूल में मिला रही थी।
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पाकिस्तान ने राजस्थान के रास्ते लोंगोवाल पोस्ट पर कब्जा जमाने की रणनीति बनाई और 4 दिसम्बर को 2800 जवानों, 65 टैंकों और अन्य भारी आर्टिलरी के साथ पाकिस्तानी सेना ने हमला बोल दिया। भारतीय सेना दुश्मन की हर गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए थी। उस समय दुश्मन का मुकाबला करने के लिए मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के नेतृत्व में मात्र 120 सैनिक मोर्चे पर अडिग खड़े थे। लोंगोवाल पोस्ट को पाकिस्तानी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। मेजर कुलदीप सिंह ने एयरफोर्स का सहयोग मांगा, लेकिन नजदीकी एयरबेस में हंटर विमान ही उपलब्ध थे। ये विमान रात्रि में उड़ान भरने में असमर्थ थे। ऐसी विकट परिस्थिति में मेजर कुलदीप व उसके 120 जाबांज सैनिकों ने दुश्मन की भारी मोर्चेबन्दी का सुबह होने तक करारा जवाब दिया। सुबह होते ही एयरफोर्स हंटर के जरिए दुश्मन पर काल बनकर टूट पड़ी और चुन−चुनकर दुश्मन के टैंकों और बख्तरबन्द गाड़ियों के परखच्चे उड़ा दिये। दुश्मन के बचे हुए मोर्चे से पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। इसके बाद भारत के वीर सूरमा पाकिस्तान में घूस गए और 8 दिसम्बर को उसके 640 वर्ग किलोमीटर भू−भाग पर अपना कब्जा जमा लिया।
भारतीय थल सेना और वायु सेना के अलावा नौसेना ने भी दुश्मन को आपने ट्राईडेंट आपरेशन के जरिए नेस्तनाबूद करने में कोई कोर−कसर नहीं छोड़ी। बंगाल की खाड़ी हो या अरब सागर, समुन्द्र के जांबाज सिकन्दरों ने दुश्मन के लिए समुद्री कब्र खोदकर रख दी। 3 दिसम्बर की रात्रि 11 बजकर 20 मिनट पर भारतीय नौसेना पी−15 टर्मिट एंटीशिप मिसाइलों से लैस होकर सौराष्ट्र के रास्ते दुश्मन की मांद में जा घुसी और कराची पोस्ट को ध्वस्त कर दिया और आसपास के इलाकों में भयंकर तबाही मचाकर रख दी।
दूसरी तरफ, पूर्वी सीमा पर भी पाकिस्तानी सेना ने बौखला कर विशाखापटनम को निशाना बनाने की ठान ली। दुश्मन की घातक पनडुब्बी पी.एन.एस. गाज़ी का मुँहतोड़ जवाब के लिए आईएनएस राजपूत पूरी तरह तैयार था। यह 4 दिसम्बर को दुश्मन पर काल बनकर टूटा और गाज़ी की समुन्द्र में ही समाधि बना दी। भारतीय नौसेना ने ऑपरेशन ट्राईडेट के बाद 8 दिसम्बर को रात लगभग 8 बजे ऑपरेशन पॉयथेन के जरिए पाकिस्तान के पश्चिमी तट पर तांडव मचाकर रख दिया। इससे पूरा पाकिस्तान थर्रा उठा। 9 दिसम्बर तक भारतीय नौसेना ने दुश्मन के 10 युद्धपोतों और वेसल्स को समुन्द्र में दफनाकर उसकी कमर तोड़कर रख दी थी।
इसी बीच यह युद्ध एक सामान्य युद्ध से अंतर्राष्ट्रीय महायुद्ध बनने की राह पर अग्रसित हो चला। भारत पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका अपने सेवन्थ फ्लीट के साथ बंगाल की ओर रवाना हो गया और दूसरी तरफ पाकिस्तान की मदद के लिए ब्रिटेन अपने नेवल गू्रप वाहकपोत ईगल के साथ भारतीय सीमा हिन्द महासागर के नजदीक तक पहुँच गया। मौके की नजाकत को समझते हुए सोवियत संघ ने भी मोर्चा संभाल लिया और तत्काल भारत की मदद के लिए दसवां ऑपरेटिव बैरल गू्रप को कमाण्डर बलादिमिर के नेतृत्व में रवाना कर दिया। इससे पहले कि अमेरिकन पोत कराची, चटगाँव या ढाका तक अपनी पहुँच बना पाता, एंटीशिप मिसाईलों से लैस सोवियत परमाणु पनडूब्बी उनकीं राह का रोड़ा बन गईं। अमेरिकन नेवी चारों तरफ से घिर गई। सोवियत के निशाने पर सभी अमेरिकन लड़ाकू जहाज आ चुके थे। अंततः मजबूर होकर अमेरीकी कमाण्डर ने अपने आकाओं को दो टूक कह दिया− ''सर! वी आर लेट!''
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इसी दौरान भारतीय एयरफोर्स ने कराची और ढाका के एयरबेस को भी तबाह कर दिया और उसके बाद चटगाँव के बन्दरगाहों को तबाह करके पाकिस्तान की कमर पूरी तरह तोड़कर रख दी। इसके बाद भारतीय वायुयानों ने ढाका सहित दूसरे इलाकों में पर्चे गिराकर पाकिस्तानी सैनिकों को आत्म−समर्पण के लिए कहा। इसका पाकिस्तानी सैनिकों पर जबरदस्त मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने तेरह दिन की जंग के बाद हाथ खड़े कर दिये। 16 दिसम्बर, 1971 की शाम को 6 बजकर 31 मिनट पर पाकिस्तान के जनरल नियाजी ने अपने 93000 सैनिकों के साथ भारतीय सेना के समक्ष आत्म−समर्पण कर दिया। इसी के साथ दुनिया के इतिहास में इस युद्ध ने कई नए अध्याय जोड़ दिए। 16 दिसम्बर, 1971 को बांग्लादेश के रूप में एक नया देश विश्व के मानचित्र पर अंकित हो गया और भारत के समक्ष पाकिस्तान के 93000 सैनिकों के आत्म−समर्पण के बाद यह दुनिया का सबसे बड़े आत्म−समर्पण के रूप में दर्ज हो गया। सैनिक, राजनीतिक और कूटनीतिक आदि हर स्तर पर भारत को सफलता हासिल हुई।
हरियाणा की मिट्टी में जन्मे शूरवीर मेजर होशियार सिंह ने अपनी बहादुरी, शौर्य और पराक्रम के बलपर भारतीय सैन्य इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित करवाया। युद्ध के दौरान 15 दिसम्बर, 1971 की रात्रि 10 बजे सीमा पार लगभग 20 किलोमीटर दूर बारूदी सुरंगों से पटी और पाकिस्तानी सैनिकों से घिरी बसन्तर नदी पर पुल बनाने की जिम्मेदारी सेना की तीसरी ब्रिगेड की लगाई गई। उस समय मेजर होशियार सिंह शंकरगढ़ सैक्टर में सी−कम्पनी का नेतृत्व कर रहे थे। उन्हें जरपाल इलाके पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। मेजर होशियार सिंह अपनी टुकड़ी के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए सिर पर कफन बांधकर दुश्मन पर टूट पड़े। इस दौरान उनका बंकर भी ध्वस्त हो गया और वे स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गए। इन सबके बावजूद मेजर होशियार सिंह ने जबरदस्त दमखम और अदम्य पराक्रम की मिसाल पेश करते हुए न केवल स्वयं युद्ध के मोर्चे का अनूठा नेतृत्व किया, बल्कि अपने साथी जवानों की हौंसला अफजाई भी बखूबी की, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने रात्रि बजे अपना मिशन फतह कर लिया और बसन्तर नदी के पार जरपाल इलाके पर कब्जा कर लिया।
इसके अगले ही दिन अर्थात्, 16 दिसम्बर को बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों ने कई भयंकर हमले किए, जिनका मेजर होशियार सिंह ने अपनी टुकड़ी के साथ मुंहतोड़ जवाब दिया। तीसरे दिन, 17 दिसम्बर को दुश्मन ने बड़ी संख्या में टैंकों से हमला बोला। बुरी तरह घायल हो चुके इस हमले को भी मेजर होशियार सिंह ने अपने अनूठे रणकौशल से विफल कर दिया। इन्हीं सब खूबियों के लिए उन्हें वीरता के सर्वोच्च सैन्य सम्मान 'परमवीर चक्र' से अलंकृत किया गया। यह सर्वोच्च वीरता सम्मान पाने वाले वे भारत के चौदहवें वीर सपूत बने। हरियाणा का यह रणबांकुरा ब्रिगेडियर रैंक से सेवानिवृत हुआ। उनका निधन 6 दिसम्बर, 1998 को हुआ। मेजर होशियार सिंह को 'परमवीर चक्र' के साथ दिए गए प्रशस्ति वाचन में उनकी बहादुरी की शौर्यगाथा बड़े सुनहरी अक्षरों में अंकित की गई।
प्रशस्ति वाचन
15 दिसम्बर, 1971 ग्रेनेडिर्यस की बटालियन को यह जिम्मा सौंपा गया था कि यह बसंतार नदी के उस पार शकरगढ़ सेक्टर में एक ब्रिगेड का ठिकाना बनाए। मेजर होशियार सिंह उस बटालियन की लेफ्टि फारवर्ड कम्पनी की कमान संभाल रहे थे। उन्हें हुकुम मिला था कि वह दुश्मन के जरवाल ठिकाने पर कब्जा जमाएं। जरवाल दुश्मन का एक मजबूत गढ़ था। इस आक्रमण के दौरान मेजर होशियार सिंह की कम्पनी को दुश्मन की भीषण गोलाबारी का सामना करना पड़ा, साथ ही वहां आमने−सामने की गोलाबारी भी चल रही थी। दुश्मन मीडियम मशीनगन से लैस था।
इस स्थिति में भी मेजर होशियार सिंह ने आक्रमण की अगुवाई जारी रखी और आमने−सामने की गम्भीर मुठभेड़ के बाद लक्ष्य पर कब्जा कर लिया। इस स्थिति से दुश्मन बौखला गया और अगले ही दिन 16 दिसम्बर, 1971 को दुश्मन ने एक के बाद एक तीन लगातार हमले किए। इनमें से दो हमलों में बमबारी पर जबरदस्त जोर रहा।
मेजर होशियार सिंह इस खतरे के बावजूद एक खाई से दूसरी खाई में जाकर अपने सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे। उनके इस प्रेरणादायक नेतृत्व से उत्साहित होकर उनकी टुकड़ी के जवानों ने बहादुरी से जूझते हुए दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया।
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17 दिसम्बर, 1971 को दुश्मन ने अपनी बटालियन ने अपनी बटालियन तथा बमबारी का सहारा लेकर फिर हमला किया। उस समय हालांकि मेजर होशियार सिंह बुरी तरह घायल थे, वह खुले में निकल कर खाईयों में तैनात अपने सैनिकों के पास जाकर उन्हें उत्साहित करने से नहीं चूके। उन्होंने उस समय भी अपनी जान की परवाह नहीं की, जब दुश्मन का एक गोला, ठीक उनके पास एक मशीनगन के ठिकाने पर फटा, जिसने उस ठिकाने को बर्बाद कर दिया।
बेहद घायल मेजर होशियार सिंह को तुरन्त इस बात का एहसास हुआ कि मशीन गन का हमला उनकी तरफ से रूकना नहीं चाहिए। वह भाग कर मशीन गन का ठिकाना बनाकर मशीन गन से गोलियों की बौछार बनाए रहे। उनका यह जवाबी हमला बहुत कामयाब रहा। दुश्मन के पच्चीस जवान तथा उनका कमाण्डर मारा गया। खुद भयंकर रूप से जख्मी होने के बावजूद मेजर होशियार सिंह ने तब तक रण से हटना मंजूर नहीं किया, जब तक युद्ध विराक की घोषणा नहीं हो गई। इस पूरे युद्धकाल में मेजर होशियार सिंह ने बेमिसाल बहादुरी तथा अदम्य पराक्रम का प्रदर्शन किया तथा आदर्श नेतृत्व का उदाहरण पेश किया। इस तरह से सेना की परम्परा का निर्वाह किया।
−गजट ऑफ इण्डिया नोटिफिकेशन नं. 7 प्रेस/172
इस युद्ध में परमवीर चक्र विजेता मेजर होशियार सिंह के अलावा हरियाणा के अन्य रणबांकुरों ने भी अपने अदम्य साहस और पराक्रम का लोहा मनवाया। वर्ष 1971 के भारत−पाक युद्ध में 2−जाट, 3−राजपूताना रायफल्स, 10−डोगरा, 19−राजरिफ, 14−जाट, 17−(पूना) हॉर्स, 8−जाट, इंजीनियर, 4−सिक्ख, नैवी, आई.ए.एफ 5 ग्रनेडियरर्स, 11 ग्रनेडिर्यस, 4−राजपूत, 9−हॉर्स और 3−ग्रेनेडिर्यस आदि रेजीमेंटों में शामिल हरियाणा के रणबांकुरों ने अपनी बेमिसाल बहादुरी और अदम्य साहस का परिचय दिया। इस युद्ध में हरियाणा की मिट्टी में जन्मे 374 वीरों ने अपनी शहादत दी। इनमें सर्वाधिक 69 शहादतें भिवानी जिले के जवानों ने दीं। उसके बाद झज्जर के 61, महेन्द्रगढ़ के 39, रोहतक के 36, सोनीपत के 30, रेवाड़ी के 25, हिसार के 16, जीन्द के 15, अम्बाला के 13, गुड़गाँव के 13, करनाल के 12, फरीदाबाद के 8, पानीपत के 9, कुरूक्षेत्र के 7, यमुनानगर के 6, कैथल के 5, पंचकूला के 5, फतेहाबाद के 3 और सिरसा के 2 वीरों ने अपने वतन की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर किए।
इस युद्ध में हरियाणा के वीरों को एक परमवीर चक्र, 5 महावीर चक्र और 42 वीर चक्र प्रदान किए गए। इनमें से 2 महावीर चक्र और 9 वीर चक्र मरणोपरान्त प्रदान किए गए। मरणोपरान्त महावीर चक्र से कैप्टन देवेन्द्र सिंह अहलावत (झज्जर) और मेजर विजय रत्न चौधरी (अंबाला) को नवाजा गया। इनके अलावा नायब सूबेदार उमेद सिंह (झज्जर), मेजर एम.एस. ग्रेवाल (अंबाला), हवलदार दयानंद (भिवानी), लांस नायक अभेराम (जीन्द), सी.एच.एस. किशन सिंह (हिसार), नायक महेन्द्र सिंह (यमुनानगर), कैप्टन के.एस. राठी (झज्जर), लेफ्टि. हवा सिंह (हिसार) और नायक रमेशचन्द्र (पलवल) को मरणोपरान्त वीर चक्र से अलंकृत किया गया।
इस युद्ध में दुश्मन को छठी का दूध याद दिलाकर अपनी वीरता और शौर्य का परचम फहराने वाले मेजर होशियार सिंह (सोनीपत) को सेना के सर्वोच्च वीरता पदक परमवीर चक्र से सुशोभित किया गया। इसके साथ ही तीन शूरवीरों एयर कमाण्डर बबरूभान यादव (गुड़गाँव), पी.ओ. चमन सिंह (रेवाड़ी) और ले.जनरल वी.पी. आर्य (करनाल) को महावीर चक्र से अलंकृत किया गया। इनके अलावा ले. कमाण्डर अश्विनी कुमार (अंबाला), विंग कमाण्डर आर.एन. बाली (अंबाला), ले. कमाण्डर आर.एन. सोढ़ी (अंबाला), एयर विंग कमाण्डर जगबीर (अंबाला), सूबेदार गुरचरण सिंह (अंबाला), ले. जनरल जे.बी.एस. यादव (भिवानी), ले. कर्नल बी.एस. पूनिया (भिवानी), ले. कर्नल शेर सिंह (भिवानी), ले. खजान सिंह (भिवानी), नायब सूबेदार अमर सिंह (भिवानी), कमोडोर वी.एस. शेखावत (भिवानी), ग्रूप कैप्टन ए.के. दत्ता (फरीदाबाद), कमोडोर आर.सी. गोसाई (फरीदाबाद), ले. कर्नल सुखपाल सिंह (गुड़गांव), कैप्टन जय सिंह (झज्जर), ब्रिगेडियर वी.एस. रूहिल (झज्जर), कर्नल ए.एस. अहलावत (झज्जर), नायक अमृत (जीन्द), कर्नल देविन्दर सिंह राजपूत (करनाल), कर्नल अमरीक सिंह (करनाल), ले. कर्नल सुनहरा सिंह (करनाल), कैप्टन नान्जी राम (महेन्द्रगढ़), कैप्टन टेकराम (पानीपत), कैप्टन रामचन्द्र (रेवाड़ी), कैप्टन नंदराम (रेवाड़ी), ले. कमाण्डर इन्द्र सिंह (रोहतक), कैप्टन प्रहल्लाद सिंह (रोहतक), विंग कमाण्डर जे.एस. गहलावत (सोनीपत), विंग कमाण्डर पी.बी. कालरा (सोनीपत), नायक उमेद सिंह (भिवानी), नायक रमेश चन्द्र (फरीदाबाद), स्क्वा. लीडर ए.के. दत्ता (फरीदाबाद) और स्क्वा. लीडर आर.पी. गुसाई (फरीदाबाद) को वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
-राजेश कश्यप
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं और कौशलता विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा संचालित जन शिक्षण संस्थान, रोहतक के प्रभारी निदेशक हैं।)