मध्य प्रदेश में बीजेपी के कुछ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल के साथ ही मुरझाए हुए हैं। कैबिनेट के गठन के बाद तो मामला सन्निपात-सा हो गया है। बड़े ही सुव्यवस्थित तरीके से पार्टी में एक विमर्श खड़ा किया जा रहा है कि बाहर से आये नेताओं को समायोजित करने से पार्टी का कैडर ठगा महसूस कर रहा है। कैडर के हिस्से की सत्ता दूसरे दलों से आये नेता ले जा रहे हैं।
इस विमर्श के अक्स में बीजेपी की विकास यात्रा पर नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्ट है कि सिंधिया के आगमन और उनकी धमाकेदार भागीदारी बीजेपी में कोई नया घटनाक्रम नहीं है। आज की अखिल भारतीय भाजपा असल में राजनीतिक रूप से गैर-भाजपाइयों के योगदान का भी परिणाम है।
जिन सिंधिया को लेकर बीजेपी का एक वर्ग आज प्रलाप कर रहा है उन्हें याद होना चाहिये कि 1967 में सिंधिया की दादी राजमाता विजयाराजे अगर कांग्रेस छोड़कर बारास्ता स्वतन्त्र पार्टी जनसंघ में न आईं होती तो क्या मप्र में इतनी जल्दी पार्टी का कैडर खड़ा हुआ होता?
एक बहुत ही प्रेक्टिकल सवाल विरोध के स्वर बुलन्द करने वालों से पूछा जा सकता है कि क्या वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं उसके आसपास की विधानसभा सीटों में उनकी भीड़ भरी सभाएं सिंधिया की टक्कर में आयोजित की जा सकती हैं? क्या देश भर में सिंधिया की उपयोगिता से कोई इनकार कर सकता है? क्या मप्र में सिंधिया के भाजपाई हो जाने से कांग्रेस का अस्तित्व संकट में नहीं आ गया?
रही बात बीजेपी कैडर की तो वह सदैव ही यह चाहता ही है कि उसकी पार्टी के व्यास का विस्तार हो। यह निर्विवाद तथ्य है कि बीजेपी में उसकी रीति नीति को आत्मसात करने वाले ही आगे बढ़ पाते हैं। ऐसा भी नहीं कि बाहर से आये सभी नेताओं के अनुभव खराब हैं। मप्र में जनसंघ के अध्यक्ष रहे शिवप्रसाद चिनपुरिया मूल कैडर के नहीं थे। इसी तरह ब्रजलाल वर्मा भी बीजेपी में बाहर से आकर प्रदेश अध्यक्ष तक बने। ऐसा लगता है कि बीजेपी ने मप्र में सिंधिया के दबाव में 14 मंत्री बना दिए हैं लेकिन पार्टी ने बहुत ही करीने से अपने नए कैडर को मप्र की राजनीति में मुख्य धारा में खड़ा कर दिया है। मसलन कमल पटेल, मोहन यादव, इंदर सिहं परमार, अरविंद भदौरिया (सभी विद्यार्थी परिषद) को मंत्री बनाकर खांटी संघ कैडर को आगे बढ़ने का अवसर दिया है। उषा ठाकुर, भूपेंद्र सिंह, भारत सिह कुशवाहा, प्रेम पटेल, कावरे, मीना सिंह जैसे जन्मजात भाजपाईयों को जिस तरह मंत्री बनाया गया है उसे आप पार्टी का सोशल इंजीनियरिंग बेस्ड पीढ़ीगत बदलाव भी कह सकते हैं। जाहिर है जो मीडिया विमर्श बीजेपी को ज्योतिरादित्य सिंधिया के आगे सरेंडर दिखाता है उसके उलट मप्र में नए नेतृत्व की स्थापना को भी देखने की जरूरत है। मप्र में पार्टी के मुखिया के रूप में बीड़ी शर्मा की ताजपोशी की क्या किसी ने कल्पना की थी। बीड़ी शर्मा असल में मप्र की भविष्य की राजनीति का चेहरा भी हैं वे पीढ़ीगत बदलाव के प्रतीक भी हैं। यानी मप्र में दलबदल के बावजूद वैचारिक अधिष्ठान से निकला कैडर मुख्यधारा में सदैव बना रहा है।
राजमाता सिंधिया को बीजेपी ने सदैव राजमाता बनाकर रखा, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की बारी है कि वे अगर अपनी दादी के सियासी अक्स को अपने जीवन में 25 फीसदी भी उतार सकें तो वह भी महाराजा की तरह प्रतिष्ठित पायेंगे। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने तो उनको राजमाता की तरह ही अवसर उपलब्ध करा दिया है। वैसे बीजेपी में बाहर से आये नेताओं को उनकी निष्ठा के अनुसार सदैव प्रतिष्ठा मिली है। मप्र की सियासत के ताकतवर चेहरे डॉ. नरोत्तम मिश्रा का परिवार कभी कांग्रेस में हुआ करता था उनके ताऊ प. महेश दत्त मिश्र कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे हैं लेकिन नरोत्तम मिश्रा को बीजेपी ने इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद आगे बढ़ाया।
हरियाणा में दूसरी बार बनी बीजेपी की खट्टर सरकार में आधे से ज्यादा मंत्री विधायक मूल बीजेपी के नहीं हैं। यहीं से निकली सुषमा स्वराज लोकसभा में पार्टी की नेता और देश की सबसे लोकप्रिय बीजेपी वक्ताओं में शामिल रहीं।
उत्तराखंड में बीजेपी सरकार के आधे मंत्री कांग्रेस से आए। जिस पूर्वोत्तर में कभी बीजेपी का विधायक जीतना बड़ा प्रतीत होता था वहां आज कमल और भगवा की बयार है।
आसाम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल मूलतः बीजेपी के नहीं हैं इसी आसाम से निकलकर पूरे नॉर्थ ईस्ट में वामपंथ और कांग्रेस का सफाया कराने वाले हिमंता विश्व सरमा जिंदगी भर कांग्रेसी रहे हैं लेकिन पिछले 7 साल से वे बीजेपी के लिए नॉर्थ ईस्ट में मजबूत बुनियाद बनकर उभरे हैं। त्रिपुरा में भी बीजेपी सरकार की नींव में तमाम कम्युनिस्ट शामिल हैं। बैटल फाइट ऑफ सरई घाट केवल बीजेपी कैडर के दम पर नहीं जीता गया है त्रिपुरा में। बंगाल, बिहार, कर्नाटक, तेलंगाना, यूपी सभी राज्यों में अगर बीजेपी ने चमत्कारिक विस्तार हासिल किया है तो इसके मूल में बाहर यानी अन्य राजनीतिक दलों से आये लोगों का योगदान अहम है। सिकन्दर बख्त, आरिफ बेग, हुकुमदेव नारायण यादव, नजमा हेपतुल्ला, रामानन्द सिह, चन्द्रमणि त्रिपाठी से लेकर तमाम फेहरिस्त है जो बाहर से आये और बीजेपी में रच बस गए।
सवाल यह है कि जब बीजेपी का राजनीतिक दर्शन "पार्टी को सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी "बनाने का है तब मप्र में सिंधिया प्रहसन पर सवाल क्यों उठाये जा रहे हैं? क्या यह तथ्य नहीं है कि सिंधिया के कारण ही मप्र जैसे बड़े राज्य में पार्टी को फिर से सत्ता हांसिल हुई। क्या सवाल उठाने वाले चेहरों ने सत्ता बनी रहे इसके लिए अपने खुद के योगदान का मूल्यांकन ईमानदारी से किया है? क्या इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि सिंधिया प्रहसन पर आपत्ति केवल उन लोगों को है जीवन भर बीजेपी में रहकर दल से बड़ा देश अपने मन मस्तिष्क में उतार ही नहीं पाए।
तथ्य यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में आने से मप्र में कांग्रेस नेतृत्व विहीन होकर रह गई है। आज कमलनाथ और दिग्विजय सिंह 70 पार वाले नेता हैं और दोनों के पुत्रों को मप्र की सियासत में स्थापित होने में लंबा वक्त लगेगा। सिंधिया का आकर्षक व्यक्तित्व और ऊर्जा बीजेपी के लिए मप्र भर में अपनी जमीन को फौलादी बनाने में सहायक हो सकती है। सिंधिया के लिए भी बीजेपी एक ऐसा मंच और अवसर है जिसके साथ सामंजस्य बनाकर वह जीवन की हर सियासी महत्वाकांक्षा को साकार कर सकते हैं क्योंकि यहां एक व्यवस्थित संगठन है, अनुशासन है और एक सशक्त आनुषंगिक नेटवर्क है। कांग्रेस में यह सब नहीं था केवल चुनाव लड़ने वालों की फौज भर थी।
बीजेपी के लिए सिंधिया का महत्व भी कम नहीं है उनके प्रभाव का राजनीतिक फायदा स्वयंसिद्ध है। इससे पहले भी राजेन्द्र शुक्ला, रीवा, गोपाल भार्गव, सागर जैसे लोग बीजेपी में बाहर से आकर आज पार्टी के नीति-निर्माताओं में शुमार हैं। बघेलखण्ड में राजेंद्र शुक्ला को अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी जैसे नेताओं की टक्कर में खड़ा किया जाना कम बड़ी बात नहीं है। शहडोल, अनूपपुर, उमरिया, धार, झाबुआ, बड़वानी, आलीराजपुर जैसे इलाकों में तो मूल पिंड के बीजेपी नेता आरम्भिक दौर में बहुत ही कम थे। आज इन सभी क्षेत्रों में बीजेपी का मजबूत जनाधार है।
असल में आज बुनियादी आवश्यकता इस बात की है कि बीजेपी संगठन की प्रभावोत्पादकता सत्ता साकेत में कमजोर न हो। संगठन और विचार का महत्व बनाए रखने की जवाबदेही मूल पिंड से उपजे नेताओं की ही होती है। बशर्ते वे खुद सिर्फ सत्ता के लिए सियासी चोला न पहनें हुए हों। बीजेपी के वैचारिक अधिष्ठान में प्रचारक की तरह आचरण अपेक्षित है। जो नेता इस अधिष्ठान को समझते हैं उनका उत्कर्ष यहां बगैर वकालत के निरन्तर होता रहा है। इसलिए सिंधिया हो या पायलट, सामयिक रूप से जो सियासी उत्कर्ष में सहायक हो उन्हें लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिये। अगर ऐसे नेताओं के अंदर समन्वय और वैचारिक अवलंबन का माद्दा होगा तो वह मूल विचार के लिए उपयोगी ही होंगे। अंततः समाज के बेहतर और प्रभावशाली लोगों को अपने साथ जोड़कर चलना ही तो संघ विचार का मूल उद्देश्य है।
-डॉ. अजय खेमरिया