कृषि कानून की आड़ में अपना एजेंडा चला रहे हैं कुछ पत्रकार व पंचायतें

By राकेश सैन | Feb 03, 2021

26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर कथित किसान आंदोलन के हिंसक होने के बाद ट्रैक्टर पलटने से एक किसान की मौत हो गई। मीडिया से जुड़े कुछ लोगों ने ट्वीटर पर अफवाह फैलाई कि पुलिस की गोली से किसान मारा गया। यूं तो देश के मीडिया कर्मियों के लिए इस तरह की चूक कोई नई बात नहीं और न ही बड़ा अपराध परंतु इसकी गंभीरता को समझा जाए तो इससे दिल्ली के साथ-साथ पूरे उत्तर भारत विशेषकर पंजाब में आग लगने का अंदेशा पैदा हो गया। सिंघू सीमा पर बैरिकेडिंग लांघते समय पुलिस ने एक वामपंथी वेबसाइट के एक पत्रकार को रोका तो उसने थाना प्रभारी के साथ दुर्व्यवहार किया। इसी तरह देश की पंचायतें भी सीमा से बाहर जाकर काम करती दिखाई देने लगी हैं। पंजाब में पंचायतें तालिबानी आदेश जारी कर रही हैं कि किसान आंदोलन में न जाने पर लोगों को ना केवल जुर्माना किया जाएगा बल्कि उसका बहिष्कार भी किया जाएगा। प्रश्न पैदा होता है कि क्या पत्रकार और पंचायतें अपने आपको कानून से बड़ा मानते हैं ?

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सिंघू सीमा पर थाना प्रभारी के साथ दुर्व्यवहार करने के बाद हिरासत में लिए गए वामपंथी वेबसाइट कारवां के पत्रकार मनदीप पूनिया की रिहाई की माँग को लेकर 'पत्रकारों ने दिल्ली में प्रदर्शन किया। वह किसान आंदोलन के दौरान बैरिकेड हटाने की कोशिश कर रहा था, जिसके कारण उसे हिरासत में लिया गया। पूनिया प्रदर्शनकारियों के साथ खड़ा था और उसके पास प्रेस पहचानपत्र भी नहीं था। न्यायालय ने उसे न्यायिक हिरासत में भेज दिया है। उत्तर प्रदेश पुलिस ने पिछले सप्ताह इंडिया टुडे के पत्रकार राजदीप सरदेसाई, नेशनल हेराल्ड की वरिष्ठ सलाहकार संपादक मृणाल पांडे, कौमी आवाज के संपादक जफर आगा, वामपंथी रुझान वाली 'द कारवां' पत्रिका के संपादक और संस्थापक परेश नाथ, संपादक अनंत नाथ और कार्यकारी संपादक विनोद के. जोस के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया है। आरोप है कि इन लोगों ने जानबूझ कर गुमराह करने वाली और उकसाने वाली गलत खबरें प्रसारित कीं और अपने ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया। सुनियोजित साजिश के तहत गलत जानकारी प्रसारित की गई कि आंदोलनकारी को पुलिस ने गोली मार दी।


इनके बचाव में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने अपने बयान में कहा, जब कोई स्टोरी घटित हो रही होती है तो चीजें अक्सर बदलती रहती हैं। उसी तरह जो स्थिति है, वही रिपोर्टिंग में दिखती है, जब इतनी भीड़ शामिल हो और माहौल में अनुमान, शक और अटकलें हों तो कई बार पहली और बाद की रिपोर्ट में अंतर हो सकता है। इसे मोटिवेटिड रिपोर्टिंग बताना आपराधिक है जैसा कि किया जा रहा है। बाकी कई मीडिया संगठनों व पत्रकारों ने भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। यह बातें ठीक भी हैं परंतु सामान्य परिस्थितियों में, जब चारों ओर हिंसा का वातावरण हो और दंगाई मरने मारने पर उतारू हों तों ऐसे हालात में हुई या जानबूझ कर की गई गलती को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता। सामान्य घटना व दंगों की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को इनमें कुछ तो अंतर करना होता है। वे नहीं जानते कि विशेष परिस्थितियों में हुई छोटी-सी चूक आग में पेट्रोल का काम कर सकती है। ट्रैक्टर पलटने से हुई मौत को पुलिस की गोली से हुई मौत बताने वाले भूल गए कि उनकी यह चूक या शरारत दिल्ली के साथ-साथ हरियाणा, उत्तर प्रदेश व पंजाब को हिंसा में झुलसा सकती थी। इन सिख बाहुल्य इलाकों में दंगे फैल जाते तो किसकी जिम्मेवारी होती ? उस दिन पूरे विश्व का मीडिया गणतंत्र दिवस के बहाने दिल्ली में सक्रिय था और इन लोगों की शरारत पूरी दुनिया में भारत की छवि को अघात पहुंचा सकती थी। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उक्त सभी आरोपी पत्रकार एक खास विचारधारा से संबंधित हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ विद्वेष के विष से लबरेज माने जाते हैं। जब कानून के अनुसार इनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाने लगी है।

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यहां यह भी वर्णनीय है कि विशेष राजनीतिक व आर्थिक एजेंडा लिए उक्त तरह के पत्रकार दुनिया में भारत की छवि दागदार करने की कोई कसर नहीं छोड़ते। इतने षड्यंत्र करने, अपने विरोधियों के साथ गाली गलौज करने तक की सीमा तक जाने के बावजूद दलील दी जाती है कि भारत में प्रेस की आजादी को सीमित किया जा रहा है। पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय स्वतंत्र संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने इन्हीं तरह के लोगों की हरकतों के कारण 2020 में भारत को 180 देशों में 142वें नंबर पर रखा। देश को नीचा दिखाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं बार-बार इस तरह के प्रयास करती हैं और उक्त लोग इन पक्षपाती संस्थाओं को सामग्री उपलब्ध करवाते हैं, लेकिन इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के संविधान से ऊंचा कुछ भी नहीं है।


खुद को कानून से ऊंचा मानने वालों में केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि पंचायतें भी शामिल हो गई हैं। बठिंडा, मानसा, मोगा सहित अनेक जिलों में पंचायतों ने तालिबानी फरमान जारी किए हैं कि गांव में जो कोई किसान आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा उनको जुर्माना किया जाएगा और उन परिवारों का बहिष्कार किया जाएगा। पंचायती राज व्यवस्था व पंचायत अधिनियम के तहत ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिस पर चलते हुए कोई पंचायत इस तरह का काम कर सके। दूसरी तरफ सामाजिक बहिष्कार करने या इसका आह्वान भी अपराध की श्रेणी में आता है। जुर्माने की बजाय पंचायतों को सोचना चाहिए कि गांवों में जो लोग पहले अपनी मर्जी से किसान आंदोलन की सहायता करते थे अब एकाएक परिस्थितियां कैसे बदल गईं कि उन्हें धमकाना पड़ रहा है। पंचायतें संवैधानिक संस्थाएं हैं और इनके कार्यों की वैधता संविधान की सीमा के भीतर रहने से ही है।


-राकेश सैन

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