सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए श्रावण मास से शुरू कीजिये सोलह सोमवार व्रत

By शुभा दुबे | Jul 24, 2021

भगवान शिव की विशेष कृपा की प्राप्ति और जीवन में सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए सोलह सोमवार का व्रत किया जाता है। यदि आप भी सोलह सोमवार के व्रत करना चाह रहे हैं तो इसे श्रावण मास से शुरू करना सबसे ज्यादा श्रेयस्कर रहेगा। सोलह सोमवार व्रत करते समय भगवान शिव और मातेश्वरी पार्वतीजी की विशेष रूप से पूजा−आराधना की जाती है। सभी सोमवारों को एक ही शिवलिंग की पूजा की जाती है। यही कारण है कि इस व्रत को करते समय आप घर पर ही शिवलिंग अथवा शिवजी की मूर्ति रखकर पूजा करें जिससे कहीं बाहर जाते समय आप उसे अपने साथ ले जा सकें।


क्यों किया जाता है सोलह सोमवार का व्रत


इच्छानुकूल जीवन साथी और सुयोग्य संतान की प्राप्ति के लिए तो यह व्रत किया ही जाता है, साथ ही यह व्रत सभी प्रकार के कष्टों से छुटकारा दिलाकर सभी प्रकार के सुख और अंत में मोक्ष तक दिलाने में पूर्ण समर्थ है। अधिकांश व्यक्ति तो सोलह सोमवारों तक लगातार यह व्रत करने के बाद उद्यापन कर लेते हैं और इतने से ही उनकी अभिलाषा की पूर्ति भी हो जाती है। जहां तक जीवन में सभी सुखों और अंत में मोक्ष प्राप्ति का प्रश्न है तो नौ अथवा चौदह वर्ष तक यह व्रत लगातार किया जाना चाहिये।

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शिव पूजन के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें


शिवजी की पूजा में गंगाजल, बिल्वपत्र, आक और धतूरे के फूलों, भस्म, सफेद चंदन आदि का विशेष महत्व है और तुलसी का निषेध है इसलिए तुलसी का प्रयोग न करें। शिव चालीसा का पाठ और रुद्राक्ष की माला धारण करना इस व्रत के पुण्यफलों में अत्यन्त वृद्धि कर देता है। वैसे सच्चे हृदय से एक लोटा जल चढ़ाने वाले भक्त की भी सभी मनोकामनाओं की भगवान भोलेशंकर पूर्ति करते हैं।


सोलह सोमवार व्रत कथा


मृत्यु लोक में विवाह करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे वहां वे भ्रमण करते−करते विदर्भ देशातंर्गत अमरावती नाम की अतीव रमणीक नगरी में पहुंचे। अमरावती नगरी अमरपुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मंदिर बना था। उसमें भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे। एक समय माता पार्वती प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोलीं− हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलें। शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे। उसी समय इस स्थान पर मंदिर का पुजारी ब्राह्मण मंदिर में पूजा करने को आया। माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ कि इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी। ब्राह्मण बिना विचारे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होगी। थोड़ी देर बाद में बाजी समाप्त हो गई और पार्वतीजी की विजय हुई। अब तो पार्वतीजी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को खड़ी हुईं। तब महादेवजी ने पार्वतीजी को बहुत समझाया परंतु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। कुछ समय बाद पार्वतीजी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया। इस प्रकार पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा। इस तरह के कष्ट भोगते हुये जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सरायें शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में पधारीं और पुजारी के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूछने लगीं, पुजारी ने निसंकोच सब बातें उनसे कह दीं। वे अप्सरायें बोलीं− हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना। भगवान शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे। तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्तिभाव से करो। तब पुजारी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा। अप्सरायें बोलीं कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करें। स्वच्छ वस्त्र पहनें आधा सेर गेहूं का आटा लें। उसके तीन अंगा बनायें और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ का जोड़ा, चंदन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान शंकर का विधि से पूजन करें तत्पश्चात अंगाओं में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी का प्रसाद समझकर उपस्थित जनों में बांट दें और आप भी प्रसाद पायें। इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करें। तत्पश्चात सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनायें। तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनायें और शिवजी को भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुम्ब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग चली गईं।


ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया और भगवान शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनंद से रहने लगा। कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वतीजी उस मंदिर में पधारे, तब ब्राह्मण को निरोगी देखकर पार्वतीजी ने ब्राह्मण से रोग मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत कथा कह सुनाई। तब तो पार्वतीजी ने अति प्रसन्न होकर ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछकर व्रत करने को तैयार हुईं। व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुये, परन्तु कार्तिकेय जी को अपने विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले− हे माताजी! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ। तब पार्वतीजी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई। स्वामी कार्तिकेय बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा क्योंकि मेरा प्रिय मित्र ब्राह्मण दुखी दिल से परदेस गया है। हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है। कार्तिकेय जी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया। मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेय जी से पूछा तो वे बोले− हे मित्र! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था। अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई। कार्तिकेय जी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया। व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रृंगारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ प्यारी पुत्री का विवाह कर दूंगा। शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया। नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी। राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया और ब्राह्मण को बहुत-सा धन और सम्मान देकर संतुष्ट किया। ब्राह्मण सुंदर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा।

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कौन हैं भगवान शिव


भगवान शिव और उनका नाम समस्त मंगलों का मूल है। वे कल्याण की जन्मभूमि तथा परम कल्याणमय हैं। समस्त विद्याओं के मूल स्थान भी भगवान शिव ही हैं। ज्ञान, बल, इच्छा और क्रिया शक्ति में भगवान शिव के जैसा कोई नहीं है। वे सभी के मूल कारण, रक्षक, पालक तथा नियन्ता होने के कारण महेश्वर कहे जाते हैं। उनका आदि और अंत न होने से वे अनंत हैं। वे सभी पवित्रकारी पदार्थों को भी पवित्र करने वाले हैं। वे शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों के सम्पूर्ण दोषों को क्षमा कर देते हैं तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ज्ञान, विज्ञान के साथ अपने आपको भी दे देते हैं। सभी पुराणों में भगवान शिव के दिव्य और रमणीय चरित्रों का चित्रण किया गया है। संपूर्ण विश्व में शिव मंदिर, ज्योतिर्लिंग, स्वयम्भूलिंग से लेकर छोटे−छोटे चबूतरों पर शिवलिंग स्थापित करके भगवान शंकर की सर्वाधिक पूजा की जाती है।


भगवान शिव शंकर का परिवार भी बहुत व्यापक है। एकादश रुद्र, रुद्राणियां, चौंसठ योगिनियां, षोडश मातृकाएं, भैरवादि इनके सहचर तथा सहचरी हैं। माता पार्वती की सखियों में विजया आदि प्रसिद्ध हैं। गणपति परिवार में उनकी पत्नी सिद्धि−बुद्धि तथा शुभ और लाभ दो पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। कार्तिकेय की पत्नी देवसना तथा वाहन मयूर है। भगवती पार्वती का वाहन सिंह है और स्वयं भगवान शंकर धर्मावतार नन्दी पर आरुढ़ होते हैं। स्कन्दपुराण के अनुसार यह प्रसिद्ध है कि एक बार भगवान धर्म की इच्छा हुई कि मैं देवाधिदेव भगवान शंकर का वाहन बनूं। इसके लिए उन्होंने दीर्घकाल तक तपस्या की। अंत में भगवान शंकर ने उन पर अनुग्रह किया और उन्हें अपने वाहन के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार भगवान धम्र ही नन्दी वृषभ के रूप में सदा के लिए भगवान शिव के वाहन बन गए।


बाण, रावण, चण्डी, भृंगी आदि शिव के मुख्य पार्षद हैं। इनके द्वार रक्षक के रूप में कीर्तिमुख प्रसिद्ध हैं, इनकी पूजा के बाद ही शिव मंदिर में प्रवेश करके शिवपूजा का विधान है। इससे भगवान शंकर परम प्रसन्न होते हैं। यद्यपि भगवान शंकर सर्वत्र व्याप्त हैं तथापि काशी और कैलास इनके मुख्य स्थान हैं। भक्तों के हृदय में तो ये सर्वदा निवास करते हैं। इनके मुख्य आयुध त्रिशूल, टंक, कृपाण, वज्र, अग्नियुक्त कपाल, सर्प, घण्टा, अंकुश, पाश तथा पिनाक धनुष हैं।


भगवान शंकर ज्ञान, वैराग्य तथा साधुता के परम आदर्श हैं। वह भयंकर रुद्ररूप हैं तो भोलनाथ भी हैं। दुष्ट दैत्यों के संहार में कालरूप हैं तो दीन दुखियों की सहायता करने में दयालुता के समुद्र हैं। जिसने आपको प्रसन्न कर लिया उसको मनमाना वरदान मिला। आपकी दया का कोई पार नहीं है। आपका त्याग अनुपम है। अन्य सभी देवता समुद्र मंथन से निकले हुए लक्ष्मी, कामधेनु, कल्पवृक्ष और अमृत ले गये, आप अपने भाग का हलाहल पान करके संसार की रक्षा के लिए नीलकण्ठ बन गए। भगवान शंकर एक पत्नी व्रत के अनुपम आदर्श हैं। भगवान शंकर ही संगीत और नृत्य कला के आदि आचार्य हैं। ताण्डव नृत्य करते समय इनके डमरू से सात स्वरों का प्रादुर्भाव हुआ। इनका ताण्डव ही नृत्य कला का प्रारम्भ है।


लिंग रूप से उनकी उपासना का तात्पर्य यह है कि शिव, पुरुष लिंग रूप से इस प्रकृति रूपी संसार में स्थित हैं। यही सृष्टि की उत्पत्ति का मूल रूप है। त्रयम्बकं यजामहे शिव उपासना का वेद मंत्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे पहले शिव मंदिरों का ही उल्लेख है। जब भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई की तो सबसे पहले रामेश्वरम में उन्होंने भगवान शिव की स्थापना और पूजा की थी।


-शुभा दुबे

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