समाज विज्ञानियों को ढूंढना होगा मनोविकारों का हल

By डॉ राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Oct 10, 2019

वर्ल्ड हेल्थ ओरगनाइजेशन की 2018 की रिपोर्ट ना केवल चेताने वाली है अपितु गंभीर चिंता का कारण भी है। रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में कुल आबादी की करीब साढ़े छह फीसदी आबादी किसी ना किसी रुप में गंभीर मानसिक रोग से पीडि़त है। इससे पहले 2017 की रिपोर्ट में यह साफ हो चुका है कि पिछले आठ सालों में देश में डिप्रेशन के शिकार लोगों की संख्या में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है। यह भी गंभीर तथ्य है कि डिप्रेशन या यों कहें कि अवसाद के 18 प्रतिशत रोगी भारत में निवास करते हैं। मजे की बात यह है कि अध्यात्म और योग के देश में डिप्रेशन कें गिरफ्त में इतनी अधिक संख्या में होना और डिप्रेशन की बढ़ती दर आखिर हमारे जीवन शैली और सामाजिक ताने−बाने के नकारात्मक दिशा में बढ़ने की और साफ−साफ इशारा है। डिप्रेशन के शिकार आज युवा ही नहीं बालक−वृद्ध सभी होने लगे हैं। केरियर की चिंता और पेरेंटस की प्रतिस्पधा के शिकार बालक डिप्रेशन का शिकार होते जा रहे हैं। यही कारण है कि बालकों तक की आत्म हत्याओं का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। कोचिंग संस्थानों में कोचिंग लेते बच्चों के आत्महत्या करने की घटनाएं आए दिन होने लगी है। समाज में गुस्सा अब आम होता जा रहा है। सहनशक्ति जबाव देने लगी है। रोड रेज की घटनाएं आम होती जा रही है तो जरा सी कहासुनी में जान तक लेलेना सामान्य बात होती जा रही है। आखिर यह सब हमारी जीवन शैली व सामाजिक व्यवस्था के बिखराब का ही संकेत है। हांलाकि यह साफ हो जाना है कि डिप्रेशन या मानसिक विकारों का कारण और समाधान हमारी सामाजिक व्यवस्था और जीवन शैली से ही निकाला जा सकेगा। 

 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2020 आते आते डिप्रेशन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बीमारी हो जाएगी। हांलाकि पहली बड़ी बीमारी हार्ट की बीमारी का एक कारण डिप्रेशन भी है। बदलती जीवन शैली और भागम भाग की जिंदगी में आज का युवा डिप्रेशन का शिकार होता जा रहा है। युवाओं में मनोरोग तेजी से पांव पसार रहा है। देश दुनिया में मनोरोगियों की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। डिप्रेशन के कारण कुंठा, अवसाद, चिडचिड़ापन यहां तक की आत्म हत्याओं का ग्राफ भी दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। और अधिक कमाने, और अधिक सहेजने की होड़ में युवा खोता जा रहा है। संयुक्त परिवार का विघटन, नौकरी में लक्ष्य प्राप्ति के लिए अत्यधिक दबाव, अनावश्यक प्रतिस्पर्धा, दूसरे के सुख से दुबले होना आदि ऐसी प्रवृतियां विकसित होती जा रही है जिससे व्यक्ति कुंठाग्रस्त होकर डिप्रेशन का शिकार होता जा रहा है। 

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एक रिपोर्ट के अनुसार कार्य क्षेत्र पर अत्यधिक दबाव और टारगेट आधारित वेतन भत्तों के चलते कारपोरेट क्षेत्र के करीब 42 फीसदी युवा तेजी से डिप्रेशन का शिकार होते जा रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी खेलने−कूदने के दिनों में जिस तरह से डिप्रेशन का शिकार हो रही है वह किसी भी देश की भावी पीढ़ी के लिए उचित नहीं माना जा सकता है। सबसे मजे की बात यह है कि ग्लेमर या मोज मस्ती की मानी जानी वाली नोकरियों में ही सर्वाधिक डिप्रेशन का शिकार होना पड़ रहा है। आज सबसे ज्यादा डिप्रेशन का शिकार मीडिया खासतौर से इलेक्ट्रेनिक मीडिया से जुड़े युवा, दूरसंचार, आईटी, केपीओ, बीपीओं और मार्केटिंग से जुड़े क्षेत्र के युवा हो रहे हैं। यह सब तो तब है जब आज की युवा पीढ़ी स्वास्थ्य और खान−पान के प्रति अधिक सजग होने लगी है। जिम जाना या भोजन में कोलेस्ट्र्ेल, प्रोटिन, कार्बोहाईड्रेट या अन्य तत्वों की अधिक जानकारी रखते हुए पर बाहरी खासतौर से फास्टफूड स्वास्थ्य का बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।

 

डिप्रेशन के फैलाव का एक दूसरा पक्ष भी अब तेजी से सामने आने लगा है और वह है बुजुर्गों का डिप्रेशन का शिकार होना। दरअसल हमारी परंपरा के अनुसार उम्र के जिस पड़ाव में बुजुर्ग बच्चों, पोते−पोतियों, नाते−नातियों का सानिध्य पाने की ललक रखते हैं उस उम्र में उन्हें एकाकीपन से जूझना पड़ता है। इससे बुजुर्गों में नैराश्य बढ़ने लगा है और यही नैराश्य और एकाकीपन बुजुर्गों को भी डिप्रेशन यानी की अवसाद का शिकार बना रहा है। एक और परिवार छोटा होता जा रहा है। संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिवार लेने लगा है तो नौकरी के कारण बच्चों को मां−बाप से दूर रहना पड़ता है। भागमभाग में एक स्थिति ऐसी आने लगती है जब व्यक्ति अपनों का सानिध्य नहीं मिलने से डिप्रेशन का शिकार होने लगता है। शहरीकरण के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। एक ही कॉम्पलेक्स में अनेक परिवारों के रहने और आपसी बात तो दूर जान−पहचान तक नहीं होना एकाकीपन को बढ़ाने में ही सहायक होता जा रहा है। रही सही कसर टीवी चैनलों ने पूरी कर दी और मजबूरन लोगों को टीवी के सामने बैठना मजबूरी होने लगी है। पार्कों को अलग कर दिया जाए तो अब शहरों में चंद मिनटों के लिए एक साथ बैठने का मौहल्लों कोलोनियों में किसी को ना तो समय है और ना ही इच्छा शक्ति। 

 

गैलप की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार देशवासियों खासतौर से ग्रामीणों में निराशा की भावना अधिक बढ़ रही है। बदलते सामाजिक−आर्थिक ताने−बाने के कारण निराशा बढ़ना स्वभाविक भी लगती है। एक समय था तब हमारा आदर्श साधा जीवन−उच्च विचार होता था। जीवन की सीमित आवश्यकताओं के कारण जीवन जीने का अलग ही अंदाज होता था। आदमी दिखाने में कम विश्वास रखता था। दैनिक आवश्यकताएं एक सीमा तक होती थी। दिखावे को सराहा नहीं जाता था बल्कि व्यंग के रुप में देखा जाता था। सादगी की पहचान होती थी। व्यक्ति की पहचान उसके विचारों के आधार पर होती थी। आज स्थित इिसके उलट हो गई है।

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अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ने के साथ ही अमीर व अमीर के बीच ही दिखावे की अंतहीन प्रतिस्पर्धा होने लगी है। तेरी कमीज मेरी कमीज से अधिक उजली कैसे ? इसी में मरे जा रहे हैं हम आज। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने विज्ञापनों के माध्यम से जो सब्जबाग दिखाया है उसके कारण लोगों में जीवन जीने को लेकर असंतोष अधिक बढ़ा है। 

 

डिप्रेशन के फैलाव को इसी से समझा जा सकता है कि दुनिया के देशों में वर्ल्ड मेंटल हेल्थ डे आयोजित कर दुनिया के लोगों को इसकी गंभीरता के प्रति सजग करने की आवश्यकता हो गई है। मानसिक विकार के रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका मानसिक विकार का हल हमें बहुत कुछ मेडिकल साइंस में ढूंढने की जगह हमारी सामाजिक व्यवस्था और जीवन शैली में खोजना होगा। इसके लिए समाज विज्ञानियों को आगे आना होगा तभी जाकर कोई समाधान निकल पाएगा।

 

डॉ राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

 

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