बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव

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By कमलेश पांडे | Mar 29, 2025

बिहार की राजनीति में छोटी छोटी पार्टियां ला सकती हैं बड़ा बदलाव

भारतीय राजनीति में बिहार को सियासी प्रयोगशाला समझा जाता है। यहां पर कई ऐसे दिग्गज राजनेता हुए, जिसे चुनावी मौसम विज्ञानी तक करार दिया गया। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. रामविलास पासवान और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम अग्रगण्य है। चूंकि बिहार विधानसभा 2025 के लिए अक्टूबर-नवम्बर में चुनावी होने हैं, इसलिए यह महत्वपूर्ण चुनावी साल भी है, जिसके दृष्टिगत सभी राजनीतिक दल अपने अपने समीकरण बनाने में जुट गए हैं।


यूँ तो राज्य में कुल 243 सीटें हैं और दो बड़े गठबंधन हैं। जिनमें भाजपा और जेडीयू आदि की भागीदारी वाला एनडीए अभी सत्ता में है और कांग्रेस व आरजेडी आदि की भागीदारी वाला महागठबंधन विपक्ष में है। वहीं, दोनों ही गठबंधन में कुल 10 महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टियां हैं, जो जाति-धर्म-क्षेत्र के आधार पर या फिर कहें कि खुद को सत्ता में बनाए रखने की संभावनाओं के आधार पर भारी उलटफेर करती रहती हैं, जिससे भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों का सियासी कद भी उनके सहयोगियों की जिद्द के समक्ष बौना नजर आता है। यहां की राजनीति में जदयू सुप्रीमो व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गठबंधन में उलटफेर का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि बिहार के कई सारे सियासी रिकॉर्ड को उन्हें ध्वस्त कर अपने नाम कर लिया है।

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वहीं, नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री व राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की सियासी हनक से प्रेरणा लेते हुए कई ऐसे राजनीतिक दल अस्तित्व में आए हैं, जो अपने अपने इलाकों में अच्छे-खासे सक्रिय नजर आ रहे हैं और किसी भी प्रतिद्वंद्वी के सियासी भविष्य को मटियामेट करने लायक व्यापक प्रभाव रखते हैं। इनमें नवस्थापित जनसुराज पार्टी के सर्वेसर्वा प्रशांत किशोर के अलावा पुष्पम प्रिया, असदुद्दीन ओवैसी और आरसीपी सिंह आदि की पार्टी प्रमुख है, क्योंकि ये नेता ना तो लालू यादव-कांग्रेस के खेमे से जुड़े हैं और ना ही नीतीश कुमार-बीजेपी के खेमे में हैं। 


इसलिए यह समझा जा सकता है कि 2025 के विधानसभा चुनाव में इन नेताओं की पार्टियां किसी तीसरे मोर्चे के रूप में उभर रही हैं, जो पारंपरिक गठबंधनों से अपनी अलग और अलहदा पहचान बनाने की कोशिश में जुटी हुई हैं। कहने का तातपर्य यह कि ये दल स्वतंत्र रूप से अपनी अपनी राजनीतिक गतिविधियों में लगे हुए हैं, जो यदि बिहार विधानसभा की 10-20 प्रतिशत सीटें भी जीतने में कामयाब हो गए तो नीतीश कुमार और लालू प्रसाद का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने में सफल होंगे।


भारतीय इतिहास में चंपारण आंदोलन के बाद महात्मा गांधी जिस तरह से पूरे देश में चमके और सम्पूर्ण क्रांति के बाद जयप्रकाश नारायण जिस तरह से समूचे राष्ट्र में लोकप्रिय हुए, उससे यहां की सियासी हवा को समझा जा सकता है। वैसे भी हिंदी पट्टी की राजनीति गैर कांग्रेस और गैर भाजपा राजनीति के लिए मुफीद समझी जाती है, जबकि लंबे समय तक कांग्रेस ने और फिर भाजपा ने इसे मनमाफिक हांका है। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इसी सियासी दांवपेंच की सफल पैदाइश समझे जाते हैं। हालांकि, बिहार की नई पीढ़ी अब इस तरह की घाती-प्रतिघाती राजनीति से ऊब चुकी है। इसलिए साल 2025 में वहां कुछ नया करिश्मा हो जाए तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। 


आप मानें या न मानें, लेकिन बिहार की राजनीति को पड़ोसी प्रान्त उत्तरप्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल और पड़ोसी देश नेपाल व बंगलादेश की राजनीति भी प्रभावित करती है। पाकिस्तान और अरब देशों की सियासत का प्रभाव भी बैक डोर से यहां की राजनीति पर पड़ती है, इसलिए यहां की राजनीति को एकतरफा रूप से प्रभावित करने में कभी लालू प्रसाद सफल हुए तो कभी नीतीश कुमार। अब आगे की लड़ाई उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी (भाजपा), पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (राजद), चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (जनसुराज पार्टी) और युवा तुर्क नेता कन्हैया कुमार (कांग्रेस) के बीच यदि सिमट जाए तो किसी के लिए हैरत की बात नहीं होगी। वैसे भी सम्राट चौधरी का सियासी ग्राफ सबसे ऊपर चल रहा है, क्योंकि आरएसएस और भाजपा, दोनों को उनमें अपना सियासी भविष्य दिख रहा है। नीतीश कुमार के स्वाभाविक विकल्प के तौर पर वो उभरे हैं।


आपकी सियासी याद तरोताजा कर दें कि बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में 212 पार्टियों ने हिस्सा लिया था, जबकि 2024 के लोकसभा चुनाव में 96 पार्टियां मैदान में उतरी थीं। यह बात अलग है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में दर्जनों पार्टियां ऐसी थीं, जिन्होंने सिर्फ एक-एक सीट पर ही अपने उम्मीदवार उतारे थे। वहीं, कई पार्टियों ने 2, 3, 4, 5, 6 उम्मीदवारों को टिकट दिए थे। इससे राजद को परोक्ष लाभ मिला था, जिससे वह मजबूत तो हुई लेकिन सत्ता तक नहीं पहुंच पाई।


तब बिहार में एनडीए की सरकार बनी, ब्रेक के बाद अभी भी वहां पर एनडीए की ही सरकार है। क्योंकि 2020 के चुनाव में एनडीए ने 125 और महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थीं। लेकिन कुशल सियासी रणनीति वश वर्तमान में एनडीए के खेमे में 129 विधायक हैं, जिनमें बीजेपी के 80, जेडीयू के 45 और जीतनराम मांझी की हम (HAM) पार्टी के 4 विधायक हैं। वहीं, विपक्ष के पास 107 विधायक हैं, जिनमें आरजेडी के 77, कांग्रेस के 19 और सीपीआई (एमएल)/CPI (ML) के 11 विधायक हैं। यहां पर बहुमत के लिए 122 विधायक होना जरूरी है। ऐसे में 45 विधायकों वाले नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बनना अपने आप में एक सियासी करिश्मा नहीं तो क्या है?


बता दें कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), जनता दल (यूनाइटेड), हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) आदि के नाम प्रमुख हैं। वहीं, महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (राजद), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन का नाम प्रमुख है। इसी गठबंधन में मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी का नाम भी शामिल है। 


वहीं, कुछ ऐसी कद्दावर पार्टियां भी हैं जो देखने में भले ही किसी गठबंधन में नहीं हैं, लेकिन उनकी रिमोट कंट्रोल भी भाजपा या कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले किसी बड़े नेता या उनके मित्र उद्योगपति के पास है, जिनमें जनसुराज पार्टी (JSP), बहुजन समाज पार्टी (BSP), आम आदमी पार्टी (AAP), ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM), प्लूरल्स पार्टी (PP), आप सबकी आवाज, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) आदि का नाम प्रमुख है। ऐसे में समझा जा सकता है कि दोनों गठबंधनों का राजनीतिक भविष्य इन्हीं पार्टियों के कद्दावर उम्मीदवार तय करेंगे।


इसलिए सुलगता सवाल है कि तीसरे मोर्चे का आगामी चुनाव में क्या प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि देश में भले ही भाजपा की लहर चल रही है, लेकिन वक्फ बोर्ड संशोधन बिल, औरंगजेब और राणा सांगा प्रकरण आदि का मिलाजुला असर भी यहां देखने को मिल सकता है। इस लिहाज से जन सुराज पार्टी के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सबसे पहले जिस 'जन सुराज अभियान' की शुरुआत की  और पूरे राज्य में पदयात्रा की, फिर 2 अक्टूबर 2024 को राजनीतिक दल का ऐलान किया, उसका सकारात्मक असर लोगों के दिलोदिमाग पर पड़ा है। 


चूंकि जनसुराज पार्टी ने अपना चुनावी पदार्पण नवंबर 2024 में बिहार की चार विधानसभा सीटों इमामगंज, बेलागंज, रामगढ़, और तरारी के उपचुनावों में किया, जिनमें भले ही पार्टी के सभी चारों उम्मीदवार हार गए और उसके तीन उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गई, लेकिन तीन सीटों पर पार्टी तीसरे स्थान पर रही, जबकि रामगढ़ में चौथे स्थान पर रही। इससे इसकी सियासी पैठ बनाने की संभावना यहां बरकरार है। इन उपचुनावों में पार्टी को कुल मिलाकर लगभग 66,000 वोट मिले। पार्टी के प्रदर्शन पर प्रशांत किशोर ने ठीक ही कहा है कि हमारी नवगठित पार्टी ने चारों सीटों पर करीब 10% वोट हासिल किए। जबकि आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए उनके पास तैयारी के लिए पर्याप्त समय है। 


यही वजह है कि पिछले 6 महीने से जन सुराज पार्टी भी अपने संगठनात्मक ढांचे को निरंतर मजबूत करने में जुटी हुई है और बिहार में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश कर रही है। पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने बिहार के विभिन्न जिलों का दौरा किया है और संगठन को खड़ा करने के लिए ताकत झोंकी है। उन्हें भले ही सवर्ण नेता कहकर बदनाम किया जा रहा है, लेकिन बिहार की पिछड़ा बहुल राजनीति में, उनकी सियासी पार्टी के एक मजबूत राजनीतिक विकल्प के रूप में सामने आने की कोशिश से यह साफ है कि लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, स्व. रामविलास पासवान आदि की गलतियों से सबक लेकर वह मजबूती से उभरेंगे और सवर्णों के कद्दावर नेता बनेंगे अपने व्यक्तिगत अनुभव व नेटवर्क के बल पर। बिहार की सवर्ण विरोधी राजनीति की यही डिमांड भी है।


जहां तक एआईएमआईएम (AIMIM) की बात है तो साल 2020 के चुनाव में इसका प्रदर्शन सीमांचल में काफी मजबूत रहा, लेकिन विधायकों के राजद से दल-बदल के कारण पार्टी की विधानसभा में उपस्थिति कमजोर हो गई। बता दें कि बिहार में इस पार्टी को मुख्य रूप से मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन हासिल होता है, लेकिन सीमांचल से बाहर इसकी पकड़ बहुत कमजोर है। ऐसे में 2025 चुनावों में इस अल्पसंख्यक बहुल पार्टी की क्या रणनीति होगी, यह देखने योग्य होगा। इसके उम्मीदवार राजद, जदयू और कांग्रेस आदि के उम्मीदवार की राजनीतिक किस्मत बदलने का माद्दा रखेंगे। इससे भाजपा को परोक्ष लाभ मिलेगा। 


उल्लेखनीय है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने 20 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिसमें से 5 सीटों पर जीत मिली और 4 सीटों पर पार्टी के उम्मीदवार तीसरे नंबर पर आए। जिन सीटों पर जीत मिली, उनमें अमौर से अख्तरुल इमान, जोकीहाट से शाहनवाज आलम, बहादुरगंज से अनजार नईमी, कोचाधामन से मुश्ताक आलम और बैसी से अब्दुल सुब्हान का नाम शामिल हैं।

इस प्रकार 2020 में AIMIM  ने कुल 5,23,279 वोट हासिल किए थे। यानी 1.3 फीसदी वोट शेयर रहा। सभी सीटें सीमांचल क्षेत्र (कटिहार, किशनगंज, अररिया और पूर्णिया) में थीं, जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है। हालांकि, जून 2022 में ओवैसी की पार्टी को झटका लगा और चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए। अभी पूर्णिया जिले की आमौर सीट से अख्तरुल इमान ही पार्टी के एकमात्र विधायक बचे हैं, जो पार्टी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष हैं। इनकी मजबूती भाजपा को सियासी ऑक्सिजन देने के लिए जरूरी है।


जहां तक प्लूरल्स पार्टी की बात है तो इस पार्टी की स्थापना 2020 में पुष्पम प्रिया चौधरी ने की। बता दें कि पुष्पम प्रिया लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातकोत्तर हैं। उनकी पार्टी ने 2020 के विधानसभा चुनावों में हिस्सा लिया, जिसमें पुष्पम प्रिया स्वयं बांकीपुर सीट से उम्मीदवार थीं। हालांकि, उन्हें सियासी सफलता नहीं मिली। वहीं 2024 में पुष्पम प्रिया ने राज्य में सत्ता परिवर्तन के लिए मुहिम चलाई और बोधगया से 'महायान यात्रा' शुरू की। पुष्पम प्रिया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अच्छी खासी एक्टिव देखी जाती हैं जो उन्हें हवा हवाई नेता से ज्यादा कुछ नहीं बना सकता। इसलिए उन्हें हकीकत की सियासी जमीन पर उतरना होगा। 


गौरतलब है कि 2020 के चुनाव में पुष्पम प्रिया की पार्टी ने 102 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से सिर्फ तीन सीटों पर ही यह पार्टी तीसरे स्थान पर आई। वहीं, उनकी पार्टी को पूरे राज्य में मात्र 1,22,997 वोट मिले, यानी 0.3% वोट शेयर रहा। खुद बांकीपुर से पुष्पम प्रिया को 5,189 वोट मिले, जबकि बीजेपी के नितिन नबीन को 83,068 वोट मिले। दूसरे नंबर पर कांग्रेस के लव सिन्हा को 44,032 वोट मिले थे। वहीं, प्लूरस पार्टी को बेतिया सीट पर 1,559 और मुजफ्फरपुर सीट पर 3522 वोट मिले थे। इससे स्पष्ट है कि बिहार की राजनीति को प्रभावित करने के लिए उन्हें भी कुछ ठोस कदम उठाने होंगे।


जहां तक आप सबकी आवाज नामक पार्टी की बात है तो यह भी  बिहार की राजनीति में एक नवगठित पार्टी है, जिज़की स्थापना पूर्व केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह ने 31 अक्टूबर 2024 को की। इस समय बिहार की राजनीति में आरसीपी सिंह एक प्रमुख चेहरे माने जाते हैं, क्योंकि एक समय वे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी सहयोगी के तौर पर गिने जाते थे और जनता दल (यूनाइटेड) के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे हैं। इससे पहले वह मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव भी रह चुके हैं, क्योंकि एक मशहूर आईएएस अधिकारी थे। 


बता दें कि आरसीपी ओबीसी समुदाय की कुर्मी जाति से आते हैं, जिसको वहां की सियासत में काफी प्रभावशाली माना जाता है। आरसीपी को भी कुर्मी मतदाताओं के बीच समर्थन हासिल है। वे नालंद जिले से ही आते हैं। उनका जन्म वहां मुस्तफापुर गांव में हुआ। यह जिला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गृह क्षेत्र भी है। नालंदा में उनकी मजबूत पकड़ और प्रभाव माना जाता है। आरसीपी सिंह 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर जद(यू) में शामिल हुए। उन्होंने पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 2020 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। फिर आरसीपी सिंह केंद्रीय इस्पात मंत्री के रूप में भी कार्यरत रहे हैं।


हालांकि, 2022 में राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन्हें दोबारा पार्टी ने मौका नहीं दिया, जिससे उन्हें मंत्री पद छोड़ना पड़ा। वहीं, पार्टी से मतभेदों के चलते उन्होंने अगस्त 2022 में जद(यू) से इस्तीफा दे दिया था। उसके बाद मई 2023 में वे बीजेपी में शामिल हो गए। हालांकि, बाद में जब जेडीयू ने महागठबंधन छोड़ा और एनडीए में वापसी की तो आरसीपी की बीजेपी से दूरियां बढ़ने लगीं। यही वजह है कि अक्टूबर 2024 में उन्होंने एक नई पार्टी की स्थापना की और उसे 'आप सबकी आवाज़' नाम दिया। ये पार्टी राष्ट्रीय, राज्य, जिला, प्रखंड और पंचायत स्तर तक संगठनात्मक रूप से मजबूत होने में लगी है। वर्तमान में पार्टी बूथ स्तर पर कमेटियां गठित कर रही है और मतदाता जागरूकता अभियान चला रही है। पार्टी ने 2025 के विधानसभा चुनाव में 140 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा की है। चूंकि यह पार्टी अभी हाल ही में स्थापित हुई है, इसलिए अभी तक इसका कोई चुनावी प्रदर्शन नहीं रहा है। 


हालांकि आगामी चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन और बिहार की राजनीति में उसकी भूमिका भविष्य में स्पष्ट होगी। इससे स्पष्ट है कि पीके, पुष्पम प्रिया, ओवैसी, आरसीपी सिंह आदि राजनेतागण, जो न तो लालू-कांग्रेस के साथ हैं और न ही नीतीश-बीजेपी के खेमे में हैं, वे लोग आपसी सहमति से इनकी नकेल अपने हाथ में रखने में सफल होंगे, यदि सटीक रणनीति पूर्वक आगे बढ़े तो। क्योंकि बिहार में तीसरे मोर्चे की सियासत के लिए हमेशा एक संभावना बनी रहती है।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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