By सुखी भारती | May 05, 2021
बालि की जीवनी को टटोलेंगे तो पाएँगे कि वह देवराज इन्द्र का पुत्र है और इन्द्र देवताओं का राजा है। यह वही इन्द्र है, जिसने देवी अहिल्या का स्तीत्व भंग किया था। जिस कारण अहिल्या को, ऋषि गौतम द्वारा दिए शाप के कारण शिलावत जीवन जीना पड़ा। यह कहावत तो आपने अवश्य सुनी होगी− 'पिता पे पूत, जात पे घोड़ा। ज्यादा नहीं तो थोड़ा−थोड़ा।' बालि के पिता देवराज इन्द्र कामी हैं, और देवताओं के अधिपत होने के कारण अहंकारी भी हैं। पिता के यही गुण बालि में भी प्रवेश कर गए। बालि किष्किंध का राजा है, अथाह बलशाली भी है। इसलिए अहंकार उसकी नस−नस में व्याप्त है, साथ में कामप्रवृति ऐसी है, कि कन्या समान अनुज वधु का भी उसने शील भंग कर दिया। वह भी उन श्रीराम जी के समक्ष जिनकी दृष्टि में नारी भोग की नहीं अपितु सम्मान व श्रद्धा की पात्र है। श्रीराम जी की प्रथम वन यात्रा, जोकि गुरु विश्वामित्र जी के सान्निध्य में आरम्भ हुई थी। जिसमें श्रीराम जनकपुरी जाते समय, श्री सीताजी से तो बाद में मिलन करते हैं। वे पहले देवी अहिल्या के पाषाण युग का अंत कर, उन्हें सम्मान की पराकाष्ठा प्रदान करते हैं। मानों वे कह रहे हैं, कि देवी सीता तो जगत जननी हैं। उन्हें तो सहज ही सम्मान मिल जाएगा लेकिन उनके जगत में उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना नारी, अगर यूं ही शोषित रहेगी तो हमारे अवतार लेने का भी क्या औचित्य रह जाएगा। इन्द्र पुत्र बालि भी तो अपने पिता के पदचिन्हों पर चलता हुआ कितने ही समय से नारी शोषण का धारक बना हुआ था। भला उसके इस कर्म से हम कैसे अपनी आँखें मूंद सकते थे।
लेकिन बालि की अवस्था तो देखिए, वह स्वयं को उच्च कोटि का धर्मवेता तो मानता ही था। परंतु धर्म का अनुसरण करने में, उसे रत्ती भर भी रुचि नहीं थी। जो व्यक्ति स्वयं धर्म का पालन नहीं करता, भला वह दूसरे व्यक्ति को धर्म का उपदेश कैसे दे सकता है? और विडंबना देखिए कि बालि उपदेश भी किसे दे रहा है, साक्षात सृष्टि रचयिता श्रीराम जी को। श्रीराम बालि को बड़े ही कठोर वचनों में फटकारते हुए कहते हैं कि-
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना।
नारि सिखावन करसि न काना।।
मम भुज बल आश्रित तेहि जानि।
मारा चहसि अधर्म अभिमानी।।
श्रीराम जी बालि को मूढ़ कहकर संबोधित कर रहे हैं कि हे बालि! तू नाहक ही चीख−चीखकर कह रहा है कि मैंने तुझे व्याध की तरह छुपकर मारा। लेकिन सत्य तो यह है कि मैं तो कभी छुपा ही नहीं। अपितु पग−पग पर तुम्हारे समक्ष प्रगट होने के अवसर व संकेत दिए। लेकिन हे बालि! तुम्हें अतिशय अभिमान के चलते, मैं नज़र ही नहीं आया। सोचो जब तुम्हारी पत्नी तारा तुम्हें बार−बार समझा रही थी कि मैं साक्षात नारायण हूँ, तो यह संदेश तुम्हें कौन देख रहा था? तारा तो एक माध्यम मात्र थी, वास्तव में उसके माध्यम से तुम तक यह संदेश मैं ही पहुँचा रहा था। या कहो कि बार−बार स्वयं को प्रकट कर रहा था। लेकिन तुम कहाँ मानने वाले थे। तुम तो अपने अहंकार की बनाई आसमां-सी ऊँची दीवार में स्वयं को छुपाए हुए थे। तो भला मैं तुम्हें कहाँ से नज़र आता। छुपा मैं नहीं रहा, अपितु तुम स्वयं को ही मुझसे पग−पग पर ओझल कर रहे थे। घर की दीवारें तो मानव मजदूरों से निर्मित करवाता है। लेकिन अहंकार की दीवार तो वह स्वयं ही निर्मित करता है। और संसार की सबसे बड़ी दीवार तो अहंकार की ही दीवार होती है। जिसके पीछे वह ताउम्र गुजार देता है। जिस कारण मैं उसे नज़र नहीं आ पाता−
अहंकार की दीवार ही सबसे बड़ी दीवार है।
गिर गई दीवार तो दीदार ही दीदार है।।
काश! तुमने अपनी पत्नी की बात मान ली होती। लेकिन पत्नी की भी तुम क्यों मानते। क्योंकि पत्नी नारी जो ठहरी। और तुम्हारी दृष्टि में तो नारी की कोई सम्मानीय पदवी व गरिमा है ही नहीं। उसे तो तुमने अपने पैरों की पादुका समझा है। जिसे जब चाहा पहना और जब चाहा उतार कर उपेक्षित स्थान पर लावारिस सा छोड़ दिया। तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें इतने बड़े ज्ञान का संदेश दिया। लेकिन तुम्हारी दृष्टि में तो नारी उपदेशक हो ही नहीं सकती। क्योंकि तुम्हें तो स्वयं से बड़ा धर्म का ज्ञानी और कहीं दिखाई ही नहीं देता। तुम्हारे ज्ञान ने तो इतना-सा ही निष्कर्ष निकाला कि तुम्हें अपनी ज्ञानी पत्नी का महान ज्ञान भी भय से प्रेरित ही दिखाई दिया। और तुमने अपनी पत्नी को 'भीरूप्रिय' जैसे हल्के स्तर के शब्दों से संबोधित किया। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में नारी का अक्स केवल अज्ञानी, अबला का ही है। परंतु जो व्यक्ति अपनी पत्नी का ही सम्मान नहीं करता भला वह सुग्रीव की पत्नी का सम्मान कहाँ से कर लेता। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में तो जगत की समस्त नारियाँ मात्रा भोग का ही साधन हैं।
जब तुमने मेरे लिए 'समदर्शी' शब्द का प्रयोग किया तो मुझे लगा कि शायद अब बालि को सुमति आएगी। क्योंकि तुम्हें जब पता ही लग गया कि मैं भगवान हूँ व सुग्रीव के पक्ष में हूँ, तो तुम्हें सुग्रीव के प्रति शत्रु भाव त्यागकर मेरी शरणागत होना चाहिए था। लेकिन महाआश्चर्य कि तुम तब भी सुग्रीव वध हेतु तत्पर रहे। इसका सीधा-सा अर्थ था कि तुम सुग्रीव को नहीं, अपितु सीधे−सीधे मुझे ही युद्ध की चुनौती दे रहे थे। अन्यथा कह देते कि जब प्रभु ही सुग्रीव का पक्ष ले रहे हैं, तो यह स्वाभाविक ही प्रमाणित है कि प्रभु तो धर्म का ही पक्ष लेते हैं। निश्चित ही सुग्रीव धर्म पर होगा। यहाँ भी मैंने अपनी प्रभुता को प्रकट किया। लेकिन तू ही अपने अहंकार की दीवार के उस पार छुपा रहा। और तेरी इस मैंने तुझे मुझसे जुदा रखा। अगर अब भी तुम्हारा दृष्टि दोष यथावत है, तो समझना तुम इस ब्रह्माण्ड के सबसे बड़े अभागे हो जिसे स्वयं ईश्वर समझा रहा है और जीव समझ नहीं रहा। क्या बालि प्रभु की वाणी पर कुछ चिंतन कर पाएगा या नहीं। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम!
-सुखी भारती