By सुखी भारती | Feb 09, 2021
विगत अंकों में हम देख पा रहे हैं कि श्री हनुमान जी सुग्रीव रूपी जीव को प्रभु के संग बांधने में संलग्न हैं। परंतु सुग्रीव हैं कि श्री हनुमान जी का अनुसरण तो करते हैं लेकिन बीच−बीच में अपनी बुद्धि का समावेश करने में भी नहीं टलते। परिणाम यह होता है कि सुग्रीव श्रीराम जी की परीक्षा लेने लग जाते हैं। निश्चित ही इस कृत्य के लिए सुग्रीव प्रशंसा के पात्र तो नहीं हैं लेकिन क्योंकि शंका जीव की स्वाभाविक प्रवृति है तो श्रीराम सुग्रीव को परीक्षा दे भी देते हैं। लेकिन सुग्रीव से भला कोई पूछने वाला हो कि जब आप तो श्रीराम−श्री लक्ष्मण जी को प्रथम दृष्टि में ही बालि द्वारा भेजे गए मान रहे थे और हार कर श्री हनुमान जी पर डोर फेंक दी कि हे हनुमंत तुम जाकर दोनों की परीक्षा लेना कि वे दोनों वीर कौन हैं, कहाँ से आएँ हैं एवं क्यों आए हैं? श्री हनुमान जी ने जब परीक्षा ले ली और पाया कि श्रीराम जी तो साक्षात ब्रह्म हैं और आपको सब तथ्यों से अवगत भी करा दिया तो हे सुग्रीव भला आपको क्या पड़ी थी कि आप भी श्रीराम जी की परीक्षा लेने बैठ जाते। और परीक्षा लेकर प्रभु से करवाया भी क्या? लकड़ियां कटवाईं और हडि्डयां उठवाईं। ईमानदारी से सोचा जाए तो क्या सुग्रीव उस पाप−कृत्य के लिए स्वयं को क्षमा कर पाएँगे। सच कहें तो सुग्रीव ने स्वयं को इस विश्लेषण में उतारा ही नहीं। उतारा इसलिए नहीं क्योंकि सुग्रीव को पहले से ही स्पष्ट था कि मैं दोषी हूँ और अपने दोष को स्वीकार कर लेने का भाव भी एक दूसरे भाव के नीचे दबा दिया, वह यह कि चलो भई हम तो पापी जीव हैं। हमसे तो अपराध होते ही रहते हैं। पहले भी हुए और आगे भी होते रहेंगे। परंतु चिंता काहे की, हमारे प्रभु बैठे हैं न। वे इतने दयालु व कृपालु है कि हमारे अपराधे पर ध्यान ही नहीं देंगे। बस प्यार दुलार व ममता लुटाते रहते हैं।
सज्जनों निःसंदेह प्रभु जीव से अनन्य भाव से निःस्वार्थ प्रेम व स्नेह करते हैं। लेकिन यह क्या मतलब हुआ कि जब हम स्वयं पाप करते हैं तो बड़ी सहजता से स्वयं ही अपने पाप−कृत्यों का निपटारा कर निर्णय दे देते हैं कि चलो प्रभु तो हमारे पापों को अवश्य ही क्षमा करेंगे, दण्ड नहीं देंगे। लेकिन कहीं हमारे स्थान पर मानों हमारा कोई शत्रु हो और वह कोई अपराध कर दे तो फिर हमारा समस्त बल व प्रयास इसी ओर केंद्रित होता है कि उसे दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। हमने कितना स्वार्थी व अहितकारी सिद्धांत बनाया हुआ है कि स्वयं को क्षमा मिले और शत्रु को दण्ड। बस यही कुछ विकृतियों में एक अहम विकृति है जिस कारण हम नर से साधारण अथवा अर्ध नर तो अवश्य बनते हैं। लेकिन कभी भी नर से नारायण नहीं बन पाते।
काश सुग्रीव श्रीराम जी को यह कहता कि प्रभु! बालि का सोचना भी अपनी जगह सही है। माना कि सभी सभासदों व मंत्रियों के मुझे बल अथवा आग्रह पूर्वक अनेकों नीतियों का हवाला देकर विवश कर दिया है कि मैं भाई बालि के सिंघासन पर बैठूं। लेकिन तब भी मुझे सिंघासन पर नहीं बैठना चाहिए था। क्योंकि विवश करने की ही बात है। तो क्या आप श्रीराम के वनवास जाने के पश्चात् श्री भरत जी को समस्त प्रिय जनों व गुरु जनों ने नहीं कहा कि आपको अयोध्या के सिंघासन पर बैठना ही पड़ेगा। जिसमें तो स्वयं श्रीराम बड़े भाई भी सहमत थे और पिता दशरथ की आज्ञा भी थी। मेरी तरह कोई असमंजस की भी स्थिति नहीं थी। लेकिन तब भी क्या श्री भरत जी अयोध्या के सिंघासन पर बिराजमान हुए? नहीं न! अपितु प्रभु आपकी खडांव सिंघासन पर सुशोभित की और स्वयं महलों में रह कर भी एक वनवासी जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। जमीन पर लेटते हैं और कंद−मूल खाते हैं। उनके मन में दर्द है कि मेरे बड़े भईया जब वनवासी जीवनयापन कर रहे हैं। तो भला मैं राज−पाट व सुख−सुविधाएँ कैसे भोग सकता हूँ?
यह सिद्धांत मैं भी तो अपना सकता था कि मेरा भाई बालि अगर वीर गति को प्राप्त हो गया तो मेरे प्राण भला क्यों चलायमान है। भाई के वियोग में मैं प्राणहीन क्यों नहीं हो गया लेकिन मेरा जीवन देखिए, शोक−रोग तो मुझसे छुआ तक भी नहीं। अपितु मैं तो उल्टे राज−सिंघासन का उपभोग करने लगा। और यूँ राज−सिंघासन पर अखण्ड राज्य निर्वाह करते देख क्या भाई बालि का हृदय कष्ट व दुख से नहीं भरा होगा कि कैसा भाई है मेरा। गुफा में रक्तधरा बहती क्या देखी। डर कर भाग ही आया और स्वयं ही निर्णय ले लिया कि मायावी राक्षस तो जीवित होगा और मैं ही मारा गया। ऐसा क्यों माना कि मैं ही मारा गया? मायावी राक्षस भी तो मरा हो सकता था। चलो माना कि मेरी मृत्यु का भ्रम हो गया। लेकिन यह जान कर क्या तुम्हारा रक्त क्रोध के मारे उबला नहीं सुग्रीव! क्या एक बार भी मन में नहीं आया कि अगर मेरा भाई बालि मारा गया है? तो मैं अपने भाई बालि की मृत्यु का प्रतिशोध अवश्य लूंगा और उस मायावी राक्षस को दण्डित करूंगा। पर तुम तो भाग खड़े हुए। और उल्टे गुफा के द्वार पर पर्वत-सी सिला लगा दी। और आकर राज सिंघासन पर बैठ गया। सोचा भी नहीं कि मायावी राक्षस किष्किंधा नगरी में आकर अगर तेरे भाई बालि को समाप्त कर सकता है तो तुम्हें समाप्त करने में उसे समय ही कितना लगेगा।
इसलिए सज्जनों स्वयं के दोष देखने व स्वीकार करने का साहस किसी वीर साधक में ही होता है। और श्री हनुमान जी की अवस्था निःसंदेह अनुकरणीय है। वे तो श्रीराम जी से पहली ही भेंट में स्वीकार कर लेते हैं कि हे प्रभु! मैं तो मंद, मोह बस, कुटिल व अज्ञानी हूँ। माया के वशीभूत हूँ, जिस कारण आपको पहचाना नहीं−
तब माया बस फिरउँ भुलाना।
तांते मैं नहिं प्रभु पहिचाना।।
हम सब जानते हैं कि श्री हनुमान जी महान उच्च कोटि के साधक भी हैं। वीर योद्धा व अखण्ड तपस्वी हैं। लेकिन उनकी निरहँकारिता देखिए वे बड़े बुलंद स्वर में स्वीकार करते हैं−
ता पर मैं रघुबीर दोहई।
जानउँ नहिँ कहहु भनक उपाई।।
जिन हनुमान जी के भजन−सुमिरण से समस्त जीवों के तीनों ताप हरे जाते हैं। वे हनुमान जी कह रहे हैं कि हे प्रभु! मैं आपकी दुहाई देकर कहता हूँ कि मुझे कोई भजन अथवा साधना के उपाय नहीं आते। अगले अंक में हम जानेंगे कि क्या सुग्रीव भी बालि के प्रति वही कठोर भाव रखता है या श्री भरत जी की तरह उसके मन में भी वैराग्य जगता है। क्रमशः ...जय श्रीराम
-सुखी भारती