विभिन्न सुलगते हुए प्रादेशिक-राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय और मानवीय विषयों पर भारतीय राजनेताओं, नौकरशाहों, न्यायविदों, संपादकों, समाजसेवियों और अपने-अपने पेशे में दक्ष लोगों के जो नीतिगत अंतर्विरोध हैं, वह राष्ट्रहित में तो कतई नहीं है। वहीं कुछ लोगों का स्पष्ट मानना है कि इन अंतर्विरोधों का असली स्रोत हमारे संविधान में अंतर्निहित है, जो 'विदेशी फूट डालो, राज करो' की नीतियों का 'देशी स्वरूप' मात्र है।
अजीब विडंबना है कि समकालीन माहौल में चिन्हित संवैधानिक त्रुटियों को बदलने के लिए जिस राजनीतिक कद के व्यक्ति को आगे आना चाहिए, वह अभी तक आगे नहीं आ पाया है। वैसे तो इतिहास ने पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी को सर्वाधिक मौका दिया, लेकिन संतुलित राष्ट्रवाद और अटल राष्ट्रीयता की कसौटी पर ये लोग खरे नहीं उतरे। यह कड़वा सच है कि इनके तमाम किंतु-परंतु से स्थितियां और अधिक उलझती गईं। इससे हमारे पड़ोसी देशों का दुस्साहस बढ़ता गया और आज का भारत अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए चीन-अमेरिका-रूस जैसे विदेशी ताकतों पर निर्भर है।
वहीं, इनकी स्वार्थपरक बदनीयती से भारत और भारतीयता दोनों वैश्विक चक्रब्युह में उलझ चुकी है और इस्लामिक चक्रब्युह में बुरी तरह से फंसती जा रही है। लिहाजा, भारत के पास अब तीन ही विकल्प बचे हैं- पहला, वह विभिन्न चुनौतियों के वक्त खरी उतरी रूसी मित्रता को और मजबूत बनाए। दूसरा, चीनी चालबाजियों के खिलाफ स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाए। और तीसरा, इस्लाम विरोधी अमेरिकी गठबंधन में यदि शामिल होना है तो रूस-चीन से बेपरवाह होकर सिर्फ अमेरिका से मजबूत रिश्ते बनाए और विभाजित भारत में हिंदुत्व की भावना को मजबूत बनाए।
वहीं, यदि कोई धर्मनिरपेक्षता की बात करे तो यूनिफिकेशन ऑफ इंडिया की बात उठाए, फिर धर्मनिरपेक्षता अपनाए। क्योंकि इससे चीनी दाल पाकिस्तान-बांग्लादेश में नहीं गल पाएगी। ऐसा इसलिए कि अंतर्विरोधों से भरा हुआ व्यक्ति, परिवार, समाज व राष्ट्र देर-सबेर नष्ट हो जाता है। मैं नहीं चाहता कि कतिपय अंतर्विरोधों से भरा हुआ गुलाम भारत और उसके बाद अस्तित्व में आया आजाद भारत भी अपने अमृतकाल यानी न्यू इंडिया के जमाने में 2047 के बाद भी उन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों से गुजरे, जो इसकी 800 सालों की गुलामी और मर्मांतक राष्ट्र-विभाजन की मौलिक वजह समझी गई हैं।
इसलिए मौलिक व ऐतिहासिक परिवर्तन तभी संभव होगा, जब राजनेता-नौकरशाह-न्यायविद, सैन्य हुक्मरान और अपने-अपने पेशे के दक्ष लोग जाति-धर्म मुक्त होकर एक सशक्त और उदार भारत की नींव रखना चाहेंगे, जहां हिन्दू हितों से कोई समझौता नहीं हो। जैसे कि पाकिस्तान व बंगलादेश में मुस्लिम हितों से कोई समझौता नहीं किया जाता है।
गुजरते दशकों में या आजकल अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और मीडिया में चीन-बांग्लादेश-पाकिस्तान की जारी तिकड़मों से भारत को सबक लेना चाहिए और नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, अफगानिस्तान आदि की भी नकेल कसते हुए भारत के समग्र हित को साधने की स्पष्ट रणनीति तैयार करनी चाहिए। यह सबकुछ तभी सम्भव होगा जब हमारी सरकार हिंदुत्व की मजबूत राह पकड़ेगी और चीनी शह पर खलता प्रदर्शित कर रहे पड़ोसियों को जमीनी हकीकत से रूबरू करवाएगी। इसके लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों की जरूरत भी पड़े तो उसे अपनाने में हमारी सरकार को नहीं हिचकना चाहिए।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि विविधता हमारी खूबसूरती है, लेकिन यही बात धर्मनिरपेक्षता पर तब लागू होगी जब पाकिस्तान-बांग्लादेश का विलय भारत में हो जाए। जबतक जर्मनी और इटली की तरह इंडिया का भी एकीकरण नहीं हो जाता, तब तक हिंदुस्तान हिंदुओं का मुल्क है और समकालीन चीनी, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी तिकड़मों का जवाब भी हिंदूवादी रणनीति के जरिए ही दिया जा सकता है।
इस बात में किसी को संशय नहीं होना चाहिए, क्योंकि वेद में स्पष्ट कहा गया है कि संशयात्मा विनश्यति। यानी जिसके मन में संशय हो, उसका विनाश निश्चित है। इस नजरिए से केंद्रीय और विभिन्न राज्यों की सत्ता में मजबूत हुई भाजपा और उसकी मार्गदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा विभिन्न मौकों पर अडिग हिंदुत्व को लेकर जो संशय दिखाए जा रहे हैं, उससे भविष्य में 'कांग्रेस' मजबूत होगी और भाजपा की दुर्गति कांग्रेस से ज्यादा हो सकती है। क्योंकि भारतीय मतदाता बहुत ही मंजे हुए निर्णय लेते हैं।
आखिर 'पारसी वधू' पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी वाली गलतियां भी 'वैश्य बहादुर' मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दुहराएंगे तो फिर कांग्रेस और भाजपा में क्या अंतर रह जाएगा? शायद अंतर है भी नहीं, क्योंकि सत्ता में आते ही सुविधाभोगी नौकरशाही और उद्योगपतियों का 'गिरोह' कतिपय अंतरराष्ट्रीय संधियों/मजबूरियों जनित लाभ-हानि का वास्ता देकर राजनीतिक हृदय परिवर्तन करवाने में सफल हो जाते हैं!
हालांकि, इससे समय तो कट जाता है लेकिन भारत और भारतीयता के लिहाज से दूरदर्शितापूर्ण फैसले नहीं लिए जा पाते। अन्यथा आजादी के आठवें दशक भारत को आंख दिखाने लायक पाकिस्तान और बंगलादेश बचते ही नहीं और आसेतु हिमालय में पैर जमाने के बारे में कोई भी स्वप्न चीन को ही डराता। लेकिन आज....? आज देश में हर जगह पर जो गृह युद्ध या जातीय/क्षेत्रीय उन्माद नजर आता है, वह भी कहीं नहीं नजर आता!
आपने देखा-सुना होगा कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस गत माह 26 से 29 मार्च 2025 तक चीन के दौरे पर थे। इससे पहले उनका पाकिस्तानी प्रेम भी छलक चुका था, जो चीन को रिझाने की पहली शर्त थी। आखिर वह भी तो है पूर्वी पाकिस्तान का ही अंश। उसका नाम बांग्लादेश भले ही हो, लेकिन पाकिस्तान-बंग्लादेश के खिलाफ भारत के राजनेता हमेशा शॉफ्ट रहे, ताकि भारतीय मुसलमान उन्हें वोट देते रहें।
मसलन, यदि यही नीति सही है तो भारत का प्रधानमंत्री 1947 में मोहम्मद जिन्ना को बना दिया जाता और 2025 में भी शाहनवाज हुसैन एक चतुर प्रधानमंत्री हो सकते हैं? और यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो फिर पाकिस्तान-बंगलादेश से हमदर्दी किस बात की। क्या कांग्रेस और भाजपा के सियासी तुष्टीकरण के लिए हिंदुत्व की बलि दी जा सकती है, यक्ष प्रश्न है? यदि भारत में रहने वाले लोग विदेशी भाषा बोलें तो उन देशद्रोहियों को यहां रहने का क्या हक है? लेकिन यह सबकुछ हो रहा है?
आपने देखा होगा कि 26-27 मार्च को राष्ट्रपति शी चिनफिंग से उनकी द्विपक्षीय बातचीत के दौरान कई महत्वपूर्ण करार तो हुए ही, साथ ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री मो. यूनुस, जो नॉबेल पुरस्कार विजेता भी हैं, ने यह भी कहा कि चीन का विकास बांग्लादेश के लिए प्रेरणादायक है। दोनों देशों के साझा बयान में बांग्लादेश में तीस्ता प्रोजेक्ट के लिए चीनी कंपनियों को भी न्योता दिया। स्मरण रहे कि पिछले साल जून 2024 में भी पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना चीन गई थीं और भारत द्वारा अंदरखाने में आंख तरेरने के बाद उस दौरे को अधूरा छोड़कर वह बांग्लादेश लौट आई थीं। ततपश्चात उन्होंने कहा था कि वह चाहती है कि प्रोजेक्ट भारत की ओर से पूरा हो। उसके बाद उनके साथ जो कुछ हुआ, रहस्यमय बात है!
वहीं, अब हालात बिल्कुल अलग है, क्योंकि शेख हसीना के जाने के बाद से बांग्लादेश-भारत के संबंध बहुत सहज नहीं रहे हैं। उधर, पाकिस्तानी दखलंदाजी भी बांग्लादेश में बढ़ी है, जो आईएसआई की साजिश की सफलता का परिचायक है। सवाल है कि जिस पाकिस्तान-बांग्लादेश में कभी अमेरिकी दिलचस्पी रही और अब चीनी दिलचस्पी बढ़ रही है, यह भारतीय नेताओं के आपसी कलह, नौकरशाही की अदूरदर्शिता का तकाजा नहीं तो क्या है? रूस यदि यूक्रेन में, इजरायल यदि फिलिस्तीन में अपने हितों की वकालत करते हुए बमबारी करवा सकते हैं तो भारत का हाथ रोकने को कोई नहीं आएगा? बशर्ते कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जैसा कोई स्पष्टवादी और दूरदर्शी राजनेता प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठ जाए।
वहीं, शी जिनफिंग-मो. यूनुस के बीच हुई बैठक से जुड़े एक और बयान को लेकर भी भारत की ओर से बहुत सकारात्मक तरीके से नहीं देखा जा रहा है। क्योंकि यूनुस के फेसबुक पर मौजूद इस कथित बयान में मो. यूनुस चीन के सामने भारत के उत्तर-पूर्व के 7 बहन राज्यों का जिक्र करते हुए कह रहे हैं कि भारत के पास समुद्र तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि बांग्लादेश उस क्षेत्र में समुद्र का एकमात्र गार्जियन है। यही वजह है कि चीन-बांग्लादेश की ये नजदीकी कई लिहाज से भारत के लिए चिंता का सबब है। जहां एक ओर तीस्ता नदी विकास परियोजना से भारत की सुरक्षा सम्बन्धी चिंताएं जुड़ी हुई हैं। वहीं दूसरी ओर नॉर्थ-ईस्ट के मद्देनज़र बांग्लादेश का चीन को प्रस्ताव भी खतरे की घंटी जैसा है।
आपको यह भी बता दें कि जनवरी 2025 में ही यूनुस सरकार ने भारत के 'चिकन नेक' के नाम से मशहूर सिलिगुड़ी कॉरिडोर के पास रंगपुर में पाकिस्तानी सेना के उच्च अधिकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल को दौरा कराया था। वहीं, इसी चिकन नेक के दूसरी ओर चीन की निगाहें लगी हुई है। क्योंकि यह कॉरिडोर भारत के लिए बेहद अहम है। इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि नेपाल, भूटान, बंगलादेश जैसे देशों, जिनके कंधे पर बंदूक रखकर चीन-पाकिस्तान भारत की ओर दाग सकते हैं, इस पूरे खेल को समय रहते ही खत्म कर दिया जाए, चाहे इसके लिए भारत को जो भी कीमत चुकानी पड़े।
सवाल है कि जब पीएम मोदी के मित्र और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ कनाडा को अमेरिका में मिलाने, ग्रीनलैंड की बोली लगाने, मैक्सिको खाड़ी पर अमेरिकी प्रभुत्व जमाने की बात छेड़ सकते हैं तो भारत, चीन के मुकाबले ऐसा क्यों नहीं कर सकता है। चूंकि चीन, रूस, अमेरिका, तीनों देश कहीं न कहीं, किसी न किसी विवाद में उलझे हुए हैं, इसलिए भारत के लिए ऐसा स्वर्णिम मौका फिर कब आएगा, इसका इंतजार करना सियासी मूर्खता होगी।
एक बात और, जैसे अतीत की कड़वाहट को अलग हटाकर पाकिस्तान के डिप्टी पीएम और विदेश मंत्री इशाक डार ने ऐलान किया है कि वह अगले महीने बांग्लादेश जाएंगे, इसके भी कूटनीतिक मायने समझने की जरूरत है। क्योंकि 2012 के बाद यह किसी पाकिस्तानी मंत्री की पहली बंगलादेश यात्रा होगी। इस बीच, अप्रैल की शुरुआत में ही बिम्सटेक (BIMSTEC) समिट में पीएम मोदी और यूनुस का आमना-सामना भी होगा। इसलिए मोदी को चाहिए कि वह ऐसी कड़ी आंख दिखाएं कि यूनुस को होश फ़ख़्ते पड़ जाएं।
आप यह जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि बीते दिनों बांग्लादेश की ओर से कुछ ऐसे बयान सामने आए कि मोहम्मद यूनुस अपनी विदेश यात्रा पर चीन जाने से पहले भारत ही आना चाहते थे, लेकिन भारत सरकार की ओर से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। जबकि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर पहले भी कई बार कह चुके हैं कि भारत, बांग्लादेश के साथ सहयोगात्मक रिश्ते चाहता है, लेकिन उसे अपना दोहरा रवैया छोड़ना होगा। लगभग यही बात पाकिस्तान व अन्य पड़ोसी देशों पर भी लागू होती है।
हालांकि, इसके बावजूद भी भारतीय डिप्लोमेसी को भारत के इर्द-गिर्द बनते एक और त्रिकोण को कोई शक्ल लेने से पहले ही रोकना होगा, अन्यथा भारत के अच्छे दिन कैसे आएंगे? सच कहूं तो इन्हें लाने के लिए अभी भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है- घरेलू मोर्चे पर भी, विदेशी मोर्चे पर भी। यह जितना जल्दी कर लिया जाए, उसी में सशक्त भारत की नींव अंतर्निहित है, अन्यथा गृहयुद्ध कभी भी दस्तक दे सकता है? दुनिया भी यही चाहती है, ताकि उसके हथियारों के कारोबार को एक और नया बाजार मिले!
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक