By अभिनय आकाश | Dec 24, 2019
ऐसा राज्य जिसको लेकर एक मुख्यमंत्री ने अपनी लाश पर होकर ही बनने का ऐलान किया था। एक ऐसी पार्टी जिसकी नींव ही उस प्रदेश के गठन के लिए रखी गई थी। एक ऐसा राज्य जिसने अपने गठन से लेकर आज तक देखें हैं 6 सीएम और तीन राष्ट्रपति शासन। एक पूर्व मुख्यमंत्री जिसने हारा था अपना पहला ही चुनाव। जंगलों की भूमि कहलाने वाला भारत का एक खूबसूरत राज्य झारखंड। जिसके नाम में ही इसकी पहचान छिपी है। झाड़ या झार जिसे हम वन भी कह सकते हैं और खंड यानी टुकड़े से मिलकर बने झारखंड को 2000 में दक्षिण बिहार से अलग कर बनाया गया था। भारत के पूर्वी राज्य में स्थित ये राज्य वनस्पतियों और जीव जंतुओं से समृद्ध है। यह राज्य उत्तर में बिहार, पश्चिम में उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़, दक्षिण में ओडिशा और पू्र्व में बंगाल राज्य से घिरा हुआ है। लेकिन झारखंड राज्य के गठन के बाद से ही प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता रही है। 19 साल की उम्र वाले झारखंड ने अब तक 6 मुख्यमंत्री देख लिए हैं। तीन बार राष्ट्रपति शासन की वजह से सीएम की कुर्सी खाली रही।
1970 का वो दौर था, अलग झारखंड राज्य के मुद्दे पर जयपाल सिंह मुंडा अपनी नई राजनीतिक पार्टी का गठन करते हैं, झारखंड पार्टी। लेकिन बाद में इसका कांग्रेस में विलय हो गया। अगस्त 1972 की बात है। छोटा नागपुर के तीन बड़े नेता शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और ए.के. रॉय की मुलाकात होती है। मुलाकात के बाद एक पार्टी उभरकर सामने आती है। पार्टी का नाम झारखंड मुक्ति मोर्चा रखा जाता है। शिबू सोरेन के बचपन में ही उनके पिता की महाजनों ने हत्या कर दी थी। इसके बाद शिबू सोरेन ने लकड़ी बेचने का काम शुरू कर दिया था। 1975 में गैर-आदिवासी लोगों को निकालने के लिए एक आंदोलन छेड़ दिया और इस दौरान 10 लोगों की मौत हो जाती है। तब शिबू सोरेन पर हिंसा भड़काने समेत कई आरोप लगे थे। इस घटना का असर करीब 30 साल बाद देखने को मिला जिसका जिक्र हम आगे विस्तार से करेंगे। पहले झारखंड मुक्ति मोर्चा के पहले बिखराव की बात करते हैं। 1983-84 में झारखंड मुक्ति मोर्चा में पहला मतभेद हुआ और पार्टी दो गुटों में बंट गई। एक गुट का नेतृत्व बिनोद बिहारी महतो तो दूसरे का निर्मल महतो कर रहे थे। 1987 में निर्मल महतो की हत्या के बाद दोनों गुट फिर से एक साथ हो गए।
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1992 का वो दौर था जब दक्षिण बिहार (वर्तमान झारखंड) में नए राज्य के गठन को लेकर आंदोलन चल रहा था। पटना से लेकर दिल्ली तक आंदोलनकारी धरना प्रदर्शन कर रहे थे। इसी बीच शिबू सोरेन ने 11 जुलाई 1992 को तत्कालीन लालू प्रसाद की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। लालू प्रसाद से समर्थन वापसी के बाद झामुमो दो फाड़ हो गयी। झामुमो से अलग हुए झामुमो (मार्डी) गुट के दो सांसद एवं नौ विधायकों ने लालू यादव को समर्थन जारी रखा।
सितंबर 1992 का दौर झारखंड गठन के लिए एक महत्वपूर्ण दौर था। तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को झारखंड आंदोलन को लेकर बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया था। इस बेहद अहम बातचीत से पहले ही लालू प्रसाद यादव ने बयान देते हुए कहा की 'झारखंड उनकी लाश पर बनेगा'। इस बयान के साथ ही लालू यादव ने झारखंड गठन को लेकर अपनी मंशा जाहिर कर दी। वार्ता की सुबह पूरे बिहार में इस बयान की ही चर्चा थी। अखबारों के पन्ने इस बयान और इसके बाद की प्रतिक्रियाओ से अटे पड़े थे।
इसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदलता चला गया। पुणे में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री शंकर राव चौहान ने वक्तव्य दिया कि झारखंड की समस्या का समाधान अलग राज्य से ही संभव है। इस बयान के चार दिनों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का बयान आया कि अभी झारखंड राज्य गठन जैसी कोई बात उनके दिमाग में नहीं है। इसके कुछ दिनों के बाद झारखंड राज्य के मामले को आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के पास भेज दिया गया, जिसके मंत्री राजेश पायलट थे। गृह विभाग से विषय को हटा को लिया गया। अब लगने लगा था कि झारखंड अलग राज्य नहीं बनेगा।
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इसके बाद देश में सत्ता परिवर्तन होता है। 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और उन्होंने अपना वादा भी निभाया। यह वादा था झारखंड को अलग राज्य का दर्जा देने का। (उन दिनों भाजपा के नेता झारखंड की जगह वनांचल कहते थे)। 11 सितंबर 1999 को रांची का बिरसा मैदान था और बीजेपी के दिग्गज नेता वाजपेयी ने विशाल जनसभा को संबोधित कर कहा था 'हमारी सरकार ही वनांचल देगी, जब तक वनांचल नहीं बनेगा, न हम चैन से बैठेंगे और न बैठने देंगे। आप हमें सांसद दें, हम आपको वनांचल देंगे। वाजपेयी के वादे का असर दिखा था और 1999 के चुनाव में झारखंड में 14 में से 11 सीटों पर भाजपा के सांसद चुने गये। सरकार भाजपा की बनी और तीसरी बार प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी। उसके बाद उन्होंने झारखंड राज्य बनाने के लिए जो वादा किया था, उसे पूरा किया। अगले साल ही झारखंड राज्य बन गया।
साल 2000 तारीख 15 नवंबर, यानी बिरसा मुंडा का जन्मदिन, आदिवासियों के देवता। उसी दिन झारखंड राज्य की नींव रखी गई। शिबू सोरेन को उम्मीद थी कि उनके नाम के आगे झारखंड के पहले चीफ़ मिनिस्टर का तमगा लगेगा। शिबू सोरेन रांची में शक्ति प्रदर्शन करते रह गए और कुर्सी पर भारतीय जनता पार्टी ने बाबूलाल मरांडी को बिठा दिया। हालांकि बाद में शिबू सोरेन तीन बार सीएम की कुर्सी पर पहुंचे। लेकिन कभी 6 महीने से ज्यादा सरकार चला नहीं पाए। पहली बार में उनकी सरकार 10 दिनों में ही गिर गई थी।
अब बात करते हैं 1975 के उस केस की जिसमें हिंसा भड़काने समेत कई आरोप शिबू सोरेन पर लगे थे। 30 साल पुराने केस में शिबू के खिलाफ अरेस्ट वॉरंट जारी हो जाता है। उस वक्त वो मनमोहन सरकार में कोयला मंत्री थे और उन्हें अपने मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ता है। शुरुआत में वह अंडरग्राउंड हो गए थे लेकिन बाद में उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। शिबू सोरेन को 1 महीने न्यायिक हिरासत में रहने के बाद जमानत मिल जाती है।
साल 2006 में 12 साल पुराने अपहरण और हत्या के केस में शिबू सोरेन को दोषी पाया जाता है। यह मामला उनके पूर्व सचिव शशिनाथ झा के अपहरण और हत्या का था। आरोप था कि शशिकांत का दिल्ली से अपहरण कर रांची में मर्डर किया गया था। इस मामले में दिल्ली की एक अदालत ने उनकी जमानत की याचिका को ठुकरा दिया था। 2007 में जब उन्हें झारखंड की दुमका जेल में ले जाया जा रहा था तो उनके काफिले पर बम से हमला हुआ था, लेकिन इस हमले में किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ था। हालांकि, कुछ महीनों बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने सेशन कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। इधर शिबू प्रदेश के साथ-साथ कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे उधर उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उनके बेटे दुर्गा सोरेन चुनावी मैदान में रण कौशल सीख रहे थे। दुर्गा को ही शिबू सोरेन का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था, लेकिन कुछ वर्षों पहले हुई उनकी मृत्यु ने उनके छोटे भाई हेमंत को राज्य की राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया। शिबू के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन की पत्नी भी विधायक रहीं हैं और लगातार चुनाव लड़ती रहीं हैं। 39 साल के दुर्गा सोरेन 2009 में अपने बिस्तर में मृत अवस्था में मिले थे। वे उस वक्त विधायक के पद पर थे। हेमंत सोरेन उस वक्त राजनीति से कोसों दूर थे। पिता की खराब तबियत और भाई की अचानक मौत, हेमंत सोरेन को खाली जगह भरनी पड़ी। हेमंत के राजनीति में आने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। उनकी मां उन्हें इंजीनियर बनाना चाहती थी। लेकिन किस्मत और हेमंत को कुछ और ही करना था। उन्होंने 12वीं तक ही पढ़ाई की और फिर इंजीनियरिंग में दाखिला तो लिया मगर बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी। 2003 में उन्होंने छात्र राजनीति में कदम रखा। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। हेमंत सोरेन 2009 में राज्यसभा के सदस्य चुने गए। बाद में उन्होंने दिसंबर 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में संथाल परगना की दुमका सीट से जीत हासिल की और राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद जब 2010 में भारतीय जनता पार्टी के अर्जुन मुंडा की सरकार बनी तो समर्थन के बदले हेमंत सोरेन को उप मुख्यमंत्री बनाया गया था। हालांकि जनवरी 2013 को झामुमो की समर्थन वापसी के चलते बीजेपी के नेतृत्व वाली अर्जुन मुंडा की गठबंधन सरकार गिरी थी। 13 जुलाई 2013 को हेमंत सोरेन ने झारखंड के 9वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की।
पिता की ही तरह पहले चुनाव में मिली थी हार
शिबू ने पहला लोकसभा चुनाव 1977 में लड़ा था, जिसमें उन्हें हार मिली थी। इसके बाद साल 1980 में वह पहली बार लोकसभा के सांसद निर्वाचित हुए। 1980 के बाद शिबू ने 1989, 1991 और 1996 में लोकसभा चुनाव जीते। 2002 में वह राज्यसभा में पहुंचे पर उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और दुमका से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा और जीत दर्ज की।
पिता की तरह हेमंत को भी अपने पहले चुनाव में हार का समान करना पड़ा था। चुनावी राजनीति में हेमंत का उदय 2005 में हुआ, जब उनके पिता शिबू सोरेन ने उन्हें दुमका सीट से चुनाव मैदान में उतारा। इस फैसले से पार्टी में विद्रोह के स्वर फूट पड़े और शिबू के काफी पुराने साथी स्टीफेन मरांडी ने जेएमएम छोड़ निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत गए। हेमंत को पहले चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
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4 जून 2009 से 10 जनवरी 2010 तक हेमंत राज्यसभा के सांसद रहे। 2009 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी, जनता दल यूनाइटेड और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने साथ में चुनाव लड़ा। बीजेपी और JMM को 18-18 सीटें मिलीं। JMM ने सीएम पद पर अपनी दावेदारी ठोक दी। 25 दिसंबर 2009 को शिबू सोरेन ने बीजेपी के समर्थन से सीएम पद की शपथ ले ली। मई 2010 में बीजेपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। अगस्त में BJP-JMM एक बार फिर से राज्य में सरकार बनाने पर राजी हुए लेकिन रोटेशन के आधार पर। सितंबर 2010 में बीजेपी के अर्जुन मुंडा ने सीएम पद की शपथ ली और हेमंत सोरेन ने डिप्टी-सीएम की। 3 जनवरी 2013 को अर्जुन मुंडा ने सोरेन को दो टूक जवाब दे दिया कि रोटेशन फॉर्मूले जैसा कोई समझौता हुआ ही नहीं हुआ। अब बारी हेमंत सोरेन की थी और उन्होंने जनवरी 2013 को बीजेपी सरकार से समर्थन वापस ले लिया। ठीक छह महीने बाद हेमंत सोरेन कांग्रेस के साथ ही एक और सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल को साथ लेकर झारखंड के नौंवे सीएम के तौर पर शपथ लेते हैं। 2014 में झारखंड में चौथी विधानसभा के चुनाव हुए और इस बार सोरेन के सामने करिश्माई व्यक्तित्व वाले नरेद्र मोदी थे। झारखंड में बिना किसी चेहरे के पार्टी ने मोदी के नाम पर वोट मांगा और इस लहर में हर क्षेत्रिय क्षत्रप की तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा भी कुछ खास नहीं कर सकी। नतीजतन बीजेपी ने सरकार बनाई और रघुवर दास ने 5 साल का कार्यकाल पूरा करने वाली पहली सरकार होने का गौरव भी प्राप्त किया।
लेकिन वक्त बीता और झारखंड में लड़ाई रघुवर दास बनाम हेमंत सोरेन तो प्रत्यक्ष तौर पर देखने को मिली, परोक्ष रूप से रघुवर दास बनाम अर्जुन मुंडा भी लड़ाई भीतर ही भीतर चलती रही। बीजेपी को अर्जुन मुंडा से जो फायदा मिल सकता था वो बिलकुल नहीं मिला। इसके साथ ही बीजेपी के ही बागी नेता सरयू राय के विरोध को भी रघुवर दास को फेस करना पड़ा। एक तरफ अपनों से घिरी बीजेपी सहयोगी आजसू को भी अपने साथ नहीं रख सकी दूसरी तरफ झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद ने न सिर्फ महागठबंधन बनाया बल्कि सीएम पद को लेकर भी हेमंत के नाम पर आपसी सहमति दिखाई।
- अभिनय आकाश