‘उनके’ और ‘उसके’ लिए अलग कानून (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Jul 31, 2022

‘उनके’ शब्द सामान्य व्यक्तियों के लिए प्रयोग नहीं किया जाता। आम, साधारण, गरीब, साधनहीन मानुष के लिए ‘उसके’ शब्द है। समाज में असीमित विकास होने के बाद लगता है प्रभावशाली, पहुँचशाली, वैभवशाली व कुछ भी करवा सकने वालों के लिए अलग क़ानून होने का उचित समय आ गया है। वैसे तो व्यवस्थाजी को काफी समय से इसकी बहुत ज़रूरत महसूस हो रही है। अगर ऐसा हो गया तो प्रशासनिक व्यवस्था, ख़ास लोग पहले से ही तैयार रहा करेंगे। 


उन्हें पता रहेगा यदि वह अनुशासन तोड़ते भी हैं तो उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा। हमेशा की तरह कानून के पेंच कस कर सज़ा को भगा दिया जाएगा। नए क़ानून में उनके लिए प्रावधान हो सकता है कि कितना रक्त बहा सकते हैं। कितने कर्मठ, ईमानदार अधिकारियों को मशीनों में लपेट सकते हैं। कितनों का तबादला करवा सकते हैं। व्यवसाय के मुताबिक़ कितनी सीमा तक हेराफेरी कर सकते हैं। कितनी राशि की टैक्स चोरी करने के लिए अधिकृत होंगे। गाड़ी कितनी स्पीड से चला सकते हैं ताकि चालान हो ही न सके और जुर्माना जेब या सरकारजी के खाते में न जा सके। 

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यह प्रावधान भी हो सकता है कि वे एम्बुलेंस को भी रास्ता न देने के लिए अधिकृत हों। अखबारों को भी अपनी नियमावली में सुधार करना होगा। उनसे सम्बंधित किसी भी, गलत समझे जाने वाले काम, दुर्घटना का चित्र नहीं खींचेंगे और खबर भी नहीं छापेंगे। उनके मामलों में यदि कोई प्रभावहीन, पहुंचहीन, वैभवहीन यानी आम व्यक्ति उलझ या फंस जाता है तो उसे इच्छामृत्यु के तहत दुनिया से रुखसत होने की सहज सुविधा दी जा सकती है। लाल, पीले, हरे और नीले प्रयासों से कई दशकों में कहां साबित हो पाया कि क़ानून व्यवस्था व क्रियान्वन सभी के लिए बराबर है।

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वैसे भी विशेष व्यक्ति जब तक ख़ास महसूस नहीं करेगा तब तक महत्वपूर्ण काम कैसे करेगा। उनकी और आम आदमी की दिक्कतें, परेशानियां और पेशानियां भी तो अलग अलग हैं तो फिर ‘उनके’ और ‘उसके’ लिए अलग अलग क़ानून बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। हमारे यहां तो देश के सबसे बड़े पूर्व मंत्री के पोते की महान शादी महामारी के दौरान भी आन, बान, शान से हो सकती हैं। रेल में सवार होने के लिए, वह अपने राजनीतिक शरीर समेत, प्लेटफ़ार्म पर इंतज़ार कर रही रेल के डिब्बे के प्रवेश द्वार तक जाने के लिए अपनी पहुंच की कार ले जा चुके हैं। कानून ने उन्हें वहां भी सलाम ठोका। 


क्या करोड़ों आदमी मिलकर भी, कभी ख़्वाब में भी ऐसा करने की सोच सकते हैं। अगर कभी नहीं, तो फिर प्रभावशाली, पहुँचशाली, वैभवशाली कुछभीकरवा सकने वालों के लिए अलग क़ानून बनाने में हर्ज़ क्या है।


- संतोष उत्सुक

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