Gyan Ganga: लक्ष्मण को क्रोधित देख क्यों थर-थर काँपने लग गये थे सुग्रीव ?

By सुखी भारती | Jul 06, 2021

श्रीराम जी का खेल भला किसको समझ में आ सकता है। समझ में आये भी कैसे। खेल श्रीराम जी खेलें और हम मायावी जीव कहें कि हमको समस्त लीलाओं का पूर्ण ज्ञान हो गया, तो भला फिर वह लीला ही क्या हुई। श्रीराम जी ने भले ही श्रीलक्ष्मण जी को भेज अवश्य दिया था, लेकिन सुग्रीव को मार्ग पर लाने के लिए इतना भर ही काफी नहीं था। क्योंकि सुग्रीव को श्रीलक्ष्मण जी भले ही एक ऐसी पौध के रूप में विकसित करने जा रहे थे जो पौध फल देने वाली है। अर्थात जो सुग्रीव श्रीराम जी की सेवा करने वाला है। लेकिन कोई पौध तैयार तो तभी होती है न जब उस पौध को उगने के लिए खेत को उचित व्यवस्था से तैयार किया जाये। अर्थात खेत को हल से जोतकर व सुहागा चलाकर, इस अनुरूप बना लिया जाये कि उस पर मनचाही पौध को लहलहाता देखने का सपना साकार हो पाये। श्रीलक्ष्मण जी सुंदर की कल्पना लेकर तो आ पहुंचे, लेकिन उनके पास कहाँ इतना समय था कि वे इतनी औपचारिकताओं में पड़ते? तो सुग्रीव के मन रूपी खेत को सत्संग का हल चलाकर जोतने व उसे प्रभु के भय के, सुहागे से आकार देने का कार्य प्रभु ने किसी और को चुन लिया था। और वे महान पात्र हैं श्री हनुमान जी महाराज। बड़ी विचित्र घटना है कि श्रीराम जी ने श्री हनुमान जी को, जब यह कार्य सौंपा तो ऐसा कहीं वर्णन नहीं है, कि श्री राम जी ने किसी संदेश वाहक को किष्किंधा भेज दिया हो कि जाओ, इससे पहले कि श्रीलक्ष्मण जी किष्किंधा पहुंचे, इससे पूर्व ही तुम पहुंच जाओ। और जाकर श्री हनुमान जी को मेरा यह-यह संदेशा दे आओ। अगर किसी संदेश वाहक को श्रीराम जी ने नहीं भी भेजा, तो श्री हनुमान जी को फिर कैसे पता चला कि श्रीलक्ष्मण जी सुग्रीव को दण्ड़ नीति से साधने आये हैं। भक्त जनों! प्रभु के इसी खेल की तो हम बात कर रहे थे। श्रीरामचरितमानस में वर्णित यह चौपई बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देती है-

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‘इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा।

राम काजु सुग्रीवँ बिसारा।।

निकट जाइ चरनन्हि सिरू नावा।

चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।।’


हुआ यूं कि श्री हनुमान जी को तो पहले से ही संपूर्ण घटना का ज्ञान है। वे पहले से ही जानते हैं कि श्रीलक्ष्मण जी सुग्रीव को भय दिखाकर वापिस लाने हेतु आन पहुंचे हैं। प्रश्न तो यही है कि श्री हनुमान जी को प्रभु की इस लीला का आखिर ज्ञान कैसे सुलभ हो पाया? तो गोस्वामी तुलसीदास जी हमारी इसी जिज्ञासा का ही तो समाधान दे रहे हैं। गोस्वामी जी कह रहें कि श्रीहनुमान जी ने हृदय में ही यह सब सोच विचार किया। इसका तात्पर्य यह कि श्री हनुमान जी का हृदय स्थल वह भूमि है, जहाँ प्रभु की विचार तरंगें व उनके भक्त श्री हनुमान जी की भाव तरंगें, एक साथ प्रवाहमान रहती हैं। प्रभु अपनी हृदय स्थली से जो भी चिंतन करते हैं, ठीक वही चिंतन उनका भक्त भी करता है। वस्तुतः ऐसी मानसिक व आत्मिक अवस्था किसी विरले भक्त की ही होती है। और ऐसे भक्त व भगवान में रत्ती भर भी अंतर नहीं होता है। या यों कहें कि प्रभु अगर दर्पण हैं, तो भक्त उसमें दृष्टिगोचर होने वाला प्रतिबिंब होता है। दोनों चाहकर भी एक दूसरे से विलग नहीं होते। कहने को ही दोनों शारीरिक स्तर पर विलग होते हैं। आत्मिक स्तर पर तो दोनों एक ही हैं। श्री हनुमान जी और श्रीराम जी ठीक ऐसी ही वृति के नायक हैं। 


श्रीराम जी ने सुग्रीव को मार्ग पर लाने हेतु श्री हनुमान जी को इसलिए चुना क्योंकि श्री हनुमान ऐसे सेतु हैं, जो जीव को प्रभु से जोड़ते हैं। और श्रीराम जी को ऐसा ही पात्र चाहिए, जो किसी भी परिस्थिति में जीव को प्रभु के श्री चरणों में सदा-सदा के लिए विलीन करने के लिए तत्पर रहते हैं। सुग्रीव ने जब देखा, कि मेरे इस कक्ष की आज तक श्री हनुमान जी ने डगर नहीं पकड़ी थी। लेकिन आश्चर्य था, कि श्री हनुमान ने अपनी इस परिधि का उल्लंघन क्यों किया? निश्चित ही कोई विशेष ही कारण होगा। उसे क्या पता था कि आज भाग्य रेखा से आयु की रेखा ही कटने वाली थी? श्री हनुमान जी की शिष्टता तो देखिए, कि हैं तो वे महान तपस्वी, ज्ञानी व तीनों लोकों के स्वामी, लेकिन तब भी सुग्रीव के समक्ष श्री हनुमान जी अपने दासत्व की मर्यादा का पालन करना नहीं भूलते। श्री हनुमान सुग्रीव को प्रणाम करते हुए कहते हैं, कि हे कपिपति! आप निश्चित ही अतिअंत व्यस्त हैं। लेकिन क्षमा कीजिए, आपके स्वयं के द्वारा लगाई गई आग ही आज आपके द्वार पर आन पहुंची है।

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श्री लक्ष्मण जी हाथों में धनुष बाण लिए किष्किंधा नगरी में प्रवेश कर चुके हैं। यह मानिए कि आपकी मृत्यु आज निश्चित है। स्वयं त्रिदेव भी आपकी रक्षा करने में अस्मर्थ हैं। उनके नेत्र साक्षात ज्वालामुखी की लपटें बनी हुए हैं। उनके समक्ष स्वयं महाकाल जाने से भी घबरा रहे हैं। और आपका दुरभाग्य है, कि वे समस्त संसार छोड़ मात्र आपको ही ढूंढ़ रहे हैं। खैर! क्षमा करें, मैंने आपके व्यस्त व अमूल्य क्षणों को आनंद की चाश्नी से निकालकर सूखी रेत पर रखने की कुचेष्टा की। अब मुझे आप आज्ञा दें, और मैं चलूं। ऐसा कहकर श्री हनुमान जी वहां से प्रस्थान करने ही वाले थे, कि सुग्रीव अपने पलंग से छलाँग मारकर श्री हनुमान को घेर लेता है। सुग्रीव का कंठ किसी रेगिस्तान के सूखे टीले की भाँति सूख चुका था। जिह्वा हलक से नीचे ही नहीं उतर रही थी। सुग्रीव एक भी शब्द ठीक से उच्चारण नहीं कर पा रहा था। हनुमान जी को ‘सनुमान’ अथवा ‘फनुमान’ ही कहे जा रहा था। एक बार तो श्री हनुमान को मन ही मन हँसी भी आ रही थी। और जीव की मनःस्थिति पर उन्हें दया-सी भी आ रही थी, कि जीव विषयों में इतना क्यों मस्त हो जाता है कि शरीर के भोग ही उसे श्रेष्ठ व अंतिम लक्ष्य प्रतीत होने लगते हैं। परिणाम यह कि जीव जन्म तो लेता है नृप की तरह है, लेकिन संसार से विदा ऐसे होता है मानों उसने कंगाली का हिमालय उठा लिया हो। प्रभु का संदेश सुनने के लिए तो मानों उसके पास कान ही नहीं। और विषय व भोग की रागनी सुननी हो तो मानों उसके दो कान नहीं, अपितु सहस्त्र कान को जाते हैं। सुग्रीव ने जब देखा कि मेरी इस विकट घड़ी में सिवाय श्री हनुमान जी के कोई अपना प्रतीत नहीं हो रहा।


श्री हनुमान जी क्या सुग्रीव को श्री लक्ष्मण जी को बचाने में सफल हो पाते हैं अथवा नहीं। जानेंगे अगले अंक में (क्रमशः...)...जयश्रीराम


-सुखी भारती

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