By सुखी भारती | Sep 21, 2021
सम्पाती का हृदय भाई जटायु जी की वीरता व सेवा भाव देख कर अत्यंत हर्ष से भर गया। और श्रीराम जी की अनेकों प्रकार से महिमा का गुणगान किया-
‘सुन संपाति बंधु कै करनी।
रघुपति महिमा बहुबिधि बरनी।।’
कैसा विचित्र व महान प्रभाव है न श्रीराम जी का। जिसके मन वे बस जायें, तो उसको उनके सिवा कुछ प्रतीत ही नहीं होता। सांसारिक दृष्टि से देखा जाये, तो श्रीराम जी का सम्पाती पर कोई अहसान थोड़ी न था, जिसके चलते सम्पाती श्रीराम जी के महिमा गान करता। उल्टे यही प्रतीत होता है, कि जटायु जी की मृत्यु का कारण भी श्रीराम जी ही हैं। कारण कि जटायु जी की भला रावण से क्या दुश्मनी थी, जो वह उस दुष्ट से जाकर भिड़ गया। और अपने प्राणों से हाथ धो बैठा। सम्पाती की बुद्धि अगर नकारात्मक होती, तो वह अवश्य ही श्रीराम जी को ही अपने भाई के वध का कारण मानता। और यह मानने के लिए उसके पास ठोस तर्क भी थे। वह कह सकता था कि प्रभु मेरा भाई तो आप ही सेवा में लग रावण से भिड़ा था। ऐसे में उसके प्राणों की रक्षा का दायित्व तो आप का ही बनता था। लेकिन आपकी सेवा में लगने पर भी परिणाम तो अत्यंत ही दुखद निकला। मेरे भाई की पीड़ादायक मृत्यु हुई। अगर आपकी सेवा करने का यही परिणाम निकलता है, तो ऐसे में तो भविष्य में आपकी सेवा में कोई लगेगा ही नहीं। लेकिन सम्पाती ने ऐसा कोई भी आक्षेप श्रीराम जी पर नहीं लगाया। कारण कि सम्पाती जानता है कि हमारी गिद्ध योनि अति अधम व निकृष्ट है। हम आसमाँ में भले कितने ही ऊँचाईयों पर क्यों न उड़ लें, लेकिन हमारी मति सदैव ही पाप व मृत मांस पर पड़ी रहेगी। देह तो ऊँची उड़ गई, पर दृष्टि ऊँची नहीं उड़ पाई। ऐसे में हम भला श्रीराम जी की सेवा के कहाँ काबिल थे। लेकिन तब श्रीराम जी ने मेरे भाई की सेवा ली। उसे इतना सम्मान प्रदान किया, कि वह कह सके कि देखो, रावण ब्राह्मण होकर भी श्रीराम जी की सेवा नहीं कर पाया, और हम अधम जाति के होकर भी प्रभु के लिए अपने प्रणों का बलिदान दे गए। इससे प्रभु ने हमारी गिद्ध जाति को सम्मान ही दिया है। वरना देह का क्या है, एक न एक दिन तो इस देह को मिट ही जाना है। हम जब तक जीवित रहेंगे, तब तक तो हमें यह श्राप ही है, कि हम मुर्दा जीवों को नोच-नोच कर ही खायेंगे। लेकिन मेरे प्रिय भाई ने प्रभु की सेवा तो की ही, साथ में इस अधम योनि से भी छुटकारा पा लिया।
सज्जनों अपने जीवन को ऊपर उठाने का यही सूत्र होता है। जीवन में अगर कभी भी संत-महापुरुषों का सान्निध्य प्राप्त किया है, तो विषम से विषम प्रस्थिति में भी हमारी बुद्धि नकारात्मक नहीं सोचेगी। हमें यह लगेगा कि हमारी इस हानि प्रतीत होने वाली घटना में भी हमारा हित ही है। मनुष्य के जीवन में यही तो एक ऐसा पक्ष है, जो अत्यंत कमजोर है। तनिक-सा दुख आता है, तो हम विचलित हो जाते हैं। और छोटी सी खुशी मिली नहीं, कि फूल के कुप्पा हो जाते हैं। मनःस्थिति को सम रखना तो हमें आता ही नहीं। यही कारण है, कि हम अवसाद से निरंतर घिरते जाते हैं। हमारी समस्त शिक्षायें व अनुभव धरे के धरे रह जाते हैं। लेकिन सम्पाती की मनःस्थिति देखो, वो कितना स्थिर है। कारण कि उसने भी अपने जीवन में संत का सान्निध्य प्राप्त किया था। संत मिलन भी कैसे हुआ, सम्पाती यह घटना भी वानरों को बड़े विस्तार से सुनाता है। सम्पाती कहता है कि जब हम युवा अवस्था में थे, तो एक बार मैंने और भाई जटायु ने सूर्य पर जाने की ठानी-
‘हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई। गगन गए रबि निकट उड़ाई।।’
ऊँची उड़ान उड़ने का तो हमें दंभ था ही, लिहाजा हम उड़ते गए। जैसे-जैसे हम सूर्य के समीप जा रहे थे, वैसे-वैसे ताप बढ़ता जा रहा था। मेरे भाई जटायु ने तो भांप लिया कि सूर्य के और समीप जाने में हानि के सिवा कुछ नहीं है। भाई जटायु तो वापिस धरती की तरफ मुड़ गया। और मैं मूर्ख सूर्य पर कदम रखने की मंशा से आगे बढ़ता रहा। मेरा अहंकार मुझे पीछे पलटने पर कह ही नहीं रहा था। परिणाम यह हुआ, कि सूर्य के अधिक ताप से मेरे पंख जल गए। और मैं बड़े जोर से चीख मार कर धरती पे आ गिरा-
‘तेज न सहि सक सो फिरि आवा।
मैं अभिमानी रबि निअरावा।।
जरे पंख अति तेज अपारा।
परेउँ भूमि करि घोर चिकारा।।’
अब गिरे हुए को कौन उठाता है? संसार का तो प्रयास ही यह होता है, कि गिरे हुए को और गिराया जाए। ताकि हम सदैव उठे हुए प्रतीत होते रहें। मैंने सोचा था कि अब कोई नहीं है, जो मेरी सहायता के लिए आगे आयेगा। लेकिन तभी एक संत की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वे ऐसे ऋषि थे कि उनका वर्णन शब्दों में हो ही नहीं सकता। उन मुनि का नाम चंद्रमा मुनि था। मैं तो पीड़ा से कराह रहा था। अपने पंखों के खो जाने का दुख मुझे कटार की तरह चीरे जा रहा था, तब चुद्रमा मुनि ने मुझे ज्ञान दिया। जिससे मेरे देह जड़ित अभिमान का नाश हो गया-
‘मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।
लागी दया देखि करि माही।।
बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा।
देहजनित अभिमान छुड़ावा।।’
सम्पाती के शरीर के दुख का नाश हो गया, भला इससे बड़ी उपलब्धि और क्या होगी। इतना ही नहीं, चंद्रमा मुनि ने सम्पाती का एक और रहस्य से अवगत कराया था। मुनि ने कहा था, कि हे सम्पाती! चिंता न करो। संतों के दरबार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है। संत जिसे जो चाहें, दे सकते हैं। तुम्हारे मन में पंख जाने का दुख है न? तो सुनो! त्रेता युग में साक्षात ईश्वर इस धरा पर मानव देह धारण कर आयेंगे। उनकी स्त्री को राजा हर कर ले जायेगा। उनकी खोज में प्रभु अपने दूत भेजेंगे। उनसे मिलकर तुम पवित्र हो जाओगे।
‘त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही।
तासु नारि निसिचर पति हरिही।।
तासु खोज पठइहि प्रभु दूता।
तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता।।’
और सुनो! प्रभु के उन दूतों में इतनी पावनता व पवित्रता होगी कि तुम्हारे पंख उनके मिलन पर फिर से उग आयेंगे। तब तुम उन महान दूतों को श्रीसीता जी का पता बता देना। और देखो मेरे पंख भी उग आये हैं। मुनि की यह वाणी सत्य सिद्ध हुई। अब मेरे वचन सुन कर तुम अपना कार्य करो-
‘जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता।
तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता।।
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू
सुनि मम बचन करहु प्रभु काजु।।’
सम्पाती वानरों को कौन-सा मार्ग दिखाते हैं, जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम!
-सुखी भारती