बेंगलुरु मीटिंग में कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि पार्टी को पीएम पद की चाहत नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने खुद साफ किया कि पार्टी को पीएम पद नहीं चाहिए, बल्की वे संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिर्पेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए लडऩा चाहते हैं। कांग्रेस ने इस मुद्दे पर अपना पक्ष स्पष्ट करके जाहिर कर दिया कि एकता यदि नहीं हो पाती है तो उसकी तोहमत उसे नहीं लगनी चाहिए। इसके बाद अन्य दलों के लिए मानो दावेदारी के रास्ते खुल गए हैं। 2024 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? इसको लेकर विपक्षी खेमे में आवाज उठने लगी है। टीएमसी ने सबसे पहले दावेदारी ठोक दी है। टीएमसी सांसद सताब्दी रॉय ने मुख्यमंत्री ममता के लिए पीएम पद पर दावा ठोक दिया। कहा कि फिर 'हम चाहेंगे की ममता बनर्जी (पीएम) बनें। मसलन, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल को उनकी पार्टी के नेता-कार्यकर्ता प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर देखते हैं। हालांकि, नीतीश कुमार इसी साल साफ कर चुके हैं कि उनका 'प्रधानमंत्री बनने का सपना नहीं है।
ममता बनर्जी ने इस बारे में न तो इनकार किया है और ना ही स्वीकार, वहीं अरविंद केजरीवाल का सपना छिपा नहीं है। वह अपने लगभग भाषणों में इस बात की चर्चा करते हैं और मंत्रमुग्ध होते हैं कि 'देश का पीएम पढ़ा-लिखा होना चाहिए। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदावार की जिस चुनौती को विपक्षी दल झेल रहे हैं, वह भाजपा के सामने नहीं हैं। भाजपा से हाथ मिलाने वाले 38 दलों को पता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में भी मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इस पद के उम्मीदवार होंगे। हालांकि भाजपा के लिए भी क्षेत्रीय दलों के साथ सीट शेयरिंग मुश्किल भरा रास्ता होगा, किन्तु इतना नहीं जितनी मुश्किलों का सामना विपक्षी दलों को करना पड़ेगा। असली मुद्दा विपक्षी दलों के साथ सीटों के बंटवारे को लेकर होना तय होगा। प्रधानमंत्री पद का मुद्दा हो सकता है उसके बाद तय हो। यह दोनों मुद्दे विपक्षी दलों के लिए लोहे के चने चबाने से कम नहीं हैं। कांग्रेस की चार राज्यों में खुद की और तीन राज्यों में गठबंन की सरकार है। कहीं डीएमके तो कहीं राजद-जेडीयू, जेएमएम के साथ गठबंधन में हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साफ सहित कई दूसरे दलों के नेता इस बात पर सहमत होते हुए राय व्यक्त कर चुके हैं कि कांग्रेस उनके राज्यों से दूर रहे। ये दल नहीं चाहते कि भाजपा के साथ-साथ उन्हें कांग्रेस से भी चुनावी मुकाबला करने पड़े। ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रीय दलों का सत्ता में हिस्सेदारी का सपना कमजोर पड़ता है।
कांग्रेस ने अभी तक इस मुद्दे पर पत्ते नहीं खोले हैं। कांग्रेस नहीं चाहती कि लोकसभा सीटों की शेयरिंग और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के मुद्दों को अभी से हवा देकर विपक्षी एकता में रुकावट पैदा करे। इससे विपक्षी दलों को कांग्रेस के खिलाफ बोलने का मौका मिल जाएगा और कांग्रेस इस एकता के टूटने का आरोप अपने सिर नहीं लेना चाहती। यह निश्चित है कि कांग्रेस को यदि देश और दिल्ली की राजनीति करनी है तो विपक्षी दलों के सीट शेयरिंग फार्मूले को नकारना होगा। फिलहाल कांग्रेस तेल और तेल की धार देखने के मूड में है। कांग्रेस अभी पूरी ताकत से विपक्षी दलों के साथ मिलकर केंद्र की भाजपा सरकार के प्रति हमलावर की मुद्रा में है और इस तेवर को पीएम सहित किसी तरह के मुद्दे् को हवा देकर की कमजोर नहीं करना चाहती।
विपक्षी एकता में लोकसभा चुनाव की सीट शेयरिंग सबसे बड़ा मुद्दा है। इस मुद्दे पर किसी तरह की जल्दबाजी दिखा कर कांग्रेस अपने माथे पर एकता के टूटने का ठीकरा नहीं फुड़वाना चाहती। यही वजह है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की दावेदारी और सीट शेयरिंग के मामले में खुलकर प्रतिक्रिया जाहिर करने से हिचकिचा रही है। दरअसल कांग्रेस को भी अंदाजा है कि प्रधानमंत्री पद की मजबूत दावेदारी उसी पार्टी की बनेगी जिसके पास ज्यादा सांसद होंगे। दूसरे दल सांसदों की संख्या के आधार पर ही मंत्री और दूसरे महत्वपूर्ण पदों की दावेदारी कर सकते हैं किन्तु पीएम पद के लिए सांसदों की सर्वाधिक संख्या होने आवश्यक है, अन्यथा इसी आधार पर दावा कमजोर पड़ जाएगा।
विपक्षी दलों की असली अग्रि परीक्षा सीटों की शेयरिंग को लेकर होनी हैं। विपक्षी दल पिछली दो बैठकों में इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट निर्णय करने से बचते रहें हैं। लेकिन इस मुद्दे पर रुख साफ किए गए एकता का मसला आगे नहीं बढ़ सकता। भाजपा द्वारा विगत चुनावों में हाशिए पर धकेले गए क्षेत्रीय दल फिर से खड़े होने की फिराक में हैं। ऐसे में उनका पूरा जोर इसी बात पर रहेगा कि उनके राज्यों से कांग्रेस मैदान से हट जाए। इससे कांग्रेस को मिलने वाले वोट भी उनकी झोली में आ सके। कांग्रेस यदि विपक्षी दलों के इस प्रस्ताव को मंजूर कर लेती है तो उसका जनाधार और संगठन, दोनों कमजोर पड़ जाएंगे। ऐसे में कांग्रेस के लिए क्षेत्रीय दलों का यह प्रस्ताव गले की फांस बना हुआ है। हालांकि मुंबई में होने वाली विपक्षी दलों की तीसरी बैठक में ही कुछ स्पष्ट हो पाएगा कि यदि ऐसा कोई प्रस्ताव आता है तो कांग्रेस क्या स्टैंड लेती है। कांग्रेस इस मुद्दे पर दोराहे पर खड़ी है। यदि विपक्षी दलों का सीट शेयरिंग प्रस्ताव स्वीकार करती है तो पहले से ही भाजपा द्वारा कमजोर कर देने के बाद और कमजोर हो जाएगी। यदि कांग्रेस प्रस्ताव का विरोध करती है कि विपक्षी एकता का होना संभव नहीं होगा। ऐसे में विपक्षी को एकता में अड़चन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने का मौका मिल जाएगा, कांगेस फिलहाल ऐसा बिल्कुल नहीं चाहेगी।
विपक्षी दल एकता के इस गठजोड़ के लिए फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। पटना में बैठक का आयोजन यह देखने और भाजपा को दिखाने के लिए किया गया कि खुले तौर पर कितने दल उनके साथ हैं। इसीलिए यह बैठक सिर्फ मेलजोल तक सीमित रही। यहां तक कि बैठक में विपक्षी गठजोड़ का नाम तक तय नहीं किया गया। बेंगलुरु में हुई बैठक में राजनीतिक दल विपक्षी एकता में एक कदम आगे बढ़ गए। बैठक में सर्वसम्मति से गठजोड़ का नाम भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) तय किया गया। इसके पीछे सोच यह भी रही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अक्सर सभाओं में इंडिया का नाम लेते हैं, इसीलिए अब उनके लिए नाम लेना मुश्किल होगा। विपक्षी एकता की असली चुनौती मुंबई में होने वाली तीसरी बैठक में होगी। यह भी संभव है कि इस बैठक में भी सीट शेयरिंग, पीएम पद तथा चुनाव लड़ने के राष्ट्रीय मुद्दे तय नहीं किए जाए, बैठक में संचालन समिति तय हो सकती है। इस तरह की कवायद करने को कुश्ती में दंडबैठक से ज्यादा कुछ नहीं माना जा सकता। भाजपा से मुकाबले में आने के लिए विपक्षी को असली मुद्दों पर आना पड़ेगा। सीट शेयरिंग सहित अन्य मुद्दों से पता चल सकेगा कि विपक्षी एकता में कितना दमखम है।
-योगेन्द्र योगी