पंचवर्षीय योजना के लगभग सवा चार साल बाद, उन्होंने कल शाम, हमारी कमर में हाथ डाला। हमें रोककर, हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए अभिवादन किया और बोले, ‘अभी भी हम से नाराज़ हैं बड़े भाई’। थोड़ी हैरानी हुई कि यह सज्जन ऐसा क्यूँ कर रहे हैं। उनसे अपनी न कोई राज़गी थी न नाराज़गी। हमने भी पूरे अदब से हाथ जोड़कर नमस्कार कहा, ‘ऐसी कोई बात नहीं है’। अगले क्षण तपाक से समझ में आया कि राजनीति के खेत में चुनाव की स्वादिष्ट एवं उपजाऊ फसल रोपने की तैयारी शुरू हो चुकी है, तभी तो नकली ‘प्यार’ की असली झप्पियां डाली जा रही हैं। उम्र में हमसे बड़ा होने के बावजूद भी हमें बड़ा भाई बोला जा रहा है।
सम्बन्धों की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक व मानवीय मरम्मत भी ज़ोर शोर से रफ़्तार पकड़ रही है। हमारी पत्नी और व्यवस्था ने अच्छी तरह से समझा रखा है कि किसी भी स्तर के राजनीतिज्ञ से नाराज़गी रखने का वक़्त अब कतई नहीं रहा। याद आया, कई बरस पहले हमने उनकी एक हरकत पर टिप्पणी कर दी थी। तब भी पत्नी ने अच्छी तरह से समझाया था कि कहीं यह ‘सज्जन’ चुने गए तो आपकी खैर नहीं। लेकिन वक़्त का शुक्रिया, वह कई पार्टियां बदलने के बावजूद भी हमेशा हारते ही रहे और हम भी बचे रहे।
एक बार हमसे पुनः संबंध नवीनीकरण करने के, उनके प्रयास से लगा राजनीति एक अच्छी समझदार अध्यापक भी तो है जो हमें पढ़ाती है कि राजनीति में ही नहीं ज़िंदगी में भी कोई पक्का दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं हुआ करता। अवसर मिले तो अपने खराब सम्बन्धों को ठीक ज़रूर करते रहना चाहिए। अंजान लोगों से भी थोड़े बहुत संबंध उगाए रखने चाहिए। अपनी योजनाएं बनाने व सपने सच करने के लिए मेहनती चींटी की तरह लगे रहना चाहिए, एक न एक दिन तो सफलता मिलती ही है। चुनावी मरम्मत के मौसम में चाहे नेता एक दूसरे के साथ पुश्तैनी दुश्मनों की तरह व्यवहार करें, बातचीत का स्तर रसातल से भी नीचे ले जाएं लेकिन बात वे लोकतंत्र को अधिक मजबूत करते हुए, देश को अधिक गौरवशाली व अधिक शक्तिशाली बनाने की ही करते हैं।
यह मौसम होली की तरह होता है जहां सब गले मिल लेते हैं, क्या पता यह गले मिलना कहीं काम आ ही जाए और गले न मिलना कहीं गले ही न पड़ जाए। यह याद रखना ही चाहिए कि नेता यदि लगा रहे तो सांसद न सही विधायक न सही एक दिन पार्षद तो बन ही जाता है और अपने मकान का निर्माण तो करवा ही लेता है। खराब सम्बन्धों की मुरम्मत करने में तो वह महा अनुभवी होता ही है। ‘घमंड का सिर नीचा’ होने का मुहावरा सफल राजनीति में ‘घमंड का सिर ऊंचा’ हो जाता है। आजकल जब राजनीतिक मरम्मत के हर सधे हुए कारीगर का बाज़ार गर्म है, घमंड का सिर नीचा हुआ घूमता है।
राजनीति ने मानवीय जीवन को बहुत लचीला मुहावरा बना कर रख दिया है जिसके असली अर्थ बुरी तरह से टूटफूट चुके हैं और निरंतर मरम्मत मांग रहे हैं। आचार संहिता के प्रसव काल यानी चुनाव होने तक तक मरम्मत का यह मौसम चलने वाला है। हां चुनाव के बाद नई सरकारजी के निर्माण हो जाने के बाद घमंड का सिर ऊंचा वाला मुहावरा बाज़ार की शान हो जाएगा।
- संतोष उत्सुक