आज गणतंत्र दिवस है (व्यंग्य)

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By डॉ मुकेश असीमित | Jan 25, 2025

आज गणतंत्र दिवस है (व्यंग्य)

सर्दी की कड़कड़ाती ठंड में खिड़की के बाहर देख रहा हूँ। अलसुबह उनींदे से बच्चे अपनी स्कूल यूनिफ़ॉर्म में रिक्शों पर लदे स्कूल जा रहे हैं। यूँ तो सर्दियों में स्कूल का समय दोपहर बाद का होता है, खासकर सरकारी स्कूलों में, लेकिन गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने का समय सुबह का ही होता है। गणतंत्र की स्वर्णिम भोर की किरणों में झंडा फहराना है।


आसमान की ओर देखता हूँ। घना कोहरा छाया है, कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। सूरज पिछले सात दिनों से सरकारी दफ्तरों की कार्यप्रणाली की तरह काम कर रहा है—ऑफिस खुले से हैं, पर ऑफिसर गायब हैं। ऐसे ही आसमान खुला सा है, बस सूरज गायब है। कम से कम नेता की तरह तो दिखे, जो अपने चुनाव क्षेत्र से गायब होकर दिल्ली में तो नजर आता है। सूरज भी न, दोपहर में सीधे माथे पर चढ़ता है, थोड़ी देर अपनी शक्ल दिखाकर फिर गायब हो जाता है। लेकिन आज गणतंत्र दिवस है। सत्ता ने अपने चुनावी वादों में यह घोषणा की थी कि सूरज पूरे पाँच साल दिखेगा। शायद सूरज से गठबंधन कर लिया गया है। एक-दो बार सूरज दिखा भी दिया, फिर सालभर गायब... अब अगले साल दिखाएँगे। वैसे भी, इसी बीच चुनाव जो आने वाले हैं।

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अंदर बरामदे में पापा हाथ में रिमोट दबाए, आँखों पर चश्मा चढ़ाए टीवी पर दिल्ली के गणतंत्र दिवस समारोह को देख रहे थे। कोहरे की धुंध पूरे कार्यक्रम पर छाई हुई थी। लोग ठिठुर रहे थे, लेकिन ज़ोर-जबरदस्ती के प्रोटोकॉल में बंधे हुए वहाँ खड़े थे। पूरा कार्यक्रम जैसे किसी रिमोट से चल रहा हो, कठपुतलियाँ हिल रही हों। मशीनी तालियाँ बज रही थीं—टेक्नोलॉजी का कमाल! कार्यक्रम में बैकग्राउंड में तालियों की रिकॉर्डेड आवाज सुनाई दे रही थी। जनता की तालियों की कोई ज़रूरत नहीं। भाषण भी तो मशीनी थे—रटे-रटाए, संवेदनहीन घोषणाएँ... फिर तालियाँ... जिंदाबाद के नारे लगे। "मेरा देश महान!" झाँकियाँ वही थीं जो पिछले सत्तर सालों से देखी जा रही हैं—बस ब्लैक एंड व्हाइट की जगह चित्रों में रंग भर दिए गए हैं। लेकिन रंग भी फीके और धुंधले से। शायद कोहरे की वजह से कैमरा असली रंग दिखा नहीं पा रहा। कोहरे के कारण लोकतंत्र के असली रंग भी दिखना मुश्किल हो गए हैं।


गली में देशभक्ति के गीत गूँज रहे हैं—“जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया...”। पुराने रिकॉर्ड सत्तर सालों से बज रहे हैं... घिस गए हैं... आवाज लड़खड़ा रही है। ऐसा लग रहा है, देशभक्ति गीतों को गाने का जिम्मा चिड़िया की जगह अब कौवों को दे दिया गया है। चिड़िया तो सत्ता के पिंजरे में कैद है, सोने का अंडा दे रही है। कौवों को रोटी का टुकड़ा देकर गली में छोड़ दिया गया है—“जाओ, गाओ देशभक्ति के गीत... साल में दो बार।” कौवे भी चालाक हैं—रोटी का टुकड़ा पंजे में दबाकर फिर गा रहे हैं!


“देश है वीर जवानों का...” अब शादी-ब्याह में फूफा की कमर मटकाने के काम आ रहा है।


अभी-अभी "जन-गण-मन" सुनाया गया। मैं खड़ा होकर उसके सुर में अपना सुर मिलाने की कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन तालमेल बिगड़ता जा रहा है।


"जन-गण-मन" किसका है? आम जन का या इन गणमान्य लोगों का? कहना मुश्किल है। मन की बात में भी खुलासा नहीं हो पा रहा। आखिर कब सूरज निकलेगा और इस ठिठुरन को कम करेगा? हर बार एक वादा सुनाई देता है। गणतंत्र में अब 'गण' और 'तंत्र' अलग-अलग हो गए हैं।


"जन-गण-मन" पूरा हुआ, जिंदाबाद के नारे कानों में पड़े। पास की बिल्डिंग में एक स्कूल था। खिड़की से देख सकता था कि कार्यक्रम स्कूल की छत पर ही किया जा रहा है। एक घंटे का गणतंत्र दिवस समारोह बस समाप्ति की ओर था।


नीचे एक रिक्शेवाला खड़ा था। रिक्शे में तिरंगा झंडा लगा था। "जन-गण-मन" के साथ वह खुद भी मुस्तैद सिपाही की तरह खड़ा था। फिर वापस अपनी आमजन मुद्रा में आ गया, बच्चों का इंतज़ार कर रहा था। गणतंत्र दिवस के रंगमंच पर मासूम कठपुतलियाँ अपना प्रदर्शन कर चुकी थीं। उनके हाथों में लड्डू थे। वे वापस अपने रिक्शे में बैठकर जाने लगे थे। आज बाक़ी दिन की छुट्टी थी। बच्चों के लिए तो शायद गणतंत्र दिवस का यही मतलब था।


खिड़की से नीचे झाँककर देखता हूँ... कचरे का ढेर, कोहरे की चादर ओढ़े हुए इस गणतंत्र दिवस पर। फटी साड़ी में लिपटी ठिठुरती महिलाएँ वहीं कचरा बीन रही हैं। कुछ तिरंगे कचरे के ढेर में पड़े हुए थे। उन्होंने उन्हें अलग से अपनी साड़ी के पल्लू में रख लिया... शायद उनके बच्चे की ज़िद थी। वह भी अपनी बस्ती के बच्चों के साथ तिरंगा फहराएगा।


गणतंत्र सिकुड़ता जा रहा है। बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों से निकलकर यह सत्ता की आलीशान इमारतों के कंगूरों पर जा बैठा है। वहाँ का सूरज कभी नहीं डूबता। जनता फिर भी हर साल की तरह अपने बच्चों को स्कूल भेजने का कर्तव्य निभा रही है। उनके चेहरों पर वही पुरानी उम्मीदें हैं, जो हर चुनाव के समय जगाई जाती हैं और हर बार बिना किसी नतीजे के मर जाती हैं।


सरकारी घोषणाएँ, जो सालों से थोक में मिलती आई हैं, अब इतनी खोखली हो गई हैं कि खूब बजती हैं। गणतंत्र दिवस एक ऐसा समारोह है, जहाँ 'गण' तो है, लेकिन 'तंत्र' से पूरी तरह कटा हुआ।


इस गणतंत्र की झाँकियाँ, जो राजपथ पर गुजरती हैं, शायद इस देश की वास्तविकता से उतनी ही दूर हैं, जितना सूरज इस कोहरे से। रंगीन कागजों और चमक-दमक के पीछे छिपी इस झूठी प्रदर्शनकारी तस्वीर में असल जनतंत्र की झलक कहाँ? यह कोई नहीं जानता।


आम जनता, जो हर रोज़ दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष कर रही है, उसके लिए इस धुंधले कोहरे में कोई सच्चाई नहीं झलकती। फटी साड़ी में ठिठुरती वह आम औरत, जिसका घर चलाने के लिए संघर्ष अब सरकार की 'योजनाओं' पर निर्भर है, जानती है कि इन योजनाओं के तहत कुछ नहीं बदलता।


रिक्शावाले का वही तिरंगा, जो उसकी साइकिल पर लहराता है, शायद इस असहाय जनता का अकेला स्वाभिमान है। वह भी इस आशा के साथ खड़ा है कि एक दिन ये झूठे वादे, थकी हुई घोषणाएँ और मशीनी तालियाँ असलियत में बदल जाएँगी। उसे हर गणतंत्र दिवस पर यही बताया जाता है कि यह दिन उसकी आज़ादी का प्रतीक है। लेकिन क्या सचमुच?


बच्चों को लड्डू पकड़ाकर छुट्टी दे दी जाती है, और उनके मन में बस यह भर दिया जाता है कि गणतंत्र दिवस का मतलब यही है—झंडा फहराओ, लड्डू खाओ और छुट्टी मनाओ। पर कहीं, शायद उस रिक्शे वाले की तरह, ये बच्चे भी बड़े होकर समझेंगे कि असल गणतंत्र क्या है। शायद वे तब जानेंगे कि यह दिन सिर्फ़ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि जनता की असली आवाज़ और अधिकारों का प्रतीक होना चाहिए।


लेकिन आज के गणतंत्र दिवस पर, कोहरे में खोई वह जनता, जो हर साल नई उम्मीदें लेकर आती है, फिर से ठिठुर रही है। सत्ता और आम आदमी के बीच का यह कोहरा कब छँटेगा? यह सवाल अब एक पहेली बनकर रह गया है।


– डॉ मुकेश असीमित

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