सुबह-सुबह ही शर्मा जी उधार के अखबार को हाथ में लटकाते हुए, साथ ही अपने लटके चेहरे को लेकर, मेरे आँगन में प्रवेश किए। शर्मा जी पेशे से शिक्षक हैं, जी हाँ, वैसे शिक्षा कोई पेशा नहीं है, सेवा होती है। अब कब से यह पेशा बन गया, यह आप और मैं अच्छे से जानते हैं। अच्छा खासा गुरु पूर्णिमा दिवस हमने शिक्षकों के लिए सनातन काल से संरक्षित रखा था, लेकिन उस पर कब्जा कर लिया हमारे बाबा और साधुओं ने, वह खेमा अलग ही बनत गया। गुरु अलग हो गए, शिक्षक अलग हो गए। गुरु शब्द का जितना बहुअर्थी और द्विअर्थी पर्याय बना, उतना शायद किसी शब्द के साथ अन्याय नहीं हुआ होगा। कहाँ गुरु नाम से ही एक आश्रम में अध्ययन, भगवद् भक्ति, तपस्या में लीन वेदों शास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता किसी महान आत्मा की क्षवी अंकित होती थी। राज गुरु होते थे, जैसे परिवार के डॉक्टर। राज गुरु ही पूरी शासन व्यवस्था को धर्मसम्मत चलाने के लिए उत्तरदायी होते थे। लेकिन समाज ने गुरु को गुरुघंटाल तक लाने में कसर नहीं छोड़ी। मेरा एक दोस्त है, वो मुझे गुरु कहता है, मैं उसे गुरु कहता हूँ, यानी आज सभी गुरु हैं, चेला बनना कोई पसंद नहीं करता। रही बात शिक्षक दिवस की, जब से शिक्षक दिवस टीचर्स' डे हो गया है,ये भी अपनी मूलभूत परिकल्पना और सन्दर्भ खोता जा रहा है! जैसे हश्र हमने मदर्स डे, फादर्स डे का किया उस से ज्यादा बुरा हाल शिक्षक दिवस का कर दिया। ये तो भला हो सेल्फी की खुजली का, जिसे मिटाने के लिए इक्का दुक्का सेल्फी हम अपने पहुँच के गुरु की खींच कर सोशल मीडिया पर डाल देते हैं, हजार लायकों का प्रशाद गुरु दक्षिणा के रूप में अपने टीचर को भेंट कर देते है। इसके लिए शर्त हो, टीचर का भी सोशल अकाउंट हो। दूसरी शर्त ये है की टीचर ने ज्यादा अपनी मास्टरी झाड़ने के चक्कर में क्लास में मुर्गा नहीं बनाया हो और परीक्षा में टिप्स करने में मदद की हो, वो ही शिक्षक सेल्फी में आने लायक है! खैर, शर्मा जी बड़े परेशान, मैंने परेशानी का हाल पूछ लिया, नहीं पूछता तब भी वो बता कर ही जाते। मैंने उनकी राम कहानी सुनने से पहले उनकी वाणी को किक स्टार्ट देने के लिए चाय का ऑर्डर दे दिया था, ऑर्डर नहीं जी विनम्र प्रार्थना ही की थी। आप चिंता न करें, ऑर्डर वो भी श्रीमती जी को, हरगिज नहीं जी। शर्मा जी कहने लगे, "यार, ये शिक्षक दिवस आ रहा है, मेरी पी एल बाकी हैं। इस बार दस दिन की छुट्टियाँ लेकर चार-धाम जाना चाहता हूँ, रिटायरमेंट को एक साल बाकी है। ये छुट्टियाँ नहीं लूँगा तो सब लैप्स हो जाएंगी।"
मैंने कहा, "लेकिन शिक्षक दिवस तो आपके ही लिए है ना, ये दिन तो आपके लिए बना है।"
वो रुआंसे से हो गए, "अरे काहे का शिक्षक दिवस, तीन सौ चोंसठ दिन तो हमारी लेने में लगी है सरकार। स्कूलों में पढ़ाई नहीं करवाकर बाकी सारे काम करवाती है, मिड डे मील का संयोजक मुझे बना रखा है, दूध की थैलियों का रिकॉर्ड बनाना, चावल आटे दाल में से कंकड़ पत्थर बीनना सब मेरा काम है। चुनाव आते हैं तो हमें चुनाव ड्यूटी में लगा देते हैं। हमें तो स्टेफ़नी बना रखा है जहां लोकतंत्र का कोई पहिया पंक्चर हो हमें आगे कर देते हैं। याद है एक बार डॉक्टरों की हड़ताल हुई थी, सरकारी हॉस्पिटल में हमें लगा दिया दवाइयाँ वितरण में। अब वृक्षा रोपण कार्यक्रम में हमें लगा रखा है, घर-घर जाकर पेड़ बांटते फिरो। सरकारी शिक्षकों की हालत तुम देख नहीं सकते, क्या कर रखी है। एक स्कूल में पांच मास्टर की जगह एक मास्टर की ड्यूटी, रिक्त पदों की कोई भर्ती नहीं, एडमिशन के नाम पर सौ बच्चों का टारगेट आते हैं भर्ती होते हैं दस बच्चों के ।"
यहाँ मुझे ख्याल आया इनके खुद के बच्चे शहर के बड़े कान्वेंट स्कूल से निकले है। और ये है की सरकारी स्कूल की रबडी खाकर ही पानी पी पीकर गालियाँ दे रहे हैं।
उन्होंने अपनी बात जारी रखी "एक ही क्लास में पहली से पांचवी क्लास के बच्चों को बिठाते हैं, क्या करें। 90 बच्चे सिर्फ नाम के एनरोल कर रखे हैं, उनमें से बीस तो ढोर चराने, तीस खेतों में माँ-बाप का हाथ बंटाते हैं कुछ मजदूरी पर चले जाते हैं, उस पर आये दिन इंस्पेक्शन। सच में अब नौकरी करना दूभर हो गया है।"
"लेकिन तनख्वाह तो अच्छी खासी मिलती है ना, सरकार काम तो निकलवाएगी ना आपसे। प्राइवेट स्कूलों की हालत पता है आपको? दस्तखत चालीस हजार पर करवाते हैं, पकड़ाते हैं दस हजार, और काम लेते हैं चौदह घंटे का।" मैंने कहा ।
शिक्षक जी बोले, "लेकिन ट्यूशन तो हैं ना, उन्हें ट्यूशन मिल जाता है, सरकारी स्कूल में ट्यूशन की कोई बात ही नहीं करता।" मैंने शायद उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, वो वास्तव में दुखी थे। बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ट्यूशन कितना जरूरी है उस पर वो एक लंबा व्याख्यान देना चाहते थे। अभी कुछ ही दिन पहले मिड डे मील के घपले में भी बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। वो तो उनके साले की शिक्षा बिभाग में ऊपर तक पहुँच थी, जो मामला रफा दफा करवा दिया। मामला ये था की सरकार को एक बार बच्चों के कुपोषण की भारी चिंता हुई, सरकार ने मिड डे मील में, दुग्धपान घुसा दिया। सरकारी बंदरबांट प्रणाली को ध्यान में रखते हुए टेंडर प्रक्रिया की बाकायदा औपचारिकता की गयी।टेंडर किसी ऐसी कंपनी को दिया गया जिसके उत्पादन गोदामों में सड़ रहे थे । अधिकारियों ने सबका हाथ सबका विकास के भाव से उसे ही टेंडर प्रदान किया। इस तरह देश का स्वच्छता अभियान में योगदान भी हो गया ! लोकतंत्र में कुछ भी सड़ना नहीं चाहिए, देश की जनता हैं न सब कुछ पचाने के लिए। समस्या तब हुइ जब बच्चों ने क्रांति कर दी। बच्चे पाउडर के दूध को हाथ भी नहीं लगाते। शर्मा जी को गहरा सदमा लगा। ऊपर से अधिकारीयों का दबाब,दूध हर हाल में वितरण होना चाहिए। शर्मा जी ने बच्चों को थैलियाँ अपने घर ले जाने के लिए कहा और मिड डे मील का लुत्फ़ गाय भैंसों को उठाने के लिए आव्हान किया। बस शर्मा जी के ही एक धुर विरोधी दुसरे गुट के अध्यापक वर्मा जी ने ये खबर लोकल न्यूज़ पेपर में लीक कर दी। भैंस के खनोटे में पडी दूध-पाउडर की थैलियों से सचित्र न्यूज़ अखवार में छपी तो नीचे से लेकर ऊपर तक हडकंप मच गया।जांच आयोग बिठाया गया,और बड़ी मुश्किल से शर्मा जी उस प्रपंच से अपनी जान छुडाये हैं।
तब तक चाय आ चुकी थी, चाय की भाप भरी चुस्कियों के साथ शर्मा जी का चेहरे की लटकन थोड़ी कम हुई ।उन्हें जल्दी से चाय पिलाई और विदा किया।
– डॉ मुकेश असीमित