राजनीतिजी के वरिष्ठ पुत्र विकासजी ने निरंतर आगे बढ़ते रहना है। लोकतंत्र के सिलेबस के मुताबिक यह उनका नैतिक व मानवीय कर्तव्य है। इतिहासजी गवाह है कि वे जब भी आगे बढ़ते हैं बेचारा वक़्त पीछे रह जाता है। बहुत से नादान और कमसिन लोग उनका रास्ता रोक रहे होते हैं लेकिन उन्हें यह समझ नहीं होती कि विकासजी ने निरंतर आगे बढ़ते जाने की तैयारी अद्वितीय तरीके से की होती है। तभी तो सभी का सारा विरोध धरा का धरा रह जाता है। अब क्यूंकि विकासजी राजनीतिजी के वैध और धार्मिक पुत्र हैं इसलिए उन्हें अपनी योजनाएं ज़ोर शोर से बताने का अधिकार होता है। राजनीतिजी स्वयं गर्व से बार-बार घोषणा करती रहती हैं कि उनके सुपुत्र समाज कल्याण के लिए बहुत आगे बढ़ना चाहते हैं।
स्थायी नादान आम जनता नहीं समझती है कि विकास के लिए विनाश ज़रूरी है और निकास के लिए विकास बहुत आवश्यक है। ज़िंदगी की रफ़्तार बढाने के लिए कुदरत को कुचलना ज़रूरी है। पानी, हवा, वृक्षों की ह्त्या, पहाड़ हटाने लाजमी हैं। जब विकासजी ने अगली मंजिलें तय करनी होती हैं तो उनकी माताश्री आरामदेह बैठक पुन आयोजित करती हैं जिसमें नई योजनाओं की प्रभावशाली प्रस्तुति दी जाती है। उसमें बताया जाता है कि इतनी गति से विकास करने से उतना गुणा विकास होगा। हमारे गांव और शहर स्मार्ट हो रहे हैं इसलिए उनमें रहने वाले हर व्यक्ति का स्मार्ट होना भी बहुत ज़रूरी है।
राजनीतिजी कहती हैं कि अब विकास के उज्जवल भविष्य के लिए किए जाने वाले कार्यों को हम एक मिशन के रूप में लेंगे। बैठक में उनकी अवैध संताने भी आई हुई थी। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से बताया कि विकासजी के रास्ते में परेशानियों की पहाड़ियां खड़ी हुई हैं। उन्हें हटा दिया जाए या उनके बीचों बीच सुरंगों का निर्माण कर दिया जाए। इसके लिए जितना बहुत ज़रूरी हुआ उतनी हरियाली को मौत की नींद सुलाना पडेगा। राजनीतिजी ने पूछा कितना? उनकी दूसरी खतरनाक संतान ने हंसते हुए कहा जितना और कितना की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं हुआ करती। राजनीतिजी ने कुछ क्षण बेहद संजीदा होकर सोचने के बाद कहा कि विकास के कारण मानवीय ज़िंदगी को किसी भी किस्म की कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए क्यूंकि मनुष्य का जन्म चौरासी करोड़ योनियों के बाद संभव होता है। उन्होंने यह भी फरमाया कि वृक्षों में भी इंसानों की तरह जान होती है। कुदरत ने हमने बहुत संपदा दी है जिसे कम से कम नुक्सान होना चाहिए। जितने वृक्ष काटे जाएं उससे कई गुणा कहीं और रोपने बारे सोचा ज़रूर जाना चाहिए।
वास्तविकता यह है कि कहने में कुछ नहीं जाता, जीभ ही तो हिलानी है। सिर्फ कहना ही तो है। कहीं कुछ ऐसा वैसा कहा गया तो कई बार थोड़ी परेशानी हो जाती है। कान और आंख उसका गलत अर्थ निकालने लगते हैं। इसलिए यह कहने के लिए भी हमेशा तैयार रहना चाहिए कि हमारे कहने का मतलब यह नहीं, वह था। गलत अर्थ निकालने वालों को विकास का दुश्मन बताकर विकासजी की रफ़्तार दिन दूनी रात चौगुनी करने का वायदा करते रहना चाहिए। वैसे, जानने वाले बिलकुल मानते हैं कि राजनीतिजी के छोटे बिगडैल बेटे का नाम विनाश ही तो है।
- संतोष उत्सुक