यह हुई न बात (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त | Feb 02, 2021

शेखर का अपनी पत्नी से हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा था। शादी हुए बीस बरस बीत गए। पति-पत्नी हमेशा एक–दूसरे पर हावी होने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। न जाने फिर भी उन दोनों में ऐसी कौनसी अजीब केमेस्ट्री थी कि दोनों एक-दूसरे के बिना जी नहीं सकते थे। मैंने भी अपने अक्ल के घोड़े दौड़ाए। पता चला कि शेखर की पत्नी हिंदी की अध्यापिका है। अब आप जानते ही हैं कि हिंदी भाषा में एक गजब शक्ति है। यह आपसी फासलों को दूर कर एक-दूसरे के करीब ला देती है। यही हुआ शेखर के साथ।


एक दिन की बात है। मैं शेखर के घर उसका हाल-चाल पूछने चला गया। इससे पहले कि मैं हाल-चाल पूछूँ दोनों में महाभारत की जंग छिड़ गई। मुझे देखते ही शेखर ने अपनी पत्नी से कहा कि बस अब मेरा सर मत खा। जा चाय-समोसा ले आ। तुरंत पत्नी ने समय की गंभीरता को भांपते हुए थोड़ी बनावटी हँसी के साथ मुस्कुराई। उसने कहा कि मैं कहाँ तुम्हारा सर खा रही हूँ। आप तो बेवजह नाराज हो गए। आप तो हमारे दिल के सरताज हैं। मेरे घर के सरपंच मेरे सरकार हैं। मेरी हदों के सरहद के सरगना और सरदार हैं। इतना सुनने भर की देरी थी कि शेखर का चेहरा खिलखिला उठा। मैं हैरान रह गया। पति ने केवल सर शब्द कहा था। पत्नी ने तो सर से सरताज, सरपंच, सरकार, सरहद, सरगना और सरदार शब्दों की झड़ी लगा दी। 

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उस दिन बड़ा अजीब हुआ। मैं तरकारी खरीदने सब्जी बाजार गया था। वहाँ दोनों तरकारी वाले से सब्जी खरीद रहे थे। शेखर गोभी के भाव को लेकर तरकारी वाले से मोल-तोल कर रहा था। तरकारी वाले ने शेखर को यह कह कर डाँट दिया कि आपको कम समझ आता है क्या? एक बार कहने पर समझ में नहीं आता? इतना सुनने भर की देरी थी कि शेखर की पत्नी ने आव देखा न ताव। तुरंत उसने तरकारी वाले को आड़े हाथों लेते हुए कहा- कमबख्त! तुझे बात करने का भी सहूर नहीं है। कमजोर नजर का अंधा। कमदिमाग वाले तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरे पति को कमसमझ कहने की। इस महंगाई के जमाने में मेरा पति कमखर्च और कमकीमत में घर-बार चलाने की खूब समझ रखता है। तुझे भाव नहीं पड़ता तो सीधे-सीधे मना कर दे। लेकिन कमसमझ जैसी उटपटांग बातें कहोगे तो छोडूँगी नहीं। तरकारी वाले ने जैसे-तैसे हाथ जोड़कर माफ़ी माँगी और अपनी जान छुड़ाई।


कुछ दिन पहले पड़ोस में एक दावत थी। वहाँ दोनों के दर्शन हो गए। वहाँ ऐसा कोई न था जो दोनों के स्वभाव के बारे में जानता न हो। किसी ने शेखर को यह कहकर छेड़ दिया कि आजकल हम से मिलते नहीं हो। मुँह छिपाकर फिरते हो। कहीं भाभी ने डरा धमकाकर तो नहीं रखा है? चूँकि कहने वाला शेखर का करीबी था सो पत्नी चुपचाप रह गई। लेकिन उस दिन जो हुआ बड़ा अजीब हुआ। शेखर ने अपने मित्र को खरी खोटी सुनाते हुए कहा- मेरी पत्नी मुँहफट, मुँहतोड़ जरूर है लेकिन वह मेरी मुँहबोली है। मेरे जीवन का मुँहमाँगा इनाम है। मेरी पत्नी मुझे डराती-धमकाती नहीं है। वह उसके प्यार करने का तरीका है। मित्र ने स्थिति को बिगड़ती देख शेखर से कहा- मन पर मत ले यार। मैंने यूँहीं कह दिया था। इस पर शेखर ने कहा- मन पर क्यों न लूँ? वह मेरी मनचली, मनचाही, मनमोहिनी, मनमौजी जीवन साथी है। वह मनभावन, मन हरने वाली है। वह कभी-कभी मनमानी करती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारे बीच मनमुटाव है। वह जीवन भर मेरी मनसब है। यह सब सुन मित्र इतना सा मुँह लेकर रह गया। पत्नी अपने पति की बातें सुन फूले नहीं समा रही थी। 


मैंने शेखर की प्रशंसा करते हुए उससे कहा- वाह! यार तुमने तो आज उसकी छुट्टी ही कर दी। तुम्हारा यह रंग देखकर मुझे बड़ा गर्व हो रहा है। इस पर उसने कहा- मेरे जीवन के रंगमंच की जो रंगशाला है उसका रंगरूप और रंगढंग संवारने वाली मेरी रंगरसिया मेरी पत्नी है। मैं शेखर के उत्तर से हतप्रभ रह गया। मैंने उत्सुकतावश पूछ ही लिया कि तुम्हें यह उपसर्गों वाली भाषा किसने सिखायी? उसने कहा कि बीस बरसों से पत्नी के साथ हूँ। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है तो मैं नहीं बदलूँगा क्या? 

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घर लौटने से पहले मैंने शेखर से कहा- हरएक को तुम्हारी तरह हरदम अपनी पत्नी से इसी तरह प्यार करना चाहिए। हरपल, हरदिन और हरहाल में अपने जीवन साथी का साथ देना चाहिए। जीवन में छोटी-मोटी नोंक-झोंक चलती रहती है। इन सबके बावजूद अगर कोई हरदम, हरबार, हरवक्त, हरघड़ी हमारा साथ देती है, तो वह है- हमारी पत्नी। हरतरफ देखने पर हरबात, हरचीज़ में यही सच्चाई नजर आती है।


शेखर ने जाते-जाते केवल इतना कहा- देखो, एक और खरबूजे ने रंग बदल लिया।


डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

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