पत्नी पति को भला अपने पल्लू में कैसे बॉधकर रख सकती है! भई जेब में पूरा देश रख कर दुनिया घूम सकते हैं, तब पत्नी के लिए पति को पल्लू में बाँधकर घूमने में कैसी परेशानी हो सकती है। वैसे भी पल्लू का इतिहास लंकापति के समय जितना पुराना है। अंतर केवल इतना है कि लंकापति धन कुबेर को अपनी काँख में दबा कर रखते थे, तो पत्नी पति को पल्लू से। इस हिसाब से पति बड़े सौभाग्यशाली हैं। काँख में दाबकर रखती तो साँस लेना दुश्वार हो जाता। इसका मतलब अपने यहाँ तो परंपरा है, और जो परंपरा के बूते पर ही खड़े हैं उन्हें कोई ऐतराज हो सकता है भला ! न चाहते हुए भी पति पत्नी की पल्लू से बँधा चला जाता है। पहले वाले तो बड़े किस्मतवाले थे। पत्नियाँ साड़ी पहनती थीं, आज के जमाने में तो पत्नी जेब में रखकर घूमती हैं। जमाना भर बदला है, लेकिन रखने का चलन अभी भी बदस्तूर जारी है।
''क्या हुआ तुम्हें ? कुछ ढूंढ रहे हो पति देव?'' पत्नी ने पति से पूछा।
''जमीर .......शादी से पहले हुआ करता था। आजकल दिखाई नहीं दे रही है। अरे भागवान तुम्हारे चक्कर में सब कुछ भुला बैठा हूँ! बिना पत्नी के पल्लू या जेब की कल्पना करना कितना कठिन है जानती हो !?'' पति ने करुण स्वर में कहा।
''क्या तुम्हारे पास जेबों की कमी है, उसी में से किसी में एक ढूँढ़ लेना?'' पत्नी ने पति के नहले पे दहला फेंका।
''मुझे तो तुम्हीं से बंधे रहने की आदत सी हो गई है। तुम खोल भी देती हो तब भी मन तुम्हीं से बंधा रहता है।''
''अच्छा तब कहीं चले क्यों नहीं जाते जब मैं तुम्हें इतना खटक रही हूँ तो।''
''जाने को तो चला जाता, लेकिन डर यह है कि खुले सांड पर इल्जाम बहुत लगते हैं। इसलिए जैसा हूँ वैसा ही ठीक हूँ। तुमसे बंधे रहने से कम से कम रोटी-दाल तो मिल जाती है।''
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
प्रसिद्ध नवयुवा व्यंग्यकार