हार का मंथन (व्यंग्य)

By अरुण अर्णव खरे | Jul 18, 2019

चुनाव परिणाम आ गए... सबकी नजरें हारे हुए दलों के नेताओं की ओर हैं, अब वे अपनी हार का मंथन करेंगे। विजयी दल से जनता का फोकस पराजित दलों पर शिफ्ट हो गया है। पर मंथन है कि शुरु ही नहीं हो पा रहा है। सब पता नहीं किन बंकरों में दुबके हुए हैं। शायद उन्हें मंथन करने की जल्दी नहीं है क्योंकि जिस तरह उनकी धुलाई हुई है इससे उन्हें मंथन के बाद अमृत निकलने की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही है। बुआ ने भतीजे से बिना मंथन के ही किनारा कर लिया और युवराज ने इस्तीफा देकर मंथन की सम्भावनाओं को परे धकेल दिया। देश में चुनाव हो जाएँ और हार पर मंथन न शुरु हो पाए यह देश की राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है। मंथन में हो रही देरी से इधर से उधर जाने के सिलसिले ने जोर पकड़ गया है। चक्रवाती तूफान की तरह यह रातोंरात दक्षिण से पश्चिम तक जा पहुँचा है। मंथन समय पर शुरु हो जाता तो असमय शुरु हुई पाला बदल की कवायद कुछ रेवड़ियाँ पाने की लालसा में कुछ समय के लिए थम भी सकती थी।

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अतीत में हर हार के बाद मंथन करने की समृद्ध परम्परा रही है। कुछ चुके हुए, जनता से कटे हुए आउटडेटेड बुजुर्ग नेताओं की अगुआई में हार की गहनता के अनुसार दो दिनी, तीन दिनी या पाँच दिनी मंथन-उत्सव होता था और हर बार वही गिने चुने कारण मंथन में निकल कर सामने आते थे लेकिन उनमें नई मोहर लगा कर उनको नया मान लिया जाता था। इससे दो काम एक साथ हो जाते थे- एक तो पिछली हार का मंथन हो जाता था और दूसरा अगली हार के बाद मंथन के आधारबिंदु तय हो जाते थे। मंथन का परिणाम ज्ञात होते हुए भी पता नहीं क्यों अभी तक मंथन का काम अटका हुआ है। माना चुनावों में बहुत शर्मनाक पराजय हुई है तो पाँच दिनी मंथन-टेस्ट मत आयोजित करो पर परम्परा-पालन के लिए एक दिनी मंथन मैच तो खेल डालो।

 

परम्पराओं का टूटना अच्छी बात नहीं है सो हमारे मित्र बटुक जी खासे परेशान हैं। वह अब अपने स्तर पर हार का मंथन करने की सोच रहे हैं। एक दिन सुबह-सुबह वह इस प्रस्ताव के साथ उपस्थित हो गए। मैंने शंका जाहिर की- "आपने कभी चुनाव भी नहीं लड़ा, हारने का तजुर्बा भी नहीं हैं फिर हारे हुए लोगों के मन की बात आप कैसे भाँप पाएँगे।" उन्होंने मुझे घूर कर देखा, बोले- "जैसे शादी के पहले सुहागरात मनाने की जरूरत नहीं होती उसी तरह हार के मंथन के लिए हारने की जरूरत नहीं है।"

 

उनका उत्तर सुनकर मैं बगलें झाँकने लगा। समझ में ही नहीं आया कि उनका उत्तर इस मामले में कितना प्रासांगिक है लेकिन खीं खीं कर मुझे उनकी बात का समर्थन करना पड़ा। वह मेरी खीं खीं से उत्साहित हो कर बोले- "मैंने हार के कारण तो पहले ही पता कर लिए हैं, उन पर तुम्हारी मोहर लगवानी है- कहते हैं न एक से भले दो।" मेरी उत्सुक्ता बढ़ गई। पूछा- "जल्दी बताइए, हार के ऐसे कौन से कारण हैं कि बिचारे मंथन तक नहीं कर पा रहे हैं।"

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वह इस बार गम्भीर हो गए। बोले- "कल रात मेरे सपने में घटोत्कच पुत्र बर्बरीक आए थे। वही बर्बरीक जिन्होंने पूरा महाभारत देखा था। मैंने उनसे पूछा कि हे वीर, इस चुनाव में प्रतिपक्षियों की हार के क्या कारण हैं तो पता है उन्होंने क्या कहा।"

 

"क्या कहा"- मैं उतावली दिखाते हुए बीच में ही बोल पड़ा।

 

"वही तो बताने जा रहा हूँ" बटुक जी थोड़े नाराजगी भरे स्वर में बोले- "उन्होंने कहा कि उसने यह पहला चुनाव देखा जिसमें जीत और हार का एक ही कारण नजर आया- छप्पन नम्बर। जीतने वाले जहाँ भी जीते छप्पन के कारण जीते और हारने वाले जहाँ भी हारे छप्पन के कारण हारे। महाभारत युद्ध में जिस तरह मैंने केवल चक्रधारी कृष्ण को लड़ते देखा था इस चुनावी रणक्षेत्र में भी केवल और केवल छप्पन को ही लड़ते देखा।"

 

बटुक जी थोड़ा रुके, पानी पिया और फिर बोले- "विरोधियों ने छप्पन को मात्र एक नम्बर समझने की भूल की। यह पाँच और छ: से मिलकर बना एक ऐसा नम्बर है जिसका निहितार्थ बहुत गहरा है। पाँच उँगलियों से मिल कर मुट्ठी बनती है और मुट्ठी सदा ही बिखरी हुई उँगलियों वाले पंजे पर भारी पड़ती है। छह तो हवाई अंक है। ऊँची-ऊँची हवाई बातों में विरोधी ऐसे उलझे कि खुद हवा हो गए। तो भाई छप्पन इसीलिए सब पर भारी पड़ गया।"

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"ओह" मेरे मुँह से निकला- "बर्बरीक ने चुनावों के बाद भी कुछ देखा हो तो वह भी बता दीजिए।"

 

"उसने बहुत कुछ देखा है- विरोधियों की पस्त हिम्मत और आंतरिक विलाप। कई नेताओं को उसने आपस में कहते सुना है, भाई उनको जीतना था तो जीत जाते पर हमें इस तरह तो नहीं रौंदना था।"

 

-अरुण अर्णव खरे

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