अपनी कविता और भाषणों से भारतीयता की अलख जगाने वाली कवयित्री थीं सरोजिनी नायडू

By दीपा लाभ | Mar 02, 2022

अपनी आवाज़ की खनक से श्रोताओं को सहज ही आकर्षित करने वाली कवयित्री सरोजिनी नायडू एक दमदार शख्सियत की स्वामिनी थीं। बुलबुल-ए-हिन्द, भारत-कोकिला, ज्वेल फ्रॉम ईस्ट सरीखे उपनामों से संबोधित इस भारत की बेटी को आज उनके 73वें पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित है। सरोजिनी का व्यक्तित्व भावनाओं के उतार-चढ़ाव से गुज़रता हुआ एक सच्चे देशभक्त के रूप में सामने आया और भारतीय स्वाधीनता की कहानी का महत्वपूर्ण अध्याय बनकर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप अंकित कर गया।

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सरोजिनी प्रख्यात शिक्षाविद् व वैज्ञानिक अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवं सुप्रसिद्ध लेखिका, कवयित्री और गायिका वरदसुन्दरी देवी की पहली संतान थीं, जिनका जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में हुआ था।  पिता ने उनके जन्म के दो वर्ष पूर्व ही एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि ली थी और हैदराबाद आकर निज़ाम कॉलेज की स्थापना कर यहाँ के प्रथम प्रिंसिपल नियुक्त हुए। सरोजिनी का परिवार मूलतः बंगाल प्रोविन्स के ब्राह्मणगाँव, बिक्रमपुर (अब बांग्लादेश का हिस्सा है) से आकर हैदराबाद में बस गया था और जल्द ही यहाँ के प्रतिष्ठित परिवारों में शुमार हो गया। एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मीं सरोजिनी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। पिता भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और हैदराबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम सदस्य थे। एक भाई विरेंद्रेनाथ चट्टोपाध्याय क्रन्तिकारी थे और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। छोटी बहन सुहासिनी भी स्वतंत्रता संगाम में सक्रिय थीं। उन्होंने पहले शिक्षिका, फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पहली महिला सदस्य बनकर और बाद में एक समाजसेवी के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित किया। सबसे छोटे भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय एक जाने-माने अंगेज़ी कवि, नाटककार, अभिनेता और फिर राजनीतिज्ञ बनकर उभरे। सरोजिनी की पारिवारिक पृष्ठभूमि उनके व्यक्तित्व को समझने में अहम् भूमिका निभाती है। 


पिता उन्हें अपने समान वैज्ञानिक बनाना चाहते थे किन्तु माँ सरोजिनी में एक कवयित्री को बड़ा होता देख रहीं थीं। बचपन से विलक्षण रहीं सरोजिनी ने मात्र बारह बर्ष की उम्र में समूचे मद्रास प्रोविन्स से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर सबको अचंभित कर दिया था। माँ का अन्देशा तब सही साबित हुआ जब एक दिन सरोजिनी की गणित की नोटबुक में पिता ने 1300 पंक्तियों की कविता “द लेडी ऑफ़ द लेक” [The Lady of the Lake] और 2000 पंक्तियों का नाटक “मेहर-मुनीर” लिखा पाया। एक छोटी बच्ची की अंग्रेज़ी भाषा पर इतनी अच्छी पकड़ से ख़ुश होकर हैदराबाद के तत्कालीन निज़ाम ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए वजीफ़ा दिया जिसके तहत् सरोजिनी पहले किंग्स कॉलेज, लन्दन और फिर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के गिर्टन कॉलेज भेजी गयीं। कॉलेज के अनुकूल वातावरण में सरोजिनी का कवि मन मुखरित हुआ और उन्होंने कई कविताओं की रचना की। हालांकि, उनकी कविताओं को पढ़कर उनके एक प्राध्यापक एडविन गॉस ने उन्हें अंगेज़ कवियों की नक़ल न करके भारतीय परिप्रेक्ष्य व भारतीयता को मूल में रखकर लिखने की सलाह दी। गॉस की बातों का उनपर जादुई असर हुआ और उनकी कविताओं को एक नई शक्ल मिली। 


सितम्बर 1898 में सरोजिनी इंग्लैड से भारत आयीं और इसी वर्ष दिसम्बर में डॉ. गोविन्दराजुलू नायडू (ग़ैर-ब्राह्मण) से अन्तर्जातीय विवाह किया जो उस ज़माने के लिए बहुत बड़ी और निन्दनीय बात थी, किन्तु पिता के सहयोग से इस विवाह की गरिमा बनी रही और यह नव-विवाहित दम्पति “द गोल्डन थ्रेशोल्ड”, हैदराबाद विश्वविद्यालय का वह भवन जहाँ यहाँ के पहले प्राचार्य डॉ. अघोरनाथ जी का निवास था, में आकर रहने लगे। यही “द गोल्डन थ्रेशोल्ड” सरोजिनी नायडू की पहली काव्य-संग्रह का शीर्षक बनी जिसे 1905 में विलियम हाइनमैन ने इंग्लॅण्ड में प्रकाशित किया था। यह पुस्तक इंग्लॅण्ड में बहुत सफल हुई और जल्द ही इसकी सभी प्रतियाँ बिक गयीं। उनकी दूसरी काव्य-संग्रह “द बर्ड ऑफ़ टाइम – सॉंन्ग्स ऑफ़ लाइफ, डेथ एंड स्प्रिंग” प्रकाशित हुई जिसे लन्दन और न्यू यॉर्क दोनों जगहों से निकला गया। 1915-16 में उनकी तीसरी काव्य-संग्रह “द ब्रोकन विंग - सॉंन्ग्स ऑफ़ लाइफ, डेथ एंड डेस्टिनी” प्रकाशित हुई जिसे पढ़कर रविन्द्रनाथ टैगोर ने सरोजिनी को लिखा, “द ब्रोकन विंग्स की तुम्हारी कविताएँ मानो आँसू और अँगारों से लिखी गयी हों; जैसे जुलाई माह के शाम के बादल सूर्यास्त की लालिमा में दमक रहे हों”।

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एक कवयित्री के रूप में विख्यात हो चुकीं सरोजिनी को जीवन का असल उद्देश्य गाँधी जी से मिलने के बाद प्राप्त हुआ, जब उनके सोचने का नज़रिया बदल कर देशप्रेम और स्वराज की और मुखातिब हुआ। 

 

गाँधी जी के व्यक्तित्व और आदर्शों से प्रभावित सरोजिनी नायडू ने समय-समय पर भारत के स्वाधीनता संग्राम की अगुआई की और कई दफ़े गाँधीजी के स्थान पर कुशल नेतृत्व करते हुए अपनी राजनैतिक दक्षता का परिचय दिया। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की भर्त्सना करते हुए उन्होंने अपना “केसर-ए-हिन्द” का ख़िताब लौटा दिया था और 1920 में, लन्दन में एक समूह को संबोधित करते हुए कहा था, “No nation that rules by tyranny is free. It is the slave of its own despotism.”   


सरोजिनी नायडू की सक्रियता और बढ़ती लोकप्रियता अमेरिका तक महसूस की गयी। न्यू यॉर्क टाइम्स मैगज़ीन की 14 फ़रवरी, 1926, अंक में सरोजिनी पर एक समूचे पृष्ठ का आलेख “अ जॉनऑफ़ आर्क राइजेज़ टू इन्सपायर इण्डिया” शीर्षक से प्रकाशित हुई। 1928 में गाँधीजी की प्रतिनिधि बनकर सरोजिनी न्यू यॉर्क आयीं और अपने उद्बोधन से अमेरिका को भारतीय परंपरा, भारतीय विचारधारा तथा भारतीयता के मायने बतलाये। अमेरिकी अखबार उनकी तारीफों से पट गए और उन्हें “ज्वेल फ्रॉम द ईस्ट” की संज्ञा दी। 


गाँधी जी की डांडी यात्रा में वे कंधे-से-कंधा मिलाकर चलीं और गाँधीजी के जेल जाने के बाद कमान अपने हाथों में ले एक ओजस्वी नेतृत्व का परिचय दिया। उनका साहस, सच बोलने की ताकत और अपनी बात पर टिके रहने की ज़िद उन्हें एक सशक्त व्यक्तित्व की मालकिन और हज़ारों भारतीयों के लिए सम्माननीय बनाता था। वे न सिर्फ भारतवासियों को आज़ाद भारत के स्वप्न देखने को प्रेरित करती थीं, बल्कि अंग्रेज़ी हुकूमत की जमकर भर्त्सना और उनके अनुचित क़दमों के लिए खुलकर विरोध भी करती रहीं। 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के साथ ही वे काँग्रेस पार्टी की पहली महिला उम्मीदवार के रूप में उत्तर प्रदेश प्रेसिडेंसी की पहली महिला गवर्नर बनीं। आज़ाद हिन्द के लिए अभी बहुत काम होने थे और वे तत्परता से अपनी इस नई और महत्वपूर्ण भूमिका में लगी रहीं। किन्तु स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया और 2 मार्च 1949 को अपने कानपुर कार्यालय (गवर्नर हाउस) में ही हृदयाघात से उनकी मृत्यु हो गयी। जीवन के अन्तिम क्षण तक तक कार्य में लीन इस वीरांगना का जीवन प्रत्येक भारतीय के लिए एक प्रेरणास्रोत है। 


- दीपा लाभ 

भारतीय संस्कृति की अध्येता

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