कहने को तो नेता जनता की, यानी हम-आप जैसे नाचीजों के सेवक है लेकिन धुलाई यानी टैक्स वसूली पर उतर आए तो अच्छे-अच्छों के ‘आमदनी’ छीन लेती है। आम आदमी नेता के चक्कर में नहीं पड़े तभी तक वह ऑल राइट है, नेता जी से मिलने के बाद एक बार आम आदमी की धोती खुल नहीं गई तो नेता जी भी अपने धंधे के पक्के नहीं। अपना नाम बदल लेंगे। अपने स्थानीय पार्षद जी को ही लो, एक जमाने में नाम कमाने के लिए अपने नाखून कटाकर खूद को देशभक्त साबित करने में लगे थे। वह तो भला हो उस सीनियर नेता का जिसने उन्हें नेता बनने की परिभाषा सिखाई। फिर क्या था। वे कहाँ रुकने वाले थे। चुनाव लड़ने की चुल जो मची थी। देखते ही देखते दिन दूनी रात चौगुनी की तरह छोटी-मोटी वसूली, मारपीट, रेप-वेप, गुण्डई-लफंगई जैसी पवित्र जनसेवा करने लगे और रातों रात उनका नाम पूरे इलाके में गूँजने लगा। जब वे पार्षद से विधायक हो गए तो उन्होंने लूटने के पावनकांड में बढ़चढ़कर हिस्सा लेने लगे। पहले भोजन करते थे अब जमीन खाने लगे। पहले पानी पीते थे अब लोगों का खून पीने लगे। पहले अंदर से नौटंकी करते थे, अब बाहर से भी नौटंकी करने लगे हैं। कुल मिलाकर गजब का बदलाव आया है।
अब वे प्योर नेता बन गए हैं। आम आदमी भूख से मर जाए, वे चूँ तक नहीं करते। बल्कि इतने ढीठ हो गए हैं कि मरे हुए आदमी से भी वोट माँगने उसके द्वार चले जाते हैं। कोई उनसे कह दे कि फलां आदमी आँख के ऊपर साँप के डँसने से मर गया है, तो वे सहानुभूति में कहते– अच्छा हुआ साँप थोड़ा नीचे काटता तो उसकी आँख ही चली जाती। अब भला नेता जी को कौन समझाए कि मरे हुए के लिए आँख हो या न हो क्या फर्क पड़ता है। नेता जी से मजबूरी यह थी की वे पढ़े लिखे थे। एक बार अनपढ़ गंवार नेता से बचा जा सकता है, लेकिन पढ़े-लिखे नेता से बिल्कुल नहीं। होते तो दोनों साँप हैं। किंतु जो अनपढ़ है वह उतना विषैला नहीं होता जितना पढ़ा-लिखा नेता होता है। उसके पास धूर्तता, चालाकी, ढीठता और स्मार्टियत का डोज़ अतिरिक्त होता है।
धोखाधड़ी के लिए नेता जी को बहुत परिश्रम करना पड़ता है। लेकिन पारदर्शिता और स्पष्टता के मामले में उनका कोई हाथ नहीं पकड़ सकता है। अपने इलाके में उन्होंने बड़े-बड़े अक्षरों में, मर्यादापूर्वक साफ-साफ लिखवा रखा है कि ‘हम आपकी सेवा में हैं। आपकी सेवा ही हमारे लिए मेवा है’। स्वाभाविक है कि अघोषित लूटने के अधिकार के तहत मेवा प्राप्ति के आंकड़े आम आदमी के अलावा शासन और राजनीति के सम्मानार्थ सार्वजनिक नहीं किए जा सकते थे। लेकिन फिर भी आम आदमी का तजुरबा इतना पक्का रहा है कि चुनाव होने के दो-चार महीनों में ही वे जान जाते थे कि नेता जी ऊपर से लूट रहे हैं या भीतर से। आगे से लूट रहे हैं कि पीछे से। ऊपर से लूटने वाले जरा भगवान टाइप के नेता होते हैं। एक बार कोई इनके हाथ में आ जाए तो उसकी धोती उतरवाकर बाकायदा उसका अंगोछा बना देते हैं। भीतर से लूटने वाले नेता जरा ‘भगत टाइप’ होते हैं, धोती ऐसे उतरवाते हैं जैसे श्रद्धालू आरती में ताली मार रहा हो। आम आदमी को को ऊपर से लूटने वाले नेता मुफीद पड़ते है, वो धोती उतरवाते समय बड़ी इज्जत के साथ उसका गमछा बनाकर कम से कम थोड़ा बहुत लौटा देते हैं। वे भीतर से लूटने वाले नेता जी की एकदम नंगा करने वाले नहीं होते हैं।
जो भी हो सब कुछ पा लेने के बाद हर चिंदी नेता प्रसिद्ध भी होना चाहता है। भाग्य का खेल है जिसमें गोटी होती है न पासे। लेकिन यह भी सही है कि नंगे के नौ ग्रह बलवान होते हैं। नेता जी के मामले में तो किसी को शक होना ही नहीं चाहिए, वे स्वयं दसवें ग्रह हैं। उनके मन में कोई बात आ जाए तो पूरी होना ही है। ऐसा आदमी मंच पर बैठ कर आराम से सांस भी ले तो आती को अनुलोम और जाती को विलोम कह कर लोग वाह वाह करते हैं। नेता जी को इधर काफी स्कोप दिख रहा है इनदिनों। इसकी टोपी उसके सर और उसकी टोपी इसके सर सरीके विलोम के तो वे मास्टर हैं ही, सोचा कि आधी कला तो आती है, आधी ही आजमा लें तो मतदाता भेड़ों की तरह आ गिरेंगे। वैसे भी इस देश में भेड़ों की कमी थोड़े न है।
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)