By अभिनय आकाश | Jul 23, 2024
नजरें जितनी नजदीक तक जाती हैं उतनी ही तरेरती भी है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को लेकर हमेशा से विरोधियों के द्वारा सवाल उठाए जाते रहे हैं। ये कांग्रेस और पूरे विपक्ष के लिए फेक नैरेटिव सेट करने वाला फेवरेट सब्जेक्ट रहा है। संघ पर बोलने का कोई मौका मिल जाए तो पूरा विपक्ष एकजुट होकर एक ही भाषा में बोलने लग जाता है। लोकसभा चुनाव के बाद से बीजेपी और आरएसएस को लेकर बहुत सारी बातें हो रही है। कांग्रेस और इंडिया गठबंधन की तरफ से ये नैरेटिव सेट करने की कोशिश की जा रही है कि बीजेपी और आरएसएस के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। हाल ही में आपने ये दावे कई लोगों के मुंह से सुने होंगे की सहयोगियों के सहारे सरकार चला रहे नरेंद्र मोदी कमजोर प्रधानमंत्री हो गए हैं। मोहन भागवत ने लोककल्याण मार्ग पर मिसाइल चला दी है। लेकिन इन दोनों एजेंडों को मोदी के आरएसएस कार्ड से सीधा जवाब मिला है। आरएसएस को लेकर पहले ऐसे किसी फैसले में नरेंद्र मोदी सरकार ने 58 साल से सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस गतिविधियों में भाग लेने पर लगा बैन हटा दिया है। इस पर हंगामा मचना तय था और हुआ भी कुछ ऐसा ही। कहा जाने लगा कि मोदी विचारधारा के आधार पर सरकारी दफ्तरों का राजनीतिकरण कर रहे हैं। कर्मचारियों की निष्पक्षता और संविधान की सुप्रीमेसी खत्म हो जाएगी। कहा जाने लगा कि संविधान बदलने का इरादा कामयाब नहीं हुआ तो संस्थानों पर कब्जे की तैयारी हो रही है। ऐसे में चर्चा ये है कि नरेंद्र मोदी का आरएसएस कार्ड किसको संदेश दे रहा है। क्या मोहन भागवत के दबाव में आने के विपक्ष के दावे में दम है या फिर ये राहुल गांधी को मोदी का जवाब है। 58 साल पहले ये बैन लगा क्यों और मोदी सरकार ने इसे अब क्यों हटाया? सारे सवालों का एमआरआई स्कैन करेंगे।
क्या हिंदुओं को दबाने के लिए इंदिरा सरकार ने बैन लगाया था
आपको सबसे पहले 58 साल पहले के उस आदेश के बारे में बताते हैं जिसके जरिए इंदिरा गांधी की सरकार ने आरएसएस के कार्यक्रम में सरकारी कर्मचारियों के शामिल होने पर बैन लगाया था। नवंबर 1966 को इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस वाला ये बैन लगाया था उसके पहले 7 नवंबर को गौ हत्या वध पर कानून बनाने की मांग को लेकर आरएसएस समर्थित आंदोलन को पुलिस की गोलियों से कुचला गया था। कई साधु संत इस गोलीबारी में मारे गए थे। बीजेपी आईटी सेल के चीफ अमित मालवीय के अनुसार जनसंघ आरएसएस के प्रभाव से हिल गई। इंदिरा गाधी ने सरकारी कर्माचरियों पर आरएसएस में शामिल होने पर रोक लगा दी। इंदिरा गांधी ने सिविल सेवा आचरण नियम 1964 का हवाला देते हुए सरकारी कर्मचारियों के संघ के कार्यक्रम में जाने पर बैन लगा दिया। दलील ये दी गई कि आरएसएस राजनीतिक रूप से प्रभावित है। आरएसएस की तरफ से कर्मचारियों की तटस्थता प्रभावित हो सकती है।
सर्कुलरों में क्या कहा गया?
30 नवंबर, 1966 को गृह मंत्रालय (डीओपीटी 1998 तक इसका हिस्सा था) ने एक परिपत्र जारी करते हुए कहा था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरकारी कर्मचारियों द्वारा जमात-ए-इस्लामी की सदस्यता या गतिविधियों में किसी भी भागीदारी के संबंध में सरकार की नीति के बारे में कुछ संदेह उठाए गए हैं। सरकार ने हमेशा इन दोनों संगठनों की गतिविधियों को ऐसी प्रकृति का माना है कि सरकारी कर्मचारियों द्वारा उनमें भाग लेने पर केंद्र के नियम 5 के उप-नियम (1) के सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 प्रावधान लागू होंगे। परिपत्र में कहा गया कोई भी सरकारी कर्मचारी, जो उपरोक्त संगठनों या उनकी गतिविधियों का सदस्य है या अन्यथा जुड़ा हुआ है, अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए उत्तरदायी है। 1964 के नियमों का नियम 5 राजनीति और चुनावों में भाग लेने के बारे में है। नियम 5(1) कहता है: कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक दल या राजनीति में भाग लेने वाले किसी भी संगठन का सदस्य नहीं होगा। अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968, जो आईएएस, आईपीएस और भारतीय वन सेवा के अधिकारियों पर लागू होते हैं।
मोदी सरकार ने अपने आदेश में क्या कहा
केंद्र सरकार के मानव संसाधनों का प्रबंधन करने वाली डीओपीटी ने 9 जुलाई के आदेश में कहा गया है कि निर्देशों की समीक्षा की गई है और यह फैसला लिया गया है कि 30 नवंबर 1966, 25 जुलाई 1970 और 28 अक्टूबर 1980 के संबंधित कार्यालय ज्ञापनों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जिक्र हटा दिया जाए। इसका मतलब है कि सरकारी कर्मचारी अब आरएसएस की गतिविधियों में हिस्सा ले सकते हैं।
पहली बार किसी सरकार ने आरएसएस का राजनीतिक टैग हटा दिया?
ये तीनों सर्कुलर तब जारी किए गए थे जब इंदिरा पीएम थीं। हालाँकि, सभी सरकारों का आरएसएस के प्रति एक ही दृष्टिकोण रहा है। 1980 और 90 के दशक में जब राजीव गांधी, पी वी नरसिम्हा राव और राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा सरकारें सत्ता में थीं, 1966, 1970 और 1980 के परिपत्र लागू रहे। यह स्थिति तब नहीं बदली जब अटल बिहारी वाजपेयी, जो स्वयं एक स्वयंसेवक थे, 1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री थे। यही नीति 2014 से 9 जुलाई तक नरेंद्र मोदी सरकार के 10 वर्षों तक जारी रही।
इन नियमों के प्रति आरएसएस का क्या रुख रहा है?
आरएसएस, जो खुद को एक गैर-राजनीतिक, सांस्कृतिक संगठन बताता है, ने बार-बार कहा है कि उसकी गतिविधियाँ ऐसे प्रतिबंधों से प्रभावित नहीं होती हैं। संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले एक सांसद ने कहा कि पहले भी सरकारी कर्मचारी संघ की गतिविधियों में भाग ले रहे थे क्योंकि एक सांस्कृतिक संगठन है जो समाज के यह लिए काम करकृतिक संगठन कहा है कि ऑन पेपर्स ले लिया भी वह पुराना फैसला वापस के है। संघ के एक प्रचारक क ने कहा गया कि संघ कोई राजनीतिक संगठन नहीं है जो इसका कोई सदस्य हो। संघ में कोई मेंबर नहीं होता, संघ किसी को मच्ची काटकर सदस्य नहीं बनाता और न ही मेंबरशिप का कोई रजिस्टर होता है।
क्या 9 जुलाई का सर्कुलर राज्य सरकार के कर्मचारियों पर भी लागू होता है?
यह सर्कुलर केवल केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए है। राज्य सरकारों के पास अपने कर्मचारियों के लिए अपने स्वयं के आचरण नियम हैं, और समय-समय पर ऐसे निर्देश जारी करते हैं। कौन सी पार्टी सत्ता में है, इसके आधार पर कुछ राज्य सरकारों के विचार बदल गए हैं।
हिमाचल प्रदेश में पी के धूमल की भाजपा सरकार ने 24 जनवरी, 2008 को अपने कर्मचारियों पर आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने से प्रतिबंध वापस ले लिया।
मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की कांग्रेस सरकार ने 2003 में कर्मचारियों पर प्रतिबंध लगाए। हालाँकि, शिवराज सिंह चौहान की भाजपा सरकार ने 21 अगस्त 2006 को एक स्पष्टीकरण जारी किया, जिसमें कहा गया कि प्रतिबंध आरएसएस पर लागू नहीं हैं।
फरवरी 2015 में छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की भाजपा सरकार ने एक परिपत्र जारी कर कहा कि सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
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