हिमाचल प्रदेश में आज धूमधाम से मनाया जा रहा है सायर त्यौहार

By विजयेन्दर शर्मा | Sep 16, 2021

शिमला।  हिमाचल प्रदेश के तीज त्यौहारों में से एक सैर उत्सव या सायर त्यौहार अश्विन महीने की सक्रांति को मनाया जाता है।यह त्यौहार वर्षा ऋतु के खत्म होने और शरद् ऋतु के शुरू होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। इस समय खरीफ की फसलें पक जाती हैं और काटने का समय होता है, तो भगवान को धन्यवाद करने के लिए यह त्यौहार मनाया जाता हैं। इस के बाद ही खरीफ की फसलों की कटाई की जाती है। इस दिन “सैरी माता” को फसलों का अंश और मौसमी फल चढाए जाते हैं और साथ ही राखियाँ भी उतार कर सैरी माता को चढ़ाई जाती हैं।

 

 

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ठंडे इलाकों में इसे सर्दी की शुरूआत माना जाता है और सर्दी की तैयारी शुरू हो जाती है। लोग सर्दियों के लिए अनाज और लकड़ियाँ जमा करके रख लेते हैं। सैर आते ही बहुत से त्यौहारों का आगाज़ हो जाता है। सैर के बाद दिवाली तक विभिन्न व्रत और त्यौहार मनाए जाते हैं। इस उत्सव को मनाने के पीछे एक धारणा यह है कि प्राचीन समय में बरसात के मौसम में लोग दवाईयां उपलब्ध न होने के कारण कई बीमारियों व प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो जाते थे तथा जो लोग बच जाते थे वे अपने आप को भाग्यशाली समझते थे तथा बरसात के बाद पड़ने वाले इस उत्सव को ख़ुशी ख़ुशी मनाते थे। तब से लेकर आज तक इस उत्सव को बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। 

 

 

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सायर का पर्व अनाज पूजा और बैलों की खरीद-फरोख्त के लिए मशहूर है। कृषि से जुड़ा यह पर्व ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं, बल्कि शहरों में भी धूमधाम के साथ  मनाया जाता है। बरसात के मौसम के बाद खेतों में फसलों के पकने और सर्दियों के लिए चारे की व्यवस्था किसान और पशु पालक सायर के त्योहार के बाद ही करते हैं। सायर का त्योहार बरसात की समाप्ति का भी सूचक माना जाता है।

 

 

 

 

इस दिन भादों महीने का अंत होता है। भादों महीने के दौरान देवी-देवता डायनों से युद्ध लड़ने देवालयों से चले जाते हैं। वे सायर के दिन वापस अपने देवालयों में आ जाते हैं। इस दिन ग्रामीण क्षेत्रों के देवालयों में देवी-देवता के गूर देव खेल के माध्यम से लोगों को देव-डायन युद्ध का हाल बताते हैं और यह भी बताते हैं कि इसमें किस पक्ष की विजय हुई है। वहीं  बरसात के मौसम में किस घर के प्राणी पर बुरी आत्माओं का साया पड़ा है। देवता का गूर इसके उपचार के बारे में भी बताता है। सायर के दिन ही नव दुल्हनें मायके से ससुराल लौट आती हैं। ऐसी मान्यता है कि भादों महीने के दौरान विवाह के पहले साल दुल्हन सास का मुंह नहीं देखती है। ऐसे में वह एक महीने के लिए अपने मायके चली जाती है।

 

 

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सैर मनाने का तरीका हर क्षेत्र का अलग-अलग है। जहां एक तरफ कुल्लू, मंडी,कांगड़ा आदि क्षेत्रों में सैर एक पारिवारिक त्यौहार के रूप में मनाई जाती है वहीं शिमला और सोलन में इसे सामूहिक तौर पर मनाया जाता है।  सायर के त्योहार के दौरान अखरोट खेलने की परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी है। गली चौराहे या फिर घर के आंगन के कोने पर इस खेल को खेला जाता है। इसमें खिलाड़ी जमीन पर बिखरे अखरोटों को दूर से निशाना लगाते हैं। अगर निशाना सही लगे तो अखरोट निशाना लगाने वाले के होते हैं। इस तरह यह खेल बच्चों, बूढ़े और नौजवानों में खासा लोकप्रिय है। 

 

 

 

 

हिमाचल की कथाओ के  अनुसार  लोहड़ी और सैर  दो  सगी बहने  थी , सैर  की शादी  गरीब घर में हुई , इसलिए  उसे सितेम्बर  महीने में मनाते है और उसके पकवान स्वादिस्ट तो होते है लेकिन अधिक महंगे नही होते , जबकि लोहड़ी  की शादी अमीर घर में हुई थी , इसलिए शायद  देसी घी ,चिवड़ा , मूंगफली ,खिचड़ी आदि के  कई मिठाईयों के साथ  इस त्यौहार  को  खूब धूमधाम  से  मनाया  जाता है जिसकी शुरुआत  एक महिना पहले ही लुकड़ीयो के साथ हो  जाती है

 

 

 

 

कांगड़ा, हमीरपुर और बिलासपुर में भी सैर मनाने का अलग प्रचलन है। सैर की पूजा के लिए एक दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर दी जाती है और पूजा की थाली रात को ही सजा दी जाती है। हर सीज़न की फसलों का अंश थाली में सजाया जाता है।

उसके लिए गेहूँ को थाली में फैला दिया जाता है और उसके ऊपर मक्का, धान की बालियां, खीरा, अमरूद,गलगल आदि ऋतु फल रखे जाते हैं। हर फल के साथ उसके पत्ते भी पूजा में रखना शुभ माना जाता है। पहले समय में सैर वाले दिन गांव का नाई सुबह होने से पहले हर घर में सैरी माता की मूर्ति के साथ जाता था और लोग उसे अनाज, पैसै और सुहागी चढावे के रूप में देते थे। हालांकि अब त्यौहारों और उत्सवों को उस रूप में नहीं मनाया जाता है जिस तरह से पुराने लोग मनाते थे, परन्तु फिर भी गांवों में अभी भी लोगो ने बहुत हद तक परंपराओं को संजोकर रखा हुआ है। अब लोग सैरी माता की जगह गणेशजी की मूर्ति की पूजा करते हैं और अब नाई लोगों के घर नहीं जाते हैं

 

 

 

 

दिन में छः-सात पकवान बनाए जाते हैं जिनमें पतरोड़े, पकोड़ू और भटूरू जरूर होते हैं। इसके अलावा खीर, गुलगुले, चिलड़ू आदि पकवान भी बनाए जाते हैं। ये पकवान एक थाली में सजाकर आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में बांटे जाते हैं और उनके घर से भी पकवान लिए जाते हैं। अगले दिन धान के खेतों में गलगल फेंके जाते हैं और अगले वर्ष अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती है।

 

 

 

 

यह त्यौहार एक तरह से बरसात में बारिश के कारण एक-दूसरे से न मिल पाने के कारण मिलने का बहाना भी हो जाता है। जो लड़कियाँ “काला महीना” यानि भादों में अपने मायके आई होती हैं वो वापिस अपने ससुराल चली जाती हैं। ये छोटे-छोटे त्यौहार और उत्सव लोगों को आपस में जोड़े रखते हैं और समय-समय पर मिलने का एक अच्छा बहाना भी है। आशा है हमारी ये परंपराएं ऐसे ही चलती रहें और लोग यूं ही हर्षोल्लास के साथ त्यौहार मनाते रहें।


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