By सुखी भारती | May 20, 2021
बालि ने देह क्या त्यागी चारों दिशायों में पीड़ा व उदासी का मातम्मय वातावरण पसर गया। बालि के प्रति प्रत्येक जनमानस के हृदय में कभी क्रोध के अंगार सुलगते थे। किंतु श्रीराम जी ने बालि का पक्ष क्या लिया, समस्त हृदयों ने उसे सहर्ष भक्त स्वीकार कर लिया। कहीं कोई द्वेष भाव से पीड़ित नहीं था। मृत्यु के पश्चात बालि संसार को एक और गहन संदेश दे गया, कि क्यों जीवन पर्यन्त यह आशा पालनी कि जगत मुझे स्वीकार करे, मेरा प्रभुत्व माने। क्योंकि संसार ने शत प्रतिशत प्रभुता तो कभी प्रभु की भी स्वीकार नहीं की, फिर भला साधारण जीव की क्या हस्ती है? किंतु अगर हमें प्रभु स्वीकार कर लें तो कमाल यह है कि समस्त दिशायों में उसकी प्रभुता तो वैसे ही व्याप्त हो जाती है। हम स्वयं अपने बल व सामर्थ्य के आधार पर लाख आगे बढ़ना चाहें लेकिन सफलता हाथ नहीं लगती। वहीं अगर श्रीराम जी हमें बढ़ाना चाहें तो दुनिया की कोई शक्ति इसे नहीं रोक सकती। बालि अपने जीवन चरित्र से यही तो संदेश देना चाहता है कि देखो मैंने यह कर दिखाया, और हे जगत वासियों! अब आपकी बारी है।
बालि का संसार से कूच होना वैसे तो प्रभु के संग-संग सभी के लिए हृदय विदारक था, किंतु बालि की पत्नी तारा इस आघातर्पूण घटना से विशेष रूप से पीड़ित थी। जैसे ही उसने बालि वध का समाचार सुना वह चीत्कार कर उठी। उसकी हृदय विदारक चिंघाड़ें आँसमां का सीना भी छलनी कर रही थीं। तारा ने अपनी चूड़ियाँ धरती पर पटक कर तोड़ दीं। माँग से सिंदूर पोंछ डाला। तारा की वाणी ने ‘हाय-हाय’ के विलाप को यूँ अंगीकार किया मानो किसी सघन वृक्ष ने अमर बेल को अंगीकार कर रखा हो। तारा की पीड़ादायक स्थिति, पीड़ा का गहन स्रोत हो चुकी थी। तारा को अपने वस्त्रों के अस्त-व्यस्त होने की कोई सुधि नहीं थी। उसके केश बिखर कर मानों दिशा भ्रमित होकर यहाँ-तहाँ भटक रहे हैं। उसे अपने तन की कोई सुधि नहीं रही। नयन अश्रुयों की बाढ़ में डूब चुके हैं। भयंकर क्रन्दन की कंटीली तार से तार-तार हुई तारा मृत बालि से लिपट गई-
‘नाना बिधि बिलाप कर तारा।
छूटे केस न देह सँभारा।।’
उसे कोई भान नहीं कि उसके पास ही सृष्टि के रचयिता श्रीराम जी भी खड़े हैं। यह स्थिति संसार में मात्र तारा की ही नहीं है, अपितु जिसे भी मोह का दंश लगा है, वह प्रत्येक जीव इसके द्वारा पीड़ित है। मोह की कालिमा में उसे साक्षात सामने खड़े ईश्वर भी दिखाई नहीं देते। लेकिन जिससे मोह है, उसका अक्स अवश्य बढ़ चढ़कर दिखाई देता है, फिर भले ही वह मृत ही क्यों न हो। मोही व्यक्ति मृत देह को इस प्रकार से देखता है, मानों वह अभी उठ खड़ा होगा और उससे बातें करने लगेगा। व्यक्ति अपनी आंखें भी झपकाने में डरता है, कि कहीं मैं आँख झपकाने में मस्त हो जाऊँ मेरा प्रिय उठ भी खड़ा हो, और मैं इसके दर्शनों से वंचित रह जाऊँ। मोही व्यक्ति को कितना ही समय तो यह विश्वास ही नहीं होता, कि उसका प्रियजन भी यह जगत छोड़कर जा सकता है। तारा बालि के मृत शरीर को झकझोर रही है, उससे लिपट झिपट रही है। काल को उलाहना दे रही है, कि क्यों तुम रास्ता भूल गये जो मेरे घर की राह पकड़ बैठे। क्या तुम्हें नहीं पता था कि यह डगर तो बालि के आवास को जाती है। जहाँ आकर कलिकाल भी विवश होकर लौट जाता है। और तुम हो कि तब भी दौड़े चले आये। तुम्हें किंचित भी भय नहीं लगा, कि इसका क्या परिणाम निकल सकता है? तुम्हें इतना तो ज्ञान होना ही चाहिए था कि जो राह बालि के महलों को जाती है उस पर तो स्वप्न में भी कदम नहीं रखने चाहिए थे, लेकिन तुमने यह दुस्साहस किया। निश्चित ही तुम्हारा यह अपराध अक्षम्य है।
बेचारी तारा दुःख सागर में डूबी कुछ का कुछ बोले जा रही थी। उसे यह भान ही भूल गया था, कि पगली निश्चित ही काल की क्या हिम्मत कि तेरे यहाँ काल फटक भी पाये। किंतु तू देख ही नहीं पा रही, कि बालि वध हेतु यहाँ कोई काल नहीं आया, अपितु यहाँ कालों के काल साक्षात महाकाल की पद्चाप हुई है। उन्हें किसी ड़गर पर चलने से पहले, किसी की आज्ञा की आवश्यक्ता नहीं होती, अपितु पथ स्वयं ही प्रार्थना रत रहता है कि हे प्रभु! मैं अस्तित्व में आऊँ अथवा नहीं, बालि की मृतक देह तो पुकार-पुकार कर यह कह रही है कि न तारा देख मैं भी तो कितना शांत व स्थिर हुआ बैठा हूँ। क्योंकि श्रीराम जी ने मेरा कोई अहित थोड़ा न किया है। भला उन्हें क्या पड़ी थी, कि वे स्वयं चलकर मेरा वध करने आते। वे तो मात्र संकल्प उदय से ही मुझे मार सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐेसे नहीं किया। अपितु मेरी छाती बाण से भेदकर अपने-पराये का भेद ही समाप्त कर दिया। ऐसा नहीं है कि श्रीराम जी का बाण सदा प्राण ही हरण करता है। अपितु मुझ जैसे प्राणहीन हृदय धारक जीव में भी श्रीराम प्राण फूँक सकते हैं, ऐसा श्रीराम जी के संदर्भ में ही हो सकता है। हे तारा! तू भले नहीं देख पा रही, लेकिन मैं प्रत्यक्ष देख पा रहा हूँ, वह यह कि श्रीराम जी ने मुझे अधर्म गति में नहीं धकेला, अपितु परम्गति प्रदान की है। वह परम गति जिसके लिए बड़े से बड़े ऋर्षि मुनि भी सदैव ललायत रहते हैं। मुझे यश मिले, इसके लिए प्रभु ने स्वयं के लिए अपयश स्वीकार कर लिया। क्योंकि मुझे पता है कि भविष्य के तथाकथित विद्वान अवश्य ही श्रीराम जी को अर्थहीन प्रश्नों के घेरे में रखने का कुप्रयास करेंगे। वे यह नहीं देखेंगे कि श्रीराम जी ही हैं, जिनकी महती कृपा से मैं आज परम को प्राप्त हो रहा हूँ।
खैर! अज्ञानता की तो कभी कोई सीमा ही नहीं रहती। उनके मिथ्या भ्रम, ब्रह्म के संकल्प को थोड़ी न टाल सकते हैं? मृत देह से बालि भले ही तारा को समझाने हेतु एड़ी-चोटी का प्रयास कर रहा था। लेकिन अफसोस तारा के मोह की तंद्रा टूट ही नहीं रही थी। तारा के विलाप का तो कोई ओर-छोर ही समझ नहीं आ रहा था। श्रीराम जी के श्रीमुख से अभी तक कोई शब्द प्रवाह नहीं हुआ था। मानो वे भी तारा को समझाने का कोई सिरा ढूंढ़ रहे थे।
क्या श्रीराम जी तारा को समझाते हैं अथवा नहीं? जानेंगे अगले अंक में---क्रमशः---जय श्रीराम!
-सुखी भारती