रस्म बनकर रह गया मजदूर दिवस, बड़े बड़े भाषणों से कुछ नहीं होगा

By रमेश सर्राफ धमोरा | Apr 29, 2017

दुनिया भर में प्रतिवर्ष 1 मई को मजदूर दिवस अथवा अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसे मई दिवस भी कहा जाता है। मई दिवस समाज के उस वर्ग के नाम किया गया है, जिसके कंधों पर सही मायनों में विश्व की उन्नति का दारोमदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्रीय हितों को पूरा करने का प्रमुख भार इसी वर्ग के कंधों पर होता है। यह मजदूर वर्ग ही है, जो हाड़ तोड़ मेहनत के बलबूते पर राष्ट्र के प्रगति चक्र को तेजी से घुमाता है लेकिन कर्म को ही पूजा समझने वाला श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। 

मई दिवस के अवसर पर देशभर में बड़ी-बड़ी सभाएं होती हैं, बड़े-बड़े सेमीनार आयोजित किए जाते हैं, जिनमें मजदूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती हैं और ढेर सारे लुभावने वायदे किए जाते हैं। सरकार समाचार पत्रों में मजदूरों के हित की योजनाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है जिन्हें देख सुनकर एक बार तो यही लगता है कि मजदूरों के लिए अब कोई समस्या ही बाकी नहीं रहेगी। लोग इन खोखली घोषणाओं पर तालियां पीटकर अपने घर लौट जाते हैं किन्तु अगले ही दिन मजदूरों को पुन: उसी माहौल से रूबरू होना पड़ता है, फिर वही शोषण, अपमान व जिल्लत भरा तथा गुलामी जैसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है। 

 

मजदूरों के आत्म सम्मान का दिवस कहे जाने वाले इस दिन को लेकर इस तबके में कोई खास उत्साह, जोश और जुनून नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों को उत्साह से दूर कर दिया है। मसलन अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ रस्म बनकर रह गया है। आलम यह है कि दो जून की रोटी, एक अदद छत और बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने संजोकर पराए प्रदेश में आकर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद तिल-तिल सिसकती जिंदगी जी रहे इन मेहनतकश मजदूरों के लिए अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जैसे आयोजन कोई मायने नहीं रखते। 

 

मेहनतकश मजदूरों को उचित पारिश्रमिक दिलाने और उनके आर्थिक, सामाजिक हक दिलाने व उनके योगदान को मान्यता देने के लिए पूरी दुनिया में हर साल पहली मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन वैश्वीकरण और मुनाफे की अंधी दौड़ में मजदूरों का शोषण आज भी जारी है। प्रतिदिन आठ घंटे और सप्ताह में 40 घंटे कामकाज, उचित पारिश्रमिक और बेहतर माहौल जैसी मांगों को लेकर शुरू हुआ मजूदरों का संघर्ष आज भी जारी है। यही वजह रही है कि मजदूर दिवस जैसे आयोजन अब इस तबके को बेमानी से लगने लगे हैं।  

 

यह तबका जानता है कि इस दिन हर साल की तरह मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए दावे किए जाएंगे और दलीलें दी जाएंगी, लेकिन साल भर जब यह तबका नौकरी के लिए संघर्ष करता है, या नौकरी मिल जाए तो पगार लेने के लिए जद्दोजहद और फिर कम पगार में घर चलाने की चुनौतियों से जुझता है, तो कोई भी संगठन सही मायने में इनके लिए आगे नहीं आता। यहां का मजदूर एक अदद छत, उचित वेतन व अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गुजर-बसर करने को मजबूर है। 

 

मजदूर दिवस यानि मजदूरों का दिन। कहने और सुनने में कितना सुकून देता है ये शब्द लेकिन इस शब्द के मायने, शायद उन मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं जिनके नाम पर इसे दुनिया में मनाया जा रहा है वो बेचारे तो इस दिन भी अपनी रोजी रोजी के लिए कमर तोड़ रहे होते हैं। पसीना बहा रहे होते हैं, यदि नहीं बहाएंगे तो रात को उनका परिवार भूखा ही सोयेगा। फिर कैसा मजदूर दिवस, किसका मजदूर दिवस। दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर के लिए पेट और परिवार की मजबूरी में हर दिवस छोटा होता है। उसे तो दो जून की रोटी मिल जाए मानो सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने साल में भले ही बहुत कुछ बदला हो, लेकिन मजदूरों के हालात नहीं बदले तो फिर कैसे मनायें मजदूर दिवस।

 

कैसे बदले हाल कैसे बदले दशा और दिशा। मजदूरों का ना सामाजिक स्तर बदला, ना शिक्षा का स्तर बदला, जिंदगी कल और आज इसी ढर्रे पर चल रही है। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील सिपाही का बेटा सिपाही तो क्या मजदूर के बच्चे मजदूर ही रहेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते इस श्रमिक वर्ग के लिए इस मजदूर दिवस की कितनी उपयोगिता है इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है और यह भी स्पष्ट है कि पूंजीवादी बाजार और सत्ता इस मजदूर दिवस को कितना महत्व देते हैं। 

 

देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। कोई ऐसे मजदूरों से पूछकर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं? जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो, जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हों, उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? सबसे बदतर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। बच्चों व महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से तो शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है, लेकिन अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन बेचारों की जैसे नियति ही बन जाती है।

 

जहां तक मजदूरों द्वारा अपने अधिकारों की मांग का सवाल है तो मजदूरों के संगठित क्षेत्र द्वारा ऐसी मांगों पर उन्हें अक्सर कारखानों के मालिकों की मनमानी और तालाबंदी का शिकार होना पड़ता है। सरकार कारखानों के मालिकों के मनमाने रवैये पर कभी भी कोई लगाम लगाने की चेष्टा इसलिए नहीं करती क्योंकि चुनाव का दौर गुजरने के बाद उसे मजदूरों से तो कुछ मिलने वाला होता नहीं, हां, चुनाव फंड के नाम पर सब राजनीतिक दलों को मोटी-मोटी थैलियां कारखानों के इन्हीं मालिकों से ही मिलनी होती हैं। 

 

जहां तक मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा मजदूरों के हित में आवाज उठाने की बात है तो आज के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियनों के नेता भी भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बने हैं, जो विभिन्न मंचों पर श्रमिकों के हितों के नाम पर गला फाड़ते नजर आते हैं लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु कारखानों के मालिकों से सांठगांठ कर अपने ही मजदूर भाईयों के हितों पर कुल्हाड़ी चलाने में संकोच नहीं करते। देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैलते जाल से भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर वैसे ही संकट मंडरा रहा है और ऐसे में मजदूरों के लिए रोजी-रोटी की तलाश का संकट और भी विकराल होता जा रहा है। 

 

महात्मा गांधी ने कहा था कि किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति स्वयं को मालिक या प्रबंधक समझने की बजाय अपने-आप को ट्रस्टी समझे। लोकराजी ढांचों में तो सरकार भी लोगों की तरफ से चुनी जाती है जो राजनीतिक लोगों को अपने देश की बागडोर ट्रस्टी के रूप में सौंपते हैं। जो मज़दूरों, कामगारों और किसानों की बेहतरी, भलाई और विकास, अमन और कानूनी व्यवस्था बनाऐ रखने के लिए वचनबद्ध होते हैं। 

 

भारतीय संदर्भ में गुरु नानक देव जी ने सबसे पहले किसानों, मजदूरों और कामगार के हक में आवाज उठाई थी और उस समय के अहंकारी और लुटेरे हाकिम ऊंट पालक भागों की रोटी न खा कर उस का अहंकार तोड़ा और भाई लालो की काम की कमाई को सत्कार दिया था। गुरु नानक देव जी ने ‘काम करना, नाम जपना, बांट छकना और दसवंध निकालने का संदेश दिया। गरीब मजदूर और कामगार का राज स्थापित करने के लिए मनमुख से गुरमुख तक की यात्रा करने का संदेश दिया। इसीलिए 1 मई को सिख समाज भाई लालो दिवस के तौर पर भी मनाते हैं।

 

मजदूर दिवस के दिन कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियां निकालीं जायेंगी। हमारे अध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो उसमें पूंजीपति, मजदूर और गरीब अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का सन्देश है। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था।

 

- रमेश सर्राफ धमोरा

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