पिछले दिनों हुए उपचुनाव में भा.ज.पा. को अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। इस कारण लोकसभा में उसकी सीटों की संख्या लगातार घट रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि यदि दो सीट और घट गयीं, तो भा.ज.पा. का अपना बहुमत नहीं रहेगा और उसे सरकार चलाने के लिए सहयोगी दलों पर निर्भर होना पड़ेगा। शायद कांग्रेस और अन्य भा.ज.पा. विरोधी दल इसी की प्रतीक्षा में हैं। उन्हें लग रहा है कि 2019 जैसे-जैसे पास आ रहा है, उनके लिए लाल कालीन बिछने की तैयारी हो रही है।
सबसे पहले उपचुनाव का गणित समझें। ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि हर दल का क्षेत्रीय या जातीय आधार पर अपना वोट बैंक होता है। जैसे उ.प्र. में ब.स.पा. का वोट बैंक मुख्यतः तथाकथित दलित जातियों में है। लोकदल का पश्चिमी उ.प्र. के जाटों में प्रभाव है। कांग्रेस का प्रभाव सभी जातियों में है; पर इतना नहीं कि वह अकेले कुछ कर सके। यादवों का रुझान स.पा. की ओर रहता है। भा.ज.पा. का प्रभाव मध्यवर्ग के हिन्दुओं में अधिक है। मुसलमान का आज भी यह स्वभाव है कि जो दल या प्रत्याशी भा.ज.पा. के सामने सबसे भारी हो, उसके पलड़े में बैठकर उसे झुका दो। उ.प्र. में गोरखपुर, प्रयाग और अब कैराना तथा नूरपुर में यही हुआ है।
दूसरी बात ये भी है कि उपचुनाव के कारण सत्ता के समीकरणों में कोई परिवर्तन नहीं होता। लोकसभा के उपचुनावों से नरेन्द्र मोदी की कुर्सी पर तथा उ.प्र. में विधानसभा के उपचुनाव से योगी की कुर्सी पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। इसलिए भा.ज.पा. वाले प्रायः उपचुनावों में उदासीन रहे। दूसरी ओर स.पा., ब.स.पा. या लोकदल आदि अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि नरेन्द्र मोदी का कांग्रेसमुक्त भारत का नारा कांग्रेस के साथ उनकी जमीन भी खिसका रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में ब.स.पा. और लोकदल को एक भी सीट नहीं मिली। अतः उनके सामने जीने-मरने का प्रश्न खड़ा हो गया है। इसलिए इन उपचुनावों में उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी।
भा.ज.पा. को सदा संघ तथा उसके समविचारी संगठनों का सहयोग मिलता है। ये लोग हर समय तो राजनीति नहीं करते; पर चुनाव के समय कुछ दिन जरूर उनके साथ लगा देते हैं। यद्यपि इन संगठनों को भा.ज.पा. शासन से कुछ विशेष लाभ नहीं होता। ये कुछ लाभ लेना भी नहीं चाहते; पर इतना जरूर है कि जहां अन्य सरकारें इनके काम में बाधा डालती हैं, वहां भा.ज.पा. शासन में इन्हें ऐसी परेशानी नहीं होती।
मध्यावधि चुनाव में ये संगठन अपनी कुछ शक्ति भा.ज.पा. के पक्ष में लगाते हैं; पर बाकी समय वे अपने नियमित काम में व्यस्त रहते हैं। इन दिनों ग्रीष्मावकाश के कारण सभी संगठनों के प्रशिक्षण वर्ग चल रहे हैं। एक सप्ताह से लेकर चार सप्ताह तक के इन वर्गों में संघ तथा समविचारी संस्थाओं के सभी कार्यकर्ता व्यस्त हैं। अप्रैल से जून तक, तीन माह का सबका समय इसी काम में लगता है। इन वर्गों से उन्हें नये और युवा कार्यकर्ता मिलते हैं। ऐसे में उनके लिए रोज-रोज होने वाले उपचुनावों में रुचि लेना बहुत कठिन है।
सच तो ये है भारत में चुनाव वैचारिक आधार पर कम और जाति, क्षेत्र या सम्प्रदाय आदि के आधार पर अधिक लड़े जाते हैं। आजादी के बाद से हमारी मानसिकता ही ऐसी बनायी गयी है। हमारी चुनाव प्रणाली भी इसे ही पोषित करती है। यद्यपि कभी-कभी जनता इससे ऊपर उठ जाती है। जैसे 1971 में पाकिस्तान का विभाजन, 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या, 1991-92 में राममंदिर की लहर या 2014 में मोदी की जीत।
इन चुनावों में लोगों ने जाति या क्षेत्र को भूलकर भावना के आधार पर वोट दिये। इससे पूर्ण ही नहीं तो सम्पूर्ण बहुमत की सरकारें बनीं; पर कुछ ही समय में ये भावना ढीली पड़ गयी और लोग फिर जाति और क्षेत्र के कुएं में कूद पड़े। या यों कहें कि उन्हें जबरन उसमें ढकेल दिया गया, क्योंकि जाति और क्षेत्रवादी नेताओं के लिए यही सुविधाजनक होता है। उपचुनाव में प्रायः देश या प्रदेश के नेतृत्व का प्रश्न गौण होता है। ऐसे में जाति और क्षेत्रवाद प्रभावी हो जाता है।
पिछले दिनों हुए उपचुनावों को इसी दृष्टि से देखना चाहिए। यद्यपि इससे जनता की समस्याओं और उनके रुझान का अनुमान भी होता है। इसलिए उपचुनाव का महत्व तो है; पर पूर्ण चुनाव जैसा नहीं। जो लोग इन्हें 2019 का ट्रेलर मान रहे हैं, वे कुछ अधिक ही खुशफहमी में हैं। इन उपचुनावों में प्रायः सभी जगह कांग्रेस ने स्वयं को तीसरे या चौथे नंबर पर रखना मान लिया है। क्या 2019 में कांग्रेस पूरे देश में स्वयं को इस स्थिति में रखना चाहेगी ? यदि हां, तो फिर राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी का मुकाबला कौन करेगा ? और यदि नहीं, तो उसे लड़ने के लिए सीटें कौन देगा ?
क्या उ.प्र. में स.पा. और ब.स.पा., बिहार में लालू, बंगाल में ममता, ओडिशा में नवीन पटनायक, महाराष्ट्र में शिवसेना और शरद पवार, आंध्र में चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, तमिलनाडु में द्रमुक या अन्नाद्रमुक आदि कांग्रेस को 60-70 प्रतिशत सीट दे देंगे ? यदि नहीं, तो कांग्रेस के पास सरकार बनाने लायक सीट कहां से आएंगी ? और फिर उस समय संघ परिवार भी पूरी ताकत से मोदी का साथ देगा। यद्यपि संघ वाले भी मोदी की सब नीतियों से खुश नहीं हैं; पर संघ को मिटाने पर तुली कांग्रेस का दिल्ली की गद्दी पर बैठना उन्हें भी स्वीकार नहीं है। इस परिदृश्य में ही 2019 का उत्तर छिपा है।
इसलिए जो नेता 2019 के लिए अपने मुंह के नाप के रसगुल्लों के आर्डर दे रहे हैं, अच्छा हो वे सपने देखना छोड़ दें। क्योंकि इस पनघट की डगर बहुत कठिन है।
-विजय कुमार