जलेबी की तरह गोल-गोल (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Oct 09, 2024

आजकल शहर में एक बड़ा बवाल मचा हुआ है, और यह बवाल किसी राजनैतिक मुद्दे का नहीं, बल्कि जलेबी का है। जी हां, जलेबी, जिसे देखकर हमारे मुंह में पानी आ जाता है, उस जलेबी पर अब बहस छिड़ गई है। लोग इस मिठाई को लेकर ऐसे भिड़ रहे हैं जैसे यह कोई राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा हो।


किसी जमाने में, जलेबी को केवल एक मिठाई समझा जाता था, लेकिन आजकल यह सामाजिक प्रतिष्ठा का एक प्रतीक बन गई है। ‘मैंने जलेबी खाई है’ कहने वाले लोगों की संख्या में अचानक इजाफा हो गया है। ऐसे लोग अब अपने ज्ञान और अनुभव का बखान करते हुए इसे एक उत्कृष्टता का प्रतीक मानने लगे हैं। जलेबी खाने का तरीका भी अब कला का विषय बन गया है। किसी ने जलेबी खाई, तो वह तात्कालिक तौर पर एक जलेबी विशेषज्ञ बन गया।

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इस पूरे मामले में सबसे मजेदार बात यह है कि जलेबी के प्रति लोगों की मोहब्बत केवल खाने तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि इसे फेसबुक पर पोस्ट करने, इंस्टाग्राम पर शेयर करने और ट्विटर पर ट्रेंड कराने की कला में भी बदल गई है। अब तो मानो जलेबी के बिना कोई भी महोत्सव अधूरा सा लगता है। जन्मदिन हो, शादी, या कोई अन्य समारोह, जलेबी का होना अनिवार्य हो गया है। जैसे ही कोई जलेबी की प्लेट परोसी जाती है, लोग उसे ऐसे देखने लगते हैं जैसे वह कोई अनमोल रत्न हो।


लेकिन जलेबी का असली खेल तो तब शुरू होता है जब हम उसके फायदों के बारे में बात करते हैं। जलेबी के गुणों पर चर्चा करने वालों की कमी नहीं है। कोई कहता है, “जलेबी खाने से मानसिक तनाव दूर होता है।” तो कोई दूसरा दावा करता है, “यह शरीर को ताजगी देती है।” यानि जलेबी अब केवल एक मिठाई नहीं रही, बल्कि यह एक औषधि का काम करने लगी है।


हरिशंकर परसाई की शैली में, यह कहना भी उचित होगा कि हमारे समाज में जलेबी के प्रति बढ़ती दीवानगी ने उसे एक धार्मिक स्वरूप दे दिया है। अब इसे सिर्फ खाया नहीं जाता, बल्कि इसके प्रति श्रद्धा भाव से जिया जाता है। लोग जलेबी की दुकान के सामने खड़े होकर ऐसे मस्त होकर तस्वीरें खिंचवाते हैं जैसे वे किसी तीर्थ स्थान पर खड़े हों। दुकान पर जलेबी की तैयारी देखने के लिए तो मानो पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो जाता है। दुकानदार जैसे कोई साधु हों और जलेबी को लेकर आस्था इतनी गहरी हो चुकी हो कि जलेबी के हर टुकड़े को लेकर किसी भी प्रकार का बखान किया जाए।


वहीं दूसरी ओर, जलेबी की खासियत यह है कि यह हर मौसम में ताजगी का एहसास कराती है। गर्मी में इसकी चाशनी जैसे ठंडी हवा का अहसास कराती है और सर्दियों में इसे गर्मागरम खाने का अलग ही मजा है। इसके खट्टे-मीठे स्वाद ने लोगों को दीवाना बना रखा है। लेकिन अब जलेबी की कीमतें भी आसमान छूने लगी हैं। जलेबी की दुकान पर जाते हुए हर ग्राहक अब इस बात की गणना करता है कि जलेबी खरीदने के लिए उसे अपनी जेब से कितनी रकम निकालनी पड़ेगी।


जबसे जलेबी की कीमतें बढ़ी हैं, तबसे इस पर भी राजनीतिज्ञों की नजरें टिक गई हैं। चुनावों में जब भी कोई उम्मीदवार जनता से बात करने आता है, वह जलेबी की बात जरूर करता है। “अगर मैं चुनाव जीत गया, तो जलेबी की कीमतें कम कर दूंगा!” इस वादे के साथ ही उम्मीदवारों का मतदाता से जुड़ाव बढ़ जाता है। जलेबी अब चुनावी मुद्दा बन गई है।


दुकानदार भी इस खेल में पीछे नहीं रह गए हैं। वे अब जलेबी के साथ टोकन सिस्टम, क्यू सिस्टम, और फास्ट ट्रैक सर्विस की बातें करने लगे हैं। जलेबी को जल्दी पाने की होड़ में लोग अब अपने पांवों की चप्पलें तक छोड़ देते हैं। “अगर जलेबी अच्छी मिली, तो फिर सब कुछ भूल जाओ!” यही मंत्र अब हर ग्राहक की जुबान पर चढ़ गया है।


इस पूरे परिदृश्य में, जलेबी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह लोगों को एकजुट करती है। समाज के हर वर्ग के लोग, चाहे वे अमीर हों या गरीब, जलेबी के चक्कर में एक साथ आते हैं। और यह जलेबी के साथ-साथ उनके बीच एक मिठास भी घोलती है।


वास्तव में, जलेबी अब केवल एक मिठाई नहीं, बल्कि यह समाज का एक ऐसा दर्पण बन गई है, जिसमें हमारी संस्कृति, हमारी प्राथमिकताएं, और हमारे जिज्ञासा का प्रतिबिंब देखने को मिलता है। तो अगली बार जब आप जलेबी के लिए अपनी जेब से पैसे निकालें, तो जरा सोचिए कि यह सिर्फ एक मिठाई नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा है।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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