By कमलेश पांडे | Jan 12, 2023
प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को हमलोग राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाते हैं, लेकिन स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व और कृतित्व को समर्पित यह दिवस अब कई मायने में अपनी सार्थकता दिन-ब-दिन खोता जा रहा है। भले ही इस दिन स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से लेकर विभिन्न सरकारी प्रतिष्ठानों में एवं विभिन्न एनजीओज के स्तर पर जगह-जगह युवाओं को प्रोत्साहित करने और नैतिक शिक्षा देने वाले कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, लेकिन युवाओं के कंधों पर जितनी पारिवारिक, सामाजिक व राष्ट्रीय जिम्मेदारियां होती हैं, उसको समझने और उसी के अनुरूप उन्हें शैक्षणिक, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाने की कोई दूरगामी पहल होती हुई दिखाई नहीं दे रही है। मेरा मतलब चुनिंदा सम्भ्रांत युवाओं से नहीं, बल्कि भारत माता की कोख में पैदा हुए उन करोड़ों युवाओं से है, जिनका जीवन स्तर उठाना बहुत जरूरी है, ताकि वो भी कुछ अच्छा सोच-समझ सकें और किसी के बहकावे में न आएं, जैसा कि गाहे-बगाहे होता रहता है।
यहां पर मैं उन मुट्ठी भर उच्च और मध्यमवर्गीय समृद्ध युवाओं की बात नहीं कर रहा हूँ, जो पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक, पेशेवर, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से सपन्नता हासिल किए हुए हैं, जो कि उन्हें कुछ हद तक विरासत में भी मिली है, बल्कि मैं उन युवाओं की बात कर रहा हूँ, जो निम्न मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग से आते हैं, और जिनकी पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक, पेशेवर, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति हर तरह से दयनीय है। इससे उठाने हेतु उनके लिए लागू किये गए सरकारी प्रोत्साहन उपाय ऊंट के मुंह में जीरा का फोरन साबित हो रहे हैं। ये वो अभागे युवा हैं, जिनके खिलाफ हमारी सरकारें तमाम तरह की नई आर्थिक नीतियां लेकर आ रही हैं, ताकि उनकी युवा ऊर्जा का दोहन-शोषण किया जा सके।
आपको पता हो या न हो, लेकिन विगत 3 दशकों की ये तल्ख सच्चाई है कि समाजवादी भारतीय गणराज्य के कुछ अच्छे कानूनों को भी बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी ताकतों को लाभान्वित करने के हिसाब से बदला जा रहा है, जिससे सर्वाधिक प्रभावित यही युवा वर्ग होता है। हमारी वर्तमान नीतियां इतनी निर्लज्ज व निखट्टू हैं कि महानगरों और शहरों में हाड़तोड़ कर मेहनत करने के बावजूद भारतीय युवा वर्ग न तो अपने माँ-बाप की देखभाल करने लायक पैसे बचाकर घर भेज पाता है और न ही उन्हें अपने साथ रख पाता है।यही नहीं, अपनी जिंदगी अच्छी तरह से बसा लेने के बारे में भी वह नहीं सोच पाता है, क्योंकि पेशेवर जिंदगी में अब वह स्थायित्व नहीं, जो 3 दशक पहले हुआ करती थी।
अमूमन, देखा जाता है कि अधिकतर युवा कभी पैसे के अभाव में तकनीकी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं तो कभी आर्थिक दिक्कतों की वजह से उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते हैं। युवाओं के लिए व्यवहारिक प्रशिक्षण भी जरूरी है, ताकि वो एक अच्छे नागरिक बन सकें। लेकिन हमारी सरकार के पास सबके लिए समनुरुप कोई कार्यक्रम नहीं है, जिससे वो जिंदगी के अहम मोड़ पर पहुंचकर दिग्भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे ही युवाओं में से कुछ युवक गलत राह भी पकड़ लेते हैं, जिससे कई सामाजिक समस्याएं भी पैदा होती हैं। आतंकवाद, नक्सलवाद और अंडरवर्ल्ड ऐसे ही भटके हुए युवाओं से आबाद होते आए हैं। समाज में बढ़ते दुराचार और आपराधिक प्रवृत्ति की घटनाओं के पीछे भी कुंठित युवा पीढ़ी का बहुत बड़ा हाथ है, जिनका दुरुपयोग कुछ सफेदपोश लोग कर लिया करते हैं।
कहने का तातपर्य यह कि चाहे संसद हो या विधानमंडल या फिर स्थानीय निकायों से जुड़े सदन, राष्ट्रीय युवा दिवस की औपचारिकताएं तो हर जगह नजर आती हैं, लेकिन देश का भविष्य समझे जाने वाले युवाओं के हित में ठोस नीतियां बनाने की जरूरत कोई नहीं समझ रहा है। यह कैसी विडंबना है कि जिस देश में सर्वाधिक आबादी युवाओं की हो, वहां जब कोई युवा शिक्षा ग्रहण करने या पेशेवर डिग्रियां लेने जाता है तो वह बेहद महंगी होती हैं, जिसके लिए ऋण तक लेने पड़ जाते हैं, लेकिन 2-3 साल बाद वही युवा जब नौकरियां तलाशता है तो वेतनमान बहुत कम होते हैं, और स्थायी की जगह अंशकालिक नौकरी ही ज्यादा मिलती है। कहीं कहीं इंटर्न के नाम पर भी शोषण होता है। इससे युवा मन कुंठित हो जाता है।
मीडिया रपटों से इस बात का खुलासा होता है कि जिंदगी की पहेली को सुलझाने से पहले ही मन में तरह-तरह के उलझन पालकर बहुतेरे युवक तो आत्महत्या तक कर लेते हैं। वहीं, करोड़ों युवा मौजूद विडंबना भरी परिस्थितियों में किसी तरह से घुट-घुट कर जीते हैं। ऐसा इसलिए कि हमारा पूंजीवादी लोकतंत्र पूंजीपतियों और उनके काम आने वाले लोगों, नेताओं और उनके शागिर्दों के लिए तो तरह- की नीतियां बनाता आया है और उन्हें उपकृत करने के अवसर तलाशता रहता है, लेकिन हमारे गांवों, छोटे कस्बों या शहरों की कौन कहे, महानगरों के गरीब तबकों के युवाओं के लिए कोई ठोस नीति पिछले 75 साल में लेकर आया हो, ऐसा किसी युवक को नहीं लगता, जैसा कि अनौपचारिक बातचीत के दौरान वो बताते हैं।
यही वजह है कि जहां बेरोजगारी और छिपी हुई बेकारी अपनी चरम पर है, वहां करोड़ों युवा मन आधुनिकता की चकाचौंध देखकर सिसकता रह जाता है। सच कहा जाए तो भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयंती, अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में आयोजित होने वाले महंगे बजट के समारोह उसकी गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी को मुंह चिढ़ाते प्रतीत होते हैं। भले ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1984 ई. से इस पुनीत दिवस को 'अन्तरराष्ट्रीय युवा वर्ष' घोषित कर चुका है, लेकिन बीते 38 वर्षों में भी उसने अभावग्रस्त युवाओं की बदनसीबी मिटाने का कोई सशक्त और दूरदर्शी अंतरराष्ट्रीय प्रयास किया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता।
वैसे तो जगह-जगह युवा संसद जरूर आयोजित की जाती है, लेकिन इस युवा संसद में उठाये गए मुद्दे आखिर हमारी संसद, विधानमंडलों और स्थानीय निकाय के स्तर तक पहुंचते-पहुंचते कहाँ अपनी आवाज खो देते हैं, समझ में नहीं आता। कहने को तो हरेक राजनीतिक दलों में भी युवा इकाइयां हैं, जहां शीर्ष पदों पर सम्भ्रांत वर्गों के युवा काबिज हैं, लेकिन पक्ष या विपक्ष में रहते हुए भी इन युवा नेताओं ने अपने गरीब युवा के पक्ष में यदि कुछ भी सार्थक पहल की होती, तो आज यह आलेख लिखने की नौबत ही नहीं आती। वाकई जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग, गरीबी और अमीरी के खानों में विभक्त युवा यदि समवेत कोशिश करें, तो अपने और अपने आश्रितों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान का अपना वाजिब हक छीन सकते हैं। क्योंकि पूरे भारतवर्ष में उनका बहुमत है और अपने हित के अनुकूल नीतियां बनवाने में वो कब सफल होंगे, इस बात का इंतजार मुझे और मुझ जैसे लोगों को था, है और रहेगा।
आपको यह पता होना चाहिए कि हमारे युवा वह तल्ख वर्तमान होते हैं, जिनके नाजुक कंधों पर पारिवारिक भूत काल यानी दादा-दादी की देखरेख और पारिवारिक भविष्य काल यानी मां-पिता की सेवा-सुश्रुषा का सारा दारोमदार होता है, यदि हम-आप समझ पाएं तो! कम से कम अब तो समझ जाइए और किसी अभावग्रस्त युवक का कोई नेक सपना अधूरा नहीं रह पाए, इसके लिए समवेत रूप से सभी उपयुक्त मंचों पर अपना स्वर बुलन्द कीजिए। क्योंकि यह देश आपका है और यही युवा इस देश के भविष्य हैं, जिनके ऊपर 2047 के भावी भारत का सारा दारोमदार निर्भर करता है। इसलिए कुछ सरकार करेगी और कुछ हम-आप मिलकर कीजिए।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार