बेहद खतरनाक है पर्यावरण सुरक्षा के प्रति अमीर देशों की उदासीनता

By ललित गर्ग | Nov 06, 2021

जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैये को लेकर भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है। ग्लासगो में आयोजित हुए अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन (सीओपी 26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बढ़ते पर्यावरण संकट में पिछड़े देशों की मदद की वकालत की ताकि गरीब आबादी सुरक्षित जीवन जी सके। मोदी ने अमीर देशों को स्पष्ट संदेश दिया कि धरती को बचाना उनकी प्राथमिकता होनी ही चाहिए, वे अपनी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं।

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भारत में ग्लोबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की तीव्रता आई हुई है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरमेंट एंड डवलपमेंट की हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। देश के भीतर भू-स्खलन से अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे दो राज्यों तक सीमित नहीं है बल्कि केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, सिक्किम और पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं, इन प्राकृतिक आपदाओं के शिकार गरीब ही अधिक होते हैं, गरीब लोग प्राथमिक विपदाओं का दंश नहीं झेल पा रहे और अपनी जमीनों से उखड़ रहे हैं। गरीब लोग सुरक्षित स्थानों की ओर पलायन कर चुके हैं। विस्थापन लगातार बढ़ रहा है। महानगर और घनी आबादी वाले शहर गंभीर प्रदूषण के शिकार हैं, जहां जीवन जटिल से जटिलतर होता जा रहा है।


एक बड़ा सवाल उठना लाजिमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा? पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज एवं जलवायु परिवर्तन के घातक परिणामों ने जीवन को जटिल बना दिया है। गौरतलब है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी। इसके लिए 2009 में एक समझौता भी हुआ था, जिसके तहत अमीर देशों को हर साल सौ अरब डालर विकासशील देशों को देने थे। पर विकसित देश इससे पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी धक्का लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि जब तक वे विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे।


वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सर्तक होगी तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। रोम में सम्पन्न हुए जी-20 सम्मेलन में सभी देश धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने पर राजी हुए हैं। इसके अलावा उत्सर्जन को नियंत्रण करने के तथ्य निर्धारित किये गए हैं। जी-20 ने तो शताब्दी के मध्य तक कार्बन न्यूट्रेलिटी तक पहुंचने का वादा भी किया है। ग्लासगो सम्मेलन में भी भारत की रणनीति धनी देशों पर सौ अरब डॉलर की आर्थिक सहायता और खाद्य तकनीक के हस्तांतरण का दबाव बनाने की रही। अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य विकासशील और गरीब देशों पर थोपने लगे हैं। अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी कोयले से चलने वाले बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे। यह चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि इस सम्मेलन से ठीक पहले इटली में समूह-20 के नेताओं की बैठक में सदस्य देशों के नेता इस बात पर तो सहमत हो गए कि वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, पर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई।

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अमेरिका की नैशनल इंटेलिजेंस इस्टीमेट रिपोर्ट में भारत को पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित उन 11 देशों में शामिल किया गया है, जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से चिंताजनक श्रेणी में माने गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, ये ऐसे देश हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों से निपटने की क्षमता के लिहाज से खासे कमजोर हैं। संयोग कहिए कि यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है, जब उत्तराखंड में लगातार बारिश के चलते बाढ़ और भूस्खलन के रूप में आई त्रासदी ने पूरे देश को भयभीत किया हुआ है। जाहिर है, हमें इन चुनौतियों के मद्देनजर अपनी तैयारियों पर ज्यादा ध्यान देना होगा। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आने वाले समय में विश्व तापमान की दशा तय करने में चीन और भारत की अहम भूमिका रहने वाली है। आखिर चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। भारत भले चौथे नंबर पर है, लेकिन चीन के साथ जुड़ इसलिए जाता है क्योंकि इन दोनों ही देशों में उत्सर्जन की मात्रा साल-दर-साल बढ़ रही है। दूसरे और तीसरे स्थान पर मौजूद अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (ईयू) अपना उत्सर्जन कम करते जा रहे हैं। हालांकि यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि भारत जैसे देशों के लिए उत्सर्जन कम करना आसान नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा कारक कोयले का बहुतायत में इस्तेमाल है, जिसे रातोंरात कम करना संभव नहीं। क्योंकि इसके सारे विकल्प अपेक्षाकृत महंगे पड़ते हैं।

  

विडम्बना की बात यह है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों को जो पहल करनी चाहिए, वह होती दिख नहीं रही। अब तक जितने भी सम्मेलन हुए, उनका निष्कर्ष है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य हासिल करने के लिए अमीर देश विकासशील देशों पर ही दबाव डालते रहे हैं। जबकि संसाधनों के घोर अभाव के बावजूद भारत जैसे विकासशील देश ने ऊर्जा के विकल्पों पर अच्छा काम करके दिखाया है। ग्लासगो सम्मेलन तार्किक नतीजे पर पहुंचे, इसके लिए विकसित राष्ट्रों को नजरिया बदलने की जरूरत है। यह सर्वविदित है कि इंसान व प्रकृति के बीच गहरा संबंध है। इंसान के लोभ, सुविधावाद एवं तथाकथित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाया है, जलवायु संकट एवं बढ़ते तापमान के कारण न केवल नदियां, वन, रेगिस्तान, जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं बल्कि ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं, जो विनाश का संकेत तो है ही, जिनसे मानव जीवन भी असुरक्षित होता जा रहा है।


वर्तमान समय में पर्यावरण के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया ग्लोबल वार्मिंग, असंतुलित पर्यावरण, जलवायु संकट एवं बढ़ते कार्बन उत्सर्जन जैसी चिंताओं से रू-ब-रू है। ग्लासगो में आयोजित हुआ अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन अमीर राष्ट्रों को संवेदनशील एवं उदार होने के साथ-साथ प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने एवं उसके प्रति जागरूक होने के लिए प्रेरित करता है, ताकि हम जलवायु महासंकट से मुक्ति पा जायें एवं 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। ग्लोबल वार्मिंग का खतरनाक प्रभाव अब साफतौर पर दिखने लगा है। देखा जा सकता है कि गर्मियां आग उगलने लगी हैं और सर्दियों में गर्मी का अहसास होने लगा है। इसकी वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। पर्यावरण के निरंतर बदलते स्वरूप ने निःसंदेह बढ़ते दुष्परिणामों पर सोचने पर मजबूर किया है। औद्योगिक गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन और वन आवरण में तेजी से हो रही कमी के कारण ओजोन गैस की परत का क्षरण हो रहा है। इस अस्वाभाविक बदलाव का प्रभाव वैश्विक स्तर पर हो रहे जलवायु परिवर्तनों के रूप में दिखलाई पड़ता है। सार्वभौमिक तापमान में लगातार होती इस वृद्धि के कारण विश्व के पर्यावरण पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है, उससे मुक्ति के लिये जागना होगा, संवेदनशील होना होगा एवं विश्व के शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों को सहयोग के लिये कमर कसनी होगी तभी हम जलवायु संकट से निपट सकेंगे अन्यथा यह विश्व मानवता के प्रति बड़ा अपराध होगा।


-ललित गर्ग

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