यह बात पानी की तरह उपलब्ध है कि जब भी पैट्रोल महंगा हो, उसकी ज़िम्मेदार सरकार नहीं हुआ करती। आम जनता तो हमेशा की तरह संतुष्ट है, कुछ गैर ज़िम्मेदार लोग ही महंगे पैट्रोल के लिए सीधे सीधे सरकार को दोषी मान रहे हैं। यह तो लोकतान्त्रिक अमिट रिवायत है कि जब आप शासक हों तो हर चीज़ के लिए आप ज़िम्मेदार होंगे, क्यूंकि जब हम शासक होते हैं तो आप तेल और पानी के लिए भी हमें ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। कुछ भी हो हर राजा को राजकीय प्रवृति के अनुसार सब सामान्य समझना पड़ता है। आम जनता गलत नक्षत्रों में पैदा होती है इसलिए उसके भाग्य में पिसना लिखा होता है और खास लोगों का कर्तव्य होता है उसे पीसना। एक साल तक अधिकांश लोग घरों में क़ैद रहे। गाड़ियां सड़क किनारे, गैरेज में खड़ी परेशान रही, कई इंजन तो बेहोश ही हो गए थे। अब गाड़ियां हिलने, चलने, बिकने का मौसम आया तो जनता सोचने लगी कि कोई नई मुसीबत आ जाए, इससे पहले घूम फिर, खा पी, मज़े कर लें। बरसों से किसी न किसी गाड़ी को प्यार से देख रहे थे, खरीद कर चल कहीं दूर निकल जाते, मगर तेल को अभी हमारी जड़ों में तेल डालना था।
इस मामले में गाड़ियां बनाने वाले भी ज़िम्मेदार हैं जो उनकी तारीफ़ कर शौकीनों को ललचाते हैं, वे दूसरे खर्च कम कर गाड़ी खरीदते हैं और इस ललचाहट का फायदा उठाते हैं बैंक, जो क़र्ज़ देते हैं चाहे गाड़ी ज़्यादा समय तिरपाल के नीचे उदास खड़ी रहे। इसमें योगदान होता है बस वालों की तरफ से भी, जो बसों को वातानुकूलित नहीं करवाते, सीटें ठीक नहीं करवाते, सफ़र के बीच में बार बार बस रोकते हैं, तभी ज़्यादा आम लोग निजी वाहन खरीदने को प्रेरित होते हैं। गाड़ी खरीद ली जाती है फिर चाहे पैट्रोल मंहगा होता जाए। सशक्त विपक्ष की कमी भी महंगे पैट्रोल के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं। उन्हें अपने स्वार्थों की पड़ी होती है अगर वे एकजुट रहें और असली दबाव बनाए रखें तो पैट्रोल क्या कुछ भी महंगा न हो। गाड़ियों का विज्ञापन करने वाले लाखों करोड़ों कमाते हैं, विज्ञापन कम्पनियां भी बच्चों, महिलाओं के माध्यम से गाड़ियां बिकवाती हैं, खुद भी खूब कमाती हैं, लेकिन कभी एक शब्द पैट्रोल डीज़ल सस्ता करने के लिए नहीं कहती। बढ़िया सडकों पर गाड़ियां खूब चलती हैं तो तेल भी खूब बिकता है, चाहे पत्नी से दोगुने ब्याज पर क़र्ज़ लेना पड़े।
पता नहीं यह बात ठीक है या गलत, कहा जाता है इस धंधे में सरकारें खूब कमाती हैं, कमाए गए पैसे से विकास के विज्ञापन देती हैं। महंगा तेल बेचकर शानदार राजनीतिक लारियां चलाए रखती है। इतना बड़ा देश चलाना और चुनाव जीतते रहना आसान काम तो नहीं है। वैसे लोग अगर पैदल चलना शुरू कर दें तो पैट्रोल के दाम बढ़ने का सवाल ही पैदा न हो, हो सकता है कुछ क्षेत्रों में पैट्रोल पम्प बंद हो जाएं। पैट्रोल उत्पादक देशों को लेने के देने पड़ सकते हैं। यदि आज पैट्रोल का विकल्प बन जाए तो परसों पैट्रोल बहुत सस्ता हो सकता है।
कभी विदेशियों तो कभी नीति, सरकार, किस्मत या अन्य किसी को दोष देना आसान है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि अब तक किसी भी बुद्धिजीवी तो क्या अबुद्धिजीवी ने भी पैट्रोल की जलती कीमतों के लिए, लकड़ी का पहला पहिया बनाने वाले आदि मानव को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया। यदि ऐसा किया होता तो न हींग लगता न फटकरी और रंग भी चोखा चढ़ जाता। हर बार निंदा करने के लिए स्थायी दोषी भी उपलब्ध रहता। दोषी भी ऐसा जो कभी तर्क वितर्क न करता। वास्तव में असली ज़िम्मेदार भी तो वही है।
- संतोष उत्सुक