By संजय द्विवेदी | Jul 11, 2017
इजराइल और भारत का मिलन दरअसल दो संस्कृतियों का मिलन है। वे संस्कृतियां जो पुरातन हैं, जड़ों से जुड़ी हैं और जिन्हें मिटाने के लिए सदियां भी कम पड़ गयी हैं। दरअसल यह दो विचारों का मिलन है, जिन्होंने इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सपने देखे। वे विचार जिनसे दुनिया सुंदर बनती है और मानवता का विस्तार होता है। भारत की संस्कृति जहां समावेशी और सबको साथ लेकर चलने की पैरवी करती है, वहीं इजराइल ने एक अलग रास्ता पकड़ा, वह अपने विचारों को लेकर दृढ़ है और आत्ममुग्धता की हद तक स्वयं पर भरोसा करता है। उसके बाद आए विचार इस्लाम और ईसाइयत की आक्रामकता और विस्तारवादी नीतियों के बाद भी अगर भारत और इजराइल दोनों इस जमीन पर हैं, तो यह सपनों को जमीन पर उतर जाने जैसा ही है। ये दोनों देश बताते हैं कि लाख षड्यंत्रों के बाद भी अगर विचार जिंदा है, संस्कृति जिंदा है तो देश फिर धड़कने लगते हैं। वे खड़े हो जाते हैं। दोनों देश दरअसल अपनी सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर आज तक जीवित हैं और निरंतर उसका परिष्कार कर रहे हैं। तमाम टकराहटों, हमलों, विनाशकारी षड्यंत्रों के बाद भी यहूदी और हिंदू संस्कृति एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सत्य की तरह वैश्विक पटल पर आज भी कायम है।
भारत के साथ इजराइल के रिश्ते बहुत सहमे-सहमे से रहे हैं। भला हो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव का जिन्होंने हमें इजराइल से रिश्तों को लेकर सहज बनाया और हमारे रिश्ते प्रारंभ हुए। यह भारतीय हिचक ही हमें दुनिया भर में दोस्त और दुश्मन पहचानने में संकट में डालती रही है। सत्तर वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इजराइल यात्रा आखिर क्या बताती है? यह हमारी कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है। जो हमारे घरों में बम बरसाते रहे, सीमा पर कायराना हरकतें करते रहे उनके लिए हम लालकालीन बिछाते रहे, क्रिक्रेट खेलते रहे, हिंदी-चीनी भाई-भाई करते रहे किंतु सूदूर एकांत में खड़ा एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रगति के शिखर छू रहा एक देश हमें चाहता रहा, दोस्ती के हाथ बढ़ाए खड़ा रहा पर हम संकोच से भरे रहे। यह संकोच क्या है? यही न कि हिंदुस्तानी मुसलमान इस दोस्ती पर नाराज होगा। आखिर इजराइल-फिलिस्तीन के मामले से हिंदुस्तानी मुसलमान का क्या लेना देना? हमें आखिर क्या पड़ी है, जब दुनिया के तमाम मुस्लिम देश भी इजराइल से रिश्ते और संवाद बनाए हुए हैं। शक्ति की आराधना दुनिया करती है और वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर इजराइल आज एक ऐसी शक्ति से जिससे कोई भी सीख सकता है। अपनी माटी के प्रति प्रेम, अपने राष्ट्र के प्रति अदम्य समर्पण हमें इजराइल सिखाता है, किंतु हम हैं कि अपने कायर परंपरावादी रवैये में दोस्त और दुश्मन का अंतर भी भूल गए हैं। भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हो कि उन्होंने अपने साहस और इच्छाशक्ति से वह कर दिखाया है जिसकी हिम्मत हमारे तमाम नायक नहीं कर पाए।
विश्व शांति का उपदेश देने वाली शक्तियां भी दरअसल शक्ति संपन्न देश हैं। दुर्बल व्यक्ति का शांति प्रवचन कौन सुनता है। आज हमें यह तय करना होगा कि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को चुनौती देने वाले किसी विचार को सहन नहीं करेगा। भारत अपने सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर अपने शत्रु और मित्र चुनेगा। आखिर क्या कारण है कि ईरान के सर्वोच्च नेता कश्मीर की जंग में पाकिस्तान की तरह कश्मीरी अतिवादियों को समर्थन देते हुए दिखते हैं। ऐसे में भारत को क्यों यह अधिकार नहीं है कि वह उन राष्ट्रों के साथ समन्वय करे जो वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के विरूद्ध खड़े हैं।
भारत की वर्तमान सरकार के प्रयत्नों से वैश्विक स्तर पर भारत का जो मान बढ़ा है और उसकी आवाज सुनी जा रही है, वह एक दुर्लभ क्षण है। भारत अब एक दुर्बल राष्ट्र की छवि को छोड़कर अपने पुरूषार्थ का अवगाहन कर रहा है। वह स्वयं की शक्ति को पहचान रहा है। हमें भी इजराइल और उसके नागरिकों के आत्मसंघर्ष को समझना होगा। हमें समझना होगा कि किस प्रकार इजराइल के नागरिकों ने अपने सपने को जिंदा रखा और एक राष्ट्र के रूप में आकार लिया। देश के प्रति उनकी निष्ठा, उनका समर्पण हमें सिखाता है कि कैसे हम अपने देश को एक रख सकते हैं। भारत और इजराइल के स्वभाव का अंतर आप इससे समझ सकते हैं कि गुलामी के लंबे कालखंड ने हमें हमारी चीजों से विरक्त कर दिया, हम आत्महीनता से भर गए, आत्मदैन्य से भर गए। अपनी जमीन पर भी लांछित रहे। वहीं इजराइल के लोगों ने उजाड़े जाने के बाद भी अपने को दैन्य से भरने नहीं दिया, सर ऊंचा रखा और अपने राष्ट्र के सपने को मरने नहीं दिया। यहीं हिंदु संस्कृति और यहूदी संस्कृति के अंतर को समझा जा सकता है। काल के प्रवाह से अविचल यहूदी अपनी मातृभूमि का स्वप्न देखते रहे, हम अपनी मातृभूमि पर रह कर भी विस्मरण के शिकार हो गए। लेकिन हर राष्ट्र का एक स्वप्न होता है जो जिंदा रहता है। इसीलिए हमारे आत्मदैन्य को तोड़ने वाले नायक आए, हमें गुलामी से मुक्ति मिली और हमने अपनी जमीन फिर से पा ली। लेकिन राष्ट्रों का भाग्य होता है। इजराइल में जो आए वे एक सपने के साथ थे, उनका सपना इजराइल को बनाना था, उसके उन्हीं मूल्यों पर बनाना था, जिनके लिए वे हजारों मुसीबतें उठाकर भी वहां आए थे। हमें बलिदानों के बाद आजादी मिली, किंतु हमने उसकी कीमत कहां समझी। हम एक ऐसा देश बनाने में लग गए जिसकी जड़ों में भारतीयता और राष्ट्रवाद के मूल्य नहीं थे। विदेशी समझ, विदेशी भाषा और विदेशी चिंतन के आधार पर जो देश खड़ा हुआ, वह ‘भारत’ नहीं ‘इंडिया’ था। इस यात्रा को सत्तर सालों के बाद विराम लगता दिख रहा है।
भारत एक जीता जागता राष्ट्रपुरूष है और वह अपने को पहचान रहा है। सही मायनों में ये दो-तीन साल भारत से भारत के परिचय के भी साल हैं। राजनीतिक संस्कृति से लेकर सामाजिक स्तर पर इसके बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं। इजराइल की ओर बढ़े हाथ दरअसल खुद को भी पहचानने की तरह हैं। भूले हुए रास्तों के याद आने की तरह हैं। उन जड़ों और गलियों में लौटने की तरह हैं, जहां भारत की रूहें बसती और धड़कती हैं। इजराइल जैसे देश में होना दरअसल भारत में होना भी है। दुनिया की दो पुरातन संस्कृतियों-परंपराओं और जीवन शैलियों का मिलन साधारण नहीं हैं। यह एक नई दुनिया जरूर है लेकिन वह अपनी जड़ों से जुड़ी है। उन जड़ों से जिन्हें सींचने में पीढ़ियां लगीं हैं। एक बार भारत दुनिया के चश्मे से खुद को देख रहा है, उसे अपने निरंतर तेजमय होने का अहसास हो रहा है। इजराइल यात्रा के बहाने प्रधानमंत्री ने सालों की दूरियां दिनों में पाट दीं हैं, हमें भरोसा दिया है कि भारत अपने आत्मविश्वास से एक बार फिर से अपनी उम्मीदों में रंग भरेगा। आम हिंदुस्तानी अपने प्रधानमंत्री के वैश्विक नेतृत्व के इस दृश्य पर मुग्ध है।
संजय द्विवेदी
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)