क्या एकनाथ शिंदे को अयोग्य ठहरा सकती है शिवसेना या बागी गुट हथिया सकते हैं पार्टी? संविधान की 10वीं अनुसूची से जुड़ी हर दुविधा दूर करने वाली रिपोर्ट

By अभिनय आकाश | Jun 27, 2022

सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य विधानसभा में एकनाथ शिंदे और अन्य बागी विधायकों के लिए लिखित पुनर्विचार याचिका दायर करने का समय बढ़ा दिया। विधायकों को लिखित जवाब के लिए स्पीकर ने जो समय दिया था वो 27 जून के शाम 5.30 तक का ही था। उसे बढाकर 12 जुलाई कर दिया गया है। अब 12 जुलाई शाम 5.30 बजे तक का समय दिया गया है। अदालत ने डिप्टी स्पीकर के नोटिस पर 11 जुलाई तक रोक लगाई। इसके साथ ही अदालत ने कहा महाराष्ट्र सरकार 15 अन्य विधायकों और उनके परिवार को सुरक्षा मुहैया करवाए। जीवन और संपत्ति की सुरक्षा राज्य सरकार की जिम्मेदारी। शिंदे कैंप ने अपने और परिवार के लिए सुरक्षा की मांग की थी। कोर्ट शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें डिप्टी एसपी द्वारा जारी अयोग्यता नोटिस को चुनौती दी गई थी। जबकि दूसरी याचिका बागी विधायक भरत गोगावले की ओर से दायर की गई है। जिसमें अयोग्य ठहराने की डेप्युटी स्पीकर की कार्रवाई से रोकने की मांग की गई। 

 दल-बदल कानून होगा लागू?

शिंदे ने महाराष्ट्र विधान सभा के सदस्यों (दलबदल के आधार पर अयोग्यता) नियम, 1986 के प्रावधानों के मनमाने और अवैध इस्तेमाल को चुनौती दी है। उन्होंने याचिका में कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का उपयोग करने के लिए विवश हैं। उनका कहना है कि विधानसभा उपाध्यक्ष ने विधायकों को अयोग्य ठहराये जाने के लिए शुरू की गई प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1)(जी) का पूरी तरह से उल्लंघन है।

इसे भी पढ़ें: ED के समन पर बोले संजय राउत, शिवसेना के लिए लड़ता रहूंगा, भले ही मुझे जेल में डालो

लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य ने हाल ही में स्क्रॉल डॉट इन के साथ एक साक्षात्कार में किमीडिया में दल-बदल विरोधी कानून के बारे में बहुत सारी गलत जानकारी प्रसारित हो रही है। वे दल-बदल विरोधी कानून से बच सकते हैं, अगर वे भारतीय जनता पार्टी में विलय कर देते हैं। विलय के लिए दो शर्तें हैं: 

1. मूल पार्टी, शिवसेना, का भाजपा में विलय हो जाता है।

2. दो तिहाई विधायक विलय के लिए राजी हैं। ये 37 सदस्य समूह के रूप में कार्य नहीं कर सकते हैं। उनका भाजपा में विलय करना होगा। 

2003 तक अगर दो-तिहाई सदस्य कोई पार्टी छोड़ते थे, तो वे एक अलग समूह बना सकते थे और दलबदल विरोधी कानून से बच सकते थे. लेकिन चूंकि दलबदल करना एकदम आम होता जा रहा था, इसलिए नियम कड़े कर दिए गए। अब, भले ही उनके (शिंदे गुट) पास दो-तिहाई सदस्य हों, वे कानून से बच नहीं सकते. उनके पास विकल्प यही है कि किसी दूसरी पार्टी में विलय कर लें।

दल बदल कानून 1985 क्या है 

राजीव गांधी की सरकार ने महसूस किया कि दल बदल जैसी गंभीर समस्या को लेकर कोई नियम होना चाहिए। जैसे मानिए कोई बीजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़े और फिर जीतकर कांग्रेस में शामिल हो जाए। तो ये उस जनता के साथ भी धोखा था जहां से वो जीतकर आया है। इसके साथ ही उस पार्टी के साथ भी धोखा था जिसके सिंबल पर उसने चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। 1985 की जनवरी में शीतकालीन सत्र के दौरान राजीव गांधी सरकार द्वारा भारत के संविधान में 52वां संशोधन किया गया। दल बदल निरोधक कानून 1985 लाया गया। इसमें बताया गया कि आखिर वो कौन सी स्थितियां होंगी, जिनमें ये कानून लागू होगा और उसे दल बदल निरोधक कानून के अंतर्गत माना जाएगा। संसद की 10वीं अनुसूची इसके आसपास के नियमों और विनियमों को स्पष्ट करती है। अयोग्यता सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए। महाराष्ट्र में नरहरि सीताराम जिरवाल सदन के कार्यवाहक अध्यक्ष हैं। सुप्रीम कोर्ट ने नंवबर 1991 में दल-बदल विरोधी कानून के बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। यह फैसला मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, गुजरात और मध्य प्रदेश के अयोग्य ठहराए गए विधायकों की याचिकाओं के सिलसिले में दिया गया था। 1985 के प्रावधान की 10वीं अनुसूची के पैराग्राफ़ 6 के मुताबिक़ स्पीकर या चेयरपर्सन का दल-बदल को लेकर फ़ैसला आख़िरी होगा।  पैराग्राफ़ 7 में कहा गया है कि कोई कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता। लेकिन 1991 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने 10वीं अनुसूची को वैध तो ठहराया लेकिन पैराग्राफ़ 7 को असंवेधानिक क़रार दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इसमें कहा गया कि दल बदल निरोधक कानून बनाने के वक्त उसमें अदालती दखल की गुंजाइश खत्म करने वाले प्रावधान में राज्यों से सहमति नहीं ली गई थी। इसलिए ये राज्य पुनरीक्षण के अंतर्गत आता है और इसमें हम दखल दे सकते हैं। इसके साथ ही कहा गया कि दल बदल कानून में अगर कोई मामला फंसता है तो वो कोर्ट जा सकता है। कोर्ट उस पर सुनवाई कर सकता है। 

इसे भी पढ़ें: महाराष्ट्र राजनीतिक संकट : गुवाहाटी के रैडिसन ब्लू ने 30 जून तक नयी बुकिंग रोकी

क्या शिंदे शिवसेना पर कर सकते हैं कब्जा? 

शिवसेना का संविधान कहता है कि शिवसेना प्रमुख का चुनाव पार्टी की 'प्रतिनिधि सभा' करती है। प्रतिनिधि सभा में सिर्फ विधायक और सांसद ही नहीं, बल्कि जिला प्रमुख, जिला संपर्क प्रमुख और मुंबई के विभाग प्रमुख भी शामिल होते हैं। 2018 में उद्धव को शिवसेना प्रमुख चुना गया था। शिवसेना की नीति नियामक इकाई जिसे 'राष्ट्रीय कार्यकारिणी' कहते हैं, उसका चुनाव भी प्रतिनिधि सभा ही करती है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 14 सदस्य होते हैं। इनमें से शिवसेना प्रमुख पद पर बैठा व्यक्ति अधिकतम 5 सदस्यों की नियुक्ति कर सकता है। मौजूदा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की अवधि जनवरी 2023 तक है।

क्या एकनाथ शिंदे को शिवसेना अयोग्य ठहरा सकती है?

हां और नहीं। संविधान की दसवीं अनुसूची किसी विधायक की अयोग्यता का आधार तय करती है। हालांकि, विलय एक अपवाद है। यदि दलबदलू की पार्टी के दो-तिहाई सदस्य किसी अन्य दल में शामिल हो जाते हैं, तो उसे दलबदल नहीं कहा जाएगा। महाराष्ट्र में, अगर शिंदे शिवसेना के 37 विधायकों को भाजपा या किसी अन्य पार्टी में विलय करने में सक्षम हैं, तो उन्हें अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। गिरीश चोडनकर बनाम माननीय अध्यक्ष गोवा विधान सभा में बॉम्बे हाईकोर्ट के एक हालिया फैसले में, यह माना गया था कि एक विधायक दल के दो-तिहाई सदस्यों का किसी अन्य दल के साथ विलय को मूल राजनीतिक दलों का विलय माना जाएगा।वर्तमान में शिवसेना के कुल विधायक 55 हैं। हालांकि जब तक सदस्य किसी अन्य पार्टी में शामिल नहीं होते हैं या किसी अन्य पार्टी के साथ विलय नहीं करते हैं, तब तक शिंदे को संविधान द्वारा निर्दिष्ट नियमों के तहत अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

-अभिनय आकाश 

प्रमुख खबरें

दिल्ली में ‘महिला सम्मान योजना’ के लिए रजिस्ट्रेशन शुरू, केजरीवाल ने खुद घर जाकर बताई पूरी प्रक्रिया

दक्षिण कोरिया के कार्यवाहक राष्ट्रपति पर महाभियोग का खतरा मंडराया, जानें वजह?

AAP सरकार के खिलाफ BJP ने जारी किया आरोप पत्र, अनुराग ठाकुर बोले- केजरीवाल ने दिल्ली को बनाया गैस चैंबर

Winter Clothes Hacks: मिनटों में ऊनी कपड़ों से हटाएं रोएं, जाने देसी तरीका