By सुखी भारती | Oct 18, 2022
श्रीविभीषण जी रावण को समझाने में अपना अथक प्रयास लगा रहे हैं। लेकिन रावण ने मानों सौगंध-सी खा रखी है कि उसने किसी की सलाह तो माननी ही नहीं है। रावण ने जब देखा, कि मेरा भाई तो मेरा रहा ही नहीं, अपितु मेरे शत्रु का बन बैठा है। तो रावण ने श्रीविभीषण जी को लात दे मारी-
‘मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।।
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
हनुज गहे पद बारहिं बारा।।’
रावण कहता है, कि रे दुष्ट! तू रहता तो मेरे नगर में है, और प्यार उन तपस्वियों से करता है? तो जा फिर, उन्हीं के पास जाकर अपनी नीतियों को सुना। ऐसा कहकर, रावण ने श्रीविभीषण जी को लात दे मारी। हालाँकि श्रीराम जी के भक्त को, संपूर्ण जगत में ऐसा कोई भी नहीं है, जो कि दैहिक हानि पहुँचाने का साहस रखता हो। हम श्रीरामचरित मानस के अनेकों प्रसंगों में ऐसा देख ही चुके हैं। माता सीता जी को भी रावण छू तक नहीं पाता है। श्रीहनुमान जी को भी हानि पहुँचाने का प्रयास किया, तो फलस्वरूप उसकी लंका नगरी ही धू-धू कर जल गई। लेकिन श्रीविभीषण जी के प्रसंग में ऐसी रक्षा क्यों नहीं हो पाई। माना कि रावण ने श्रीविभीषण जी का वध नहीं किया। लेकिन उन पर अपने अपावन चरणों का प्रहार तो किया ही न? श्रीराम जी के परम् भक्त के साथ, इतना भी घट जाये, तो क्या आप इसे कम समझते हैं? जिस स्तर के भक्त श्रीविभीषण जी हैं, उनके लिए तो रावण का यह कलुषित व्यवहार, प्राणहीन हो जाने जैसा है। तो फिर श्रीराम जी ने, श्रीविभीषण जी के साथ इतना अपमान भी क्यों होने दिया। क्या इसलिए, कि श्रीविभीषण जी, श्रीसीता जी की भाँति कौन-सा उनके अपने परिवार से थे। अगर ऐसा माना भी जाये, तो श्रीहनुमान जी भी कौन-सा श्रीराम जी के सगे थे। वैसे भी, श्रीराम जी के लिए अपना-पराया तो कोई होता ही नहीं। फिर क्या कारण है, कि श्रीविभीषण जी को, रावण द्वारा इतना अपमान सहना पड़ा, और श्रीराम जी ने कोई ‘ऐक्शन’ नहीं लिया। इसके पीछे जो आध्यात्मिक भाव छुपा है, वह कहता है, कि श्रीविभीषण जी का, रावण द्वारा अपमानित होने के पश्चात भी, बार-बार रावण के चरण पकड़ते रहने के पीछे, उनका संत स्वभाव था। और इस बात की पुष्टि भगवान श्रीशंकर जी भी करते हैं-
‘उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई।।
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।’
श्रीविभीषण जी, रावण के समक्ष इस स्तर झुके हुए हैं, कि रावण को कह रहे हैं, कि आप तो मेरे पिता समान हैं। मुझे आपने मारा तो आपने ठीक ही किया। परंतु आपका भला, फिर भी श्रीराम जी को भजने में ही है।
आध्यात्मिक भाव जब तक था, तो अच्छा था। लेकिन इसे जब दार्शनिक दृष्टि से देखेंगे, तो श्रीविभीषण जी से यहाँ कुछ गलती हुई है। गलती यह, कि श्रीविभीषण जी द्वारा रावण को पिता समान संबोधित करना, यह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था। कारण कि श्रीविभीषण जी को श्रीराम जी के रूप में, जब शास्वत पिता की प्राप्ति हो ही गई थी, तो उन्हें किसी भी, अन्य को पिता का पद् देना बनता ही नहीं था। भला जिसने ईश्वर को पिता रूप में पा लिया हो, भला उसे किसी अन्य को पिता कहने का मन ही कैसे करता है? लेकिन श्रीविभीषण जी ने, निःसंदेह ही ऐसी गलती की है। और इसका परिणाम भी उनके समक्ष देखने को मिला। कहाँ तो श्रीराम जी ने उन्हें सम्मान देना था, कहाँ श्रीविभीषण जी को अपमान झेलना पड़ा।
ठीक यही स्थिति हम संसारी मनुष्यों की भी होती है। हमें भी तो हमारे ईष्टों अथवा गुरु रूप में, हमारा पिता मिला ही होता है। लेकिन फिर भी श्रीविभीषण जी की भाँति, हमारे पता नहीं कितने पिता होते हैं। श्रीराम जी ने भी सोचा होगा, अरे वाह! हमें तो पता ही नहीं था, कि हमारे सिवा भी आपका अन्य कोई पिता है। और यह आप क्या कर रहे हैं विभीषण जी? आप बार-बार रावण के चरणों में गिर रहे हैं? क्या आपको नहीं पता, कि यह सीस अमूल्य होता है। इसे यूँ ही कहीं, यदा-कदा, कहीं भी नहीं झुकाना चाहिए। कारण कि संसार इस सिर का मूल्य थोड़ी न समझता है। सीस का मूल्य तो सतगुरु या फिर स्वयं भगवान जी ही समझते हैं। संसार में तो उसी सीस को लोग अच्छा समझते हैं, जो सीस उनके समक्ष झुकता है। अगर वह सीस नहीं झुका, तो वही लोग उसे ठोकरें मारते हैं। रावण श्रीविभीषण जी के साथ यही तो कर रहा है। श्रीविभीषण जी बार-बार रावण के समक्ष झुक रहे हैं, और रावण बार-बार उन्हें लात मार रहा है। और प्रभु श्रीराम जी जी की लीला देखिए, वे भी कोई नर लीला नहीं कर रहे हैं। शायद श्रीराम जी भी चाह रहे हैं, कि हे विभीषण, रावण के चरणों के पश्चात आपको हमारे ही चरणों पहुँचना है। अभी रावण के चरणों का भी प्रेम देख लो, और फिर हमारे चरणों के प्रेम का भी आपको अनुभव कर लेना। तुम्हें रावण के चरणों में गिरने का फल तो पता चल ही गया। अब हमारे श्रीचरणों में गिरने से क्या फल मिलता है, यह कुछ समय पश्चात, तुम स्वयं ही देख लेना। चलो आपका यह अनुभव होना भी अच्छा ही रहा। नहीं तो कहीं न कहीं आपके मन में भी रह जाता, कि भले ही हमारा प्रेम महान है, लेकिन आपके भाई रावण का प्रेम भी कुछ कम नहीं था। कम से कम, अब आपको यह ज्ञान तो रहेगा न, कि प्रभु के प्रेम में, और संसार के प्रेम में क्या अंतर होता है।
ख़ैर! श्रीविभीषण जी को अब यह अनुभव हो गया था, कि श्रीराम जी की सेवा, लंका त्याग के बिना संभव नहीं है। और उसी समय श्रीविभीषण जी एक घोषणा करते हैं। क्या थी वह घोषणा, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती