तेजी से बढ़ रही हैं दुष्कर्म की घटनाएँ, नारी कब तक बेचारगी का जीवन जीयेगी ?

By ललित गर्ग | Sep 21, 2021

हम तालिबान-अफगानिस्तान में बच्चियों एवं महिलाओं पर हो रही क्रूरता, बर्बरता शोषण की चर्चाओं में मशगूल दिखाई देते हैं लेकिन भारत में आए दिन नाबालिग बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं तक से होने वाली छेड़छाड़, बलात्कार, हिंसा की घटनाएं पर क्यों मौन साध लेते हैं? इस देश में जहां नवरात्र में कन्या पूजन किया जाता है, लोग कन्याओं को घर बुलाकर उनके पैर धोते हैं और उन्हें यथासंभव उपहार देकर देवी मां को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं वहीं इसी देश में बेटियों को गर्भ में ही मार दिये जाने एवं नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को नोंचने की त्रासदी भी है। इन दोनों कृत्यों में कोई भी तो समानता नहीं बल्कि गज़ब का विरोधाभास दिखाई देता है।

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दुनियाभर में महिलाओं के अस्तित्व एवं अस्मिता के लिये जागरूकता एवं आन्दोलनों के बावजूद महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। हमारे देश में भी महिलाओं की स्थिति, कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, तलाक के बढ़ते मामले, गांवों में महिला की अशिक्षा, कुपोषण एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराधों पर प्रभावी चर्चा एवं कठोर निर्णयों से एक सार्थक वातावरण का निर्माण किये जाने की अपेक्षा है। क्योंकि एक टीस-सी मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी रहेगी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा? बलात्कार, छेड़खानी, भ्रूण हत्या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहेगी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नोचा जाता रहेगा? 


दरअसल छोटी लड़कियों या महिलाओं की स्थिति अनेक मुस्लिम और अफ्रीकी देशों में दयनीय है। जबकि अनेक मुस्लिम देशों में महिलाओं पर अत्याचार करने वालों के लिये सख्त सजा का प्रावधान है, अफगानिस्तान-तालिबान का अपवाद है। वहां के तालिबानी शासकों ने महिलाओं को लेकर जो फरमान जारी किए हैं वो महिला-विरोधी होने के साथ दिल को दहलाने वाले हैं। नये तालिबानी फरमानों के अनुसार महिलाएं आठ साल की उम्र के बाद पढ़ाई नहीं कर सकेंगी। आठ साल तक वे केवल कुरान ही पढ़ेंगी। 12 साल से बड़ी सभी लड़कियों और विधवाओं को जबरन तालिबानी लड़ाकों से निकाह करना पड़ेगा। बिना बुर्के या बिना अपने मर्द के साथ घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं को गोली मार दी जाएगी। महिलाएं कोई नौकरी नहीं करेंगी और शासन में भागीदारी नहीं करेंगी। दूसरे मर्द से रिश्ते बनाने वाली महिलाओं को कोड़ों से पीटा जाएगा। महिलाएं अपने घर की बालकनी में भी बाहर नहीं झांकेंगीं। इतने कठोर, क्रूर, बर्बर और अमानवीय कानून लागू हो जाने के बावजूद अफगानिस्तान की पढ़ी-लिखी और जागरूक महिलाएं बिना डरे सड़कों पर जगह-जगह प्रदर्शन कर रही हैं। दुनिया की बड़ी शक्तियों को इन महिलाओं के स्वतंत्र अस्तित्व को बचाने के लिये आगे आना चाहिए।


तमाम जागरूकता एवं सरकारी प्रयासों के भारत में भी महिलाओं की स्थिति में यथोचित बदलाव नहीं आया है। भारत में भी जब कुछ धर्म के ठेकेदार हिंसात्मक और आक्रामक तरीकों से महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं तो वे भी तालिबानी ही नजर आते हैं। विरोधाभासी बात यह है कि जो लोग नारी को संस्कारों की सीख देते हैं, उनमें से बहुत से लोग, धर्मगुरु, राजनेता एवं समाजसुधारक महिलाओं के प्रति कितनी कुत्सित मानसिकता का परिचय देते आए हैं, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। इनके चरित्र का दोहरापन जगजाहिर हो चुका है। कोई क्या पहने, क्या खाए, किससे प्रेम करे और किससे शादी करें, सह-शिक्षा का विरोधी नजरिया- इस तरह की पुरुषवादी सोच के तहत महिलाओं को उनके हकों से वंचित किया जा रहा है, उन पर तरह-तरह की बंदिशें एवं पहरे लगाये जा रहे हैं। वक्त बीतने के साथ सरकार को भी यह बात महसूस होने लगी है। शायद इसीलिए सरकारी योजनाओं में महिलाओं की भूमिका को अलग से चिह्नित किया जाने लगा है।


आये दिन कोई न कोई महिला अत्याचार, बलात्कार एवं शोषण की घटना सुनाई देती है जो दिल को दर्द से भर देती है और बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती है। देश के किसी एक भाग में घटी कोई घटना सभी महिलाओं के लिए चिंता पैदा कर देती है। यूं तो महिलाओं के संरक्षण के लिए बहुत सारे कानून बने हैं लेकिन अपराधियों को इनका ज़रा भी खौफ क्यों नहीं? जब देश में ऐसी कोई घटना घटित होती है तो क्यों लंबे समय तक तारीख पर तारीख लगती रहती हैं? तुरंत फैसला क्यों नहीं हो जाता इन हैवानों एवं महिला अत्याचारियों का? इन आपराधिक घटनाओं को रोकने के लिए क्या हमें भी कुछ मुस्लिम देशों के जैसी क्रूर सज़ा का प्रावधान करना चाहिए? एक अपराधी से कानून को क्यों हमदर्दी हो जाती है जो उसे अपना पक्ष रखने का अवसर सालों साल मिलता रहता है। आश्चर्य इस बात का होता है कि इन अपराधियों के माता-पिता भी इन्हें बचाने के लिए जी जान से जुड़ जाते हैं। इस तरह कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। लेकिन महिलाओं के प्रति एक अलग तरह का नजरिया इन सालों में बनने लगा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नारी के संपूर्ण विकास की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए अनेक योजनाएं लागू की हैं, जिनमें अब नारी सशक्तीकरण और सुरक्षा के अलावा और भी कई आयाम जोड़े गए हैं। सबसे अच्छी बात इस बार यह है कि समाज की तरक्की में महिलाओं की भूमिका को आत्मसात किया जाने लगा है।

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एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायतें’ घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढलान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रित है जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने एवं बेचारगी को जीने को विवश होना पड़ता है। पुरुषवर्ग नारी को देह रूप में स्वीकार करता है, लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय देना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।


‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता’- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु आज हम देखते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे ‘भोग की वस्तु’ समझ कर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है, यह बेहद चिंताजनक बात है। आज अनेक शक्लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही हैं। देश में गैंग रेप की वारदातों में कमी भले ही आयी हो, लेकिन उन घटनाओं का रह-रह कर सामने आना त्रासद एवं दुःखद है। आवश्यकता लोगों को इस सोच तक ले जाने की है कि जो होता आया है वह भी गलत है। महिलाओं के खिलाफ ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कानूनों की कठोरता से अनुपालना एवं सरकारों में इच्छाशक्ति जरूरी है। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के विरोध में लाए गए कानूनों से नारी उत्पीड़न में कितनी कमी आयी है, इसके कोई प्रभावी परिणाम देखने में नहीं आये हैं, लेकिन सामाजिक सोच में एक स्वतः परिवर्तन का वातावरण बन रहा है, यहां शुभ संकेत है।


-ललित गर्ग

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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