महान साधक और मानवता के पुजारी थे रामकृष्ण परमहंस

By रमेश सर्राफ धमोरा | Feb 18, 2021

श्री रामकृष्ण परमहंस अपने समय के महान साधक व मानवता के पुजारी थे। इनका जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव में 18 फरवरी 1836 को एक निर्धन निष्ठावान ब्राहमण परिवार में हुआ था। इनके जन्म पर ही प्रसिद्व ज्योतिषियों ने रामकृष्ण के महान भविष्य की घोषणा कर दी थी। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सुन इनकी माता चन्द्रा देवी तथा पिता क्षुदिराम अत्यन्त प्रसन्न हुए। इनको बचपन में गदाधर  नाम से पुकारा जाता था। 


स्वामी रामकृष्ण परमहंस भारत के एक ऐसे महान संत एवं विचारक थे जिन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति की। अपनी साधना से रामकृष्ण इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।

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पांच वर्ष की उम्र में ही वो अदभुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी-देवताओं की स्तुतियां, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हे कंठस्थ याद हो गई थी। 1843 में इनके पिता का देहांत हो गया तो परिवार का पूरा भार इनके बड़े भाई रामकुमार पर आ पड़ा था। रामकृष्ण जब नौ वर्ष के हुए इनके यज्ञोपवीत संस्कार का समय निकट आया। उस समय एक विचित्र घटना हुई। ब्राह्मण परिवार की यह परम्परा प्रथा थी कि नवदिक्षित को इस संस्कार के पश्चात अपने किसी सम्बंधी या किसी ब्राह्मण से पहली शिक्षा प्राप्त करनी होती थी। एक लुहारिन जिसने रामकृष्ण की जन्म से ही परिचर्या की थी। बहुत पहले ही उनसे प्रार्थना कर रखी थी कि वह अपनी पहली भिक्षा उसके पास से प्राप्त करे। लुहारिन के सच्चे प्रेम से प्रेरित हो बालक रामकृष्ण ने वचन दे दिया था। 


अतः यज्ञोपवीत के पश्चात घर वालों के लगातार विरोध के बावजूद इन्होने ब्राह्मण परिवार में प्रचलित प्रथा का उल्लंघन कर अपना वचन पूरा किया और अपनी पहली भिक्षा उस शुद्र स्त्री से प्राप्त की। यह घटना सामान्य नही थी। सत्य के प्रति प्रेम तथा इतनी कम उम्र में सामाजिक प्रथा के इस प्रकार उपर उठ जाना रामकृष्ण की आध्यात्मिक क्षमता और दूरदर्शिता को ही प्रकट करता है।


रामकृष्ण का मन पढ़ाई में न लगता देख इनके बड़े भाई इन्हे अपने साथ कलकत्ता ले आये और अपने पास दक्षिणेश्वर में रख लिया। यहां का शांत एवं सुरम्य वातावरण रामकृष्ण को अपने अनुकूल लगा। 1858 में इनका विवाह शारदा देवी नामक पांच वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न हुआ। जब शारदा देवी ने अपने अठारहवें वर्ष मे पदार्पण किया तब श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के पुण्यपीठ के अपने कमरे में उनकी षोड़शी देवी के रुप में यथोपचार आराधना की। यही शारदा देवी रामकृष्ण संघ में माताजी के नाम से परिचित हैं।


रामकृष्ण के जीवन में अनेक गुरु आये पर अन्तिम गुरुओं का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक थी भैरवी जिन्होने उन्हे अपने कापालिक तंत्र की साधना करायी और दूसरे थे श्री तोतापुरी उनके अन्तिम गुरु। गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर के प्रसिद्व मंदिर में रहकर रामकृष्ण मां काली की पूजा किया करते थे। गंगा नदी के दूसरे किनारे रहने वाली भैरवी को अनुभुति हुई कि एक महान संस्कारी व्यक्ति रामकृष्ण को उसकी दीक्षा की आवश्यकता हैं। गंगा पार कर वो रामकृष्ण के पास आयी तथा उन्हे कापालिक दीक्षा लेने को कहा। रामकृष्ण ने भैरवी से दीक्षा ग्रहण की। भैरवी द्वारा बतायी पद्धति से वो लगातार साधना करते रहे तथा मात्र तीन दिनों में ही सम्पूर्ण क्रिया में निपुण हो गये। 

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रामकृष्ण के अन्तिम गुरु तोतापुरी थे जो सिद्ध तांत्रिक तथा हठ योगी थे। वे रामकृष्ण के पास आये तथा उन्हे दीक्षा दी। रामकृष्ण को दीक्षा दी गई परमशिव के निराकार रुप के साथ पूर्ण संयोग की। पर आजीवन तो उन्होने मां काली की आराधना की थी। वे जब भी ध्यान करते तो मां काली उनके ध्यान में आ जाती और वे भावविभोर हो जाते। निराकार का ध्यान उनसे नहीं हो पाता था। 


तोतापुरी ध्यान सिद्ध योगी थे। वे समस्या जान गये कुछ दिनों बाद उन्होने रामकृष्ण को अपने पास बिठाकर साधना करायी। तोतापुरी को अनुभव हुआ कि रामकृष्ण के ध्यान में मां काली प्रतिष्ठित हैं। उन्होने शक्ति सम्पात के द्वारा रामकृष्ण को निराकार ध्यान में प्रतिष्ठित करने के लिये बगल में पड़े एक शीशे के टुकड़े को उठाया और उसका रामकृष्ण के आज्ञाचक्र पर आघात किया जिससे रामकृष्ण को अनुभव हुआ कि उनके ध्यान की मां काली चूर्ण-विचूर्ण हो गई हैं और वे निराकार परमशिव में पूरी तरह समाहित हो चुके हैं। वे समाधिस्थ हो गये। ये उनकी पहली समाधी थी जो तीन दिन चली। तोतापुरी ने रामकृष्ण की समाधी टुूटने पर कहा। मैं पिछले 40 वर्षो से समाधि पर बैठा हूं पर इतनी लम्बी समाधी मुझे कभी नही लगी।


रामकृष्ण परमहंस का जीवन और व्यक्तित्व रहस्यमयी रहा। उनकी जीवन-शैली और उनका व्यवहार अच्छे-अच्छों की भी समझ से बाहर का था। इतना अजीब था कि ज्यादातर लोग उन्हें पागल तक समझते थे। कुछ ने तो उनके दिमाग का इलाज कराने तक की कोशिश की। लेकिन ढाका के एक मानसिक चिकित्सक ने उनकी युवावस्था में ही एक बार कहा था कि असल में यह आदमी एक महान योगी और तपस्वी है। जिसे दुनिया अभी समझ नहीं पा रही है। और किसी चिकित्सकीय ज्ञान से उसका इलाज नहीं किया जा सकता है।


रामकृष्ण परमहंस के पास जो कोई भी जाता वह उनकी सरलता, निश्छलता, भोलेपन और त्याग से इतना अभिभूत हो जाता कि अपना सारा पांडित्य भूलकर उनके पैरों पर गिर पड़ता था। गहन से गहन दार्शनिक सवालों के जवाब भी वे अपनी सरल भाषा में इस तरह देते कि सुनने वाला तत्काल ही उनका मुरीद हो जाता। इसलिए दुनियाभर की तमाम आधुनिक विद्या, विज्ञान और दर्शनशास्त्र पढ़े महान लोग भी जब दक्षिणेश्वर के इस निरक्षर परमहंस के पास आते, तो अपनी सारी विद्वता भूलकर उसे अपना गुरु मान लेते थे।


रामकृष्ण परमहंस मुख्यतः आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता थे। जिन्होंने देश में राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाया। उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती हैं। रामकृष्ण ने इस्लाम, बोद्ध, ईसाई, सिख धर्मो की बकायदा विधिवतरुप से शिक्षा ग्रहण कर साधनायें की थी। ब्रह्म समाज के सर्वश्रेष्ठ नेता केशवचंद्र सेन, पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर, वंकिमचंद्र चटर्जी, माइकेल मधुसूदन दत्त, कृष्णदास पाल, अश्विनी कुमार दत्त से रामकृष्ण घनिष्ठ रुप से परिचित थे। 


इनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंदन, स्वामी अद्यतानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द थे। श्री रामकृष्ण के जीवन के अन्तिम वर्ष कारुण रस से भरे थे। 16 अगस्त, 1886 सोमवार ब्रह्ममुहूर्त में अपने भक्तों और स्नेहितों को दुख के सागर में डुबाकर वे इस लोक में महाप्रयाण कर गये। 


रामकृष्ण परमहंस महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। रामकृष्ण का सारा जीवन अध्यात्म-साधना के प्रयोगों में बीता। वे लगातार कई घंटों तक समाधि में लीन हो जाते थे। चौबीस घंटे में बीस-बीस घंटों तक वे उनसे मिलनेवाले लोगों का दुख-दर्द सुनते और उसका समाधान भी बताते। रामकृष्ण परमहंस के भोले प्रयोगवाद में वेदांत, इस्लाम और ईसाइयत सब एकरूप हो गए थे। निरक्षर और पागल तक कहे जाने वाले रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन से दिखाया था कि धर्म किसी मंदिर, गिरजा, विचारधारा, ग्रंथ या पंथ का बंधक नहीं है।


रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं।)

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