रामजन्मभूमि आंदोलन भारत के इतिहास में एक निर्णायक और परिणामकारी घटना सिद्ध हुई

By एलके आडवाणी | Jan 13, 2024

मैं शब्दातीत प्रफुल्लित हूँ कि हम श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या में एक भव्य श्रीराम मंदिर बनाने के मेरे सबसे प्रिय सपने को साकार होता देखने वाले हैं। 22 जनवरी, 2024 को प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी अयोध्या के दिव्य मंदिर में श्रीराम के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा करेंगे। मैं धन्य हूँ कि मैं अपने जीवनकाल में इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनूँगा। मेरा सदैव मानना रहा है कि एक सार्थक जीवन और समाज, दोनों की ही नींव आस्था पर टिकी होती है। आस्था व्यक्ति के जीवन में न केवल ऊर्जा और आत्मविश्वास का संचार करती है, बल्कि उसे दिशा देने में भी सहायक होती है। मेरे लिए और करोड़ों भारतीयों के लिए, यही आस्था श्रीराम के प्रति हमारी अगाध श्रद्धा रही है।


श्रीराम भारत की आत्मा के प्रतीक है। भारत और भारतीयता की सच्ची आत्मा अनुशासन, सच्चाई, सत्यनिष्ठा, नैतिकता, नैतिक मूल्य, विविधता को स्वीकार करना और उस पर गर्व करना, बड़ों के प्रति सम्मान, सुदृढ़ पारिवारिक संबंध और ऐसे सभी उत्कृष्ट मानवीय मूल्य है; श्रीराम इन सभी निष्कलंक मानवीय गुणों के प्रतीक हैं। इसीलिए उन्हें 'मर्यादा पुरुषोत्तम' कहा जाता है। वे भारतीयों की उच्च मूल्यों का जीवन जीने की आकांक्षा के एक आदर्श हैं।


श्रीराम एक आदर्श राजा भी थे 'धर्म' के जीवंत अवतार। इसलिए सुशासन के प्रतीक 'रामराज्य' की अवधारणा को भारत के लिए आदर्श के रूप में प्रचारित किया गया। यद्यपि श्रीराम हिंदुओं के लिए पूजनीय पवित्र धार्मिक विभूति हैं, साथ ही वे भारत की उस सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रीय पहचान के भी एक प्रमुख प्रतीक हैं, जो समान रूप से प्रत्येक नागरिक की धरोहर है। श्रीराम के जीवन की कहानी, 'रामायण', भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की निरंतरता का स्रोत और वाहक दोनों है और इसने शताब्दियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी, भारतीय मानस को बहुत प्रभावित किया है। इसलिए पिछले लगभग 500 वर्षों से, कोटि-कोटि भारतीयों की हार्दिक इच्छा रही है कि अयोध्या में श्री राम मंदिर का पुनर्निर्माण हो।

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अयोध्या में श्रीराम की जन्मभूमि पर मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए किया गया 'रामजन्मभूमि आंदोलन' 1947 के बाद के भारत के इतिहास में एक निर्णायक और परिणामकारी घटना सिद्ध हुई। हमारे समाज, राजनीति तथा राष्ट्रीय पहचान की भावना पर इसका गहरा प्रभाव रहा है। मैंने सदैव कहा है कि मेरी राजनीतिक यात्रा में अयोध्या आंदोलन सबसे निर्णायक परिवर्तनकारी घटना थी, जिसने मुझे भारत को पुनः जानने और इस प्रक्रिया में अपने आप को भी फिर से समझने का अवसर दिया। मैं विनम्रता से कहता हूँ कि नियति ने मुझे 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक श्रीराम रथयात्रा के रूप में एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य निभाने का अवसर दिया।

मेरा मानना है कि कोई भी घटना अंततः वास्तविकता में घटित होने से पहले व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में आकार लेती है। उस समय मुझे लग रहा था कि नियति ने यह निश्चित कर लिया है कि एक दिन अयोध्या में श्रीराम का एक भव्य मंदिर अवश्य बनेगा: बस अब केवल समय की बात है। रामजन्मभूमि पर श्रीराम का एक भव्य मंदिर बनना भारतीय जनता पार्टी की प्रबल इच्छा और दृढ़ संकल्प रहा है। 1980 के दशक के मध्य में जब अयोध्या मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आ गया, तो मुझे वह समय याद आया कि कैसे महात्मा गांधी, सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और के.एम. मुंशी जैसे राजनीतिक दिग्गजों के प्रभावी नेतृत्व द्वारा, सभी बाधाओं के बाद भी, स्वतंत्र भारत में एक और ऐतिहासिक मंदिर (गुजरात में सौराष्ट्र के तट पर प्रभासपाटन में सोमनाथ मंदिर) के पुनर्निर्माण का पथ प्रशस्त किया था।


मध्य काल में सोमनाथ अनेक विदेशी आक्रांताओं के निशाने पर रहा और उनके आक्रमणों का साक्षी भी रहा, तथा सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण अपने खोए सांस्कृतिक गौरव को वापस पाने और धर्मांध विदेशी आक्रांताओं के इतिहास को मिटाने के भारत के दृढ़ संकल्प का एक गौरवपूर्ण प्रमाण है। दुखद है कि सोमनाथ के समान ही, अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर बना मंदिर भी मुगल साम्राज्य की स्थापना करने वाले आक्रमणकारी बाबर के हमले का निशाना बन गया था। 1528 में बाबर ने अपने कमांडर मीर बाकी को अयोध्या में एक मस्जिद बनाने का आदेश दिया, ताकि उस स्थान को 'फरिश्तों के अवतरण का स्थान बनाया जा सके, इसलिए इसका नाम बाबरी मस्जिद पड़ा।


यह सभी मानते हैं और बाद में पुरातात्त्विक साक्ष्यों से इसकी पुष्टि भी हो गई कि अयोध्या में पहले से ही एक मंदिर था, जिसे मस्जिद की स्थापना के लिए ध्वस्त कर दिया गया था। इस कारण, कई अर्थों में अयोध्या आंदोलन ने सोमनाथ की भावना को ही आगे बढ़ाया। 1990 में जब भाजपा ने निर्णय लिया कि पार्टी अध्यक्ष के रूप में मुझे अयोध्या आंदोलन के लिए जनसमर्थन जुटाने के उद्देश्य से श्रीराम रथयात्रा का नेतृत्व करना चाहिए, तो मैंने स्वाभाविक ही इस ऐतिहासिक यात्रा के आरंभिक स्थल के रूप में सोमनाथ को चुना।


12 सितंबर, 1990 को मैंने 11 अशोक रोड, नई दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और 10,000 किलोमीटर लंबी रथयात्रा करने के अपने निर्णय की घोषणा की। यात्रा 25 सितंबर को सोमनाथ से आरंभ होकर 30 अक्तूबर को अयोध्या पहुँचने वाली थी, जहाँ आंदोलन से जुड़े संतों की योजना के अनुसार कारसेवा की जानी थी। 25 सितंबर मेरे लिए विशेष था, क्योंकि इस दिन पं. दीनदयाल उपाध्यायजी की जयंती है।


अपनी आत्मकथा 'मेरा देश मेरा जीवन' में मैंने 1990 में अयोध्या आंदोलन और श्रीराम रथयात्रा के विषय में विस्तार से चर्चा की है। आज के इस विशेष अवसर पर में इसके कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों को याद दिलाना चाहूँगा।


25 सितंबर, 1990 की सुबह मैंने सोमनाथ मंदिर में ज्योतिर्लिंग की पूजा-अर्चना की। मेरे साथ वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी (जो उस समय भाजपा के एक होनहार नेता थे), श्री प्रमोद महाजन (जो पार्टी के महासचिव थे), गुजरात में पार्टी के अन्य वरिष्ठ पदाधिकारी और मेरे परिवार के सदस्य थे। पार्टी के दो उपाध्यक्ष राजमाता विजयाराजे सिंधिया और श्री सिकंदर बख्त रथ को हरी झंडी दिखाने आए थे।


रथ को रवाना करने से पहले हम सभी ने मंदिर के ठीक बाहर सरदार पटेल की भव्य प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की। मैंने मन-ही-मन उन सभी महापुरुषों को धन्यवाद दिया और उनसे प्रेरणा ली, जिन्होंने मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए कड़ा परिश्रम किया था। स्वागत और आशीर्वाद देने के लिए एकत्र हुई भारी भीड़ के बीच हम श्रीराम रथ पर चढ़े, जिसे गेंदे के फूलों से सजाया गया था। फिर गुंजायमान शंखनाद ओर 'जय श्रीराम' व 'सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएँगे' के गगनभेदी नारों के साथ रथ आगे बढ़ा। बाद के दिनों में ये नारे मेरी यात्रा की पहचान बन गए और भारत की स्वर कोकिला, स्वर सम्राज्ञी स्वर्गीय श्रीमती लता मंगेशकर द्वारा गाया गीत "राम नाम में जादू ऐसा, राम नाम मन भाए; मन की अयोध्या तब तक सूनी, जब तक राम न आएँ"- रथयात्रा का मुख्य गीत बन गया।


गुजरात में पहले कुछ दिनों में ही यात्रा को मिले प्रतिसाद और उसके प्रति उत्साह से में वास्तव में अभिभूत था। सभी स्थानों पर भारी भीड़ ने रथ का स्वागत किया। गाँवों, कस्बों और यहाँ तक कि सड़कों पर भी, आस-पास की बस्तियों के लोग पेड़ों के नीचे इकट्ठा होकर रथ के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा किया करते थे। बड़े कस्बों और शहरों में यह अपूर्व उत्साह चरम पर पहुँच गया था, जिसके कारण हमें अपनी बैठकों के स्थल तक पहुँचने में घंटों लग जाते थे।


यह जनसमर्थन महाराष्ट्र के साथ-साथ उसके बाद के सभी राज्यों में भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया, जहाँ-जहाँ से यात्रा गुजरी। जगह-जगह लोगों ने भव्य तोरणद्वार बनाकर और पुष्पवर्षा करके रथ का स्वागत किया। मेरे लिए सबसे आश्चर्यजनक दृश्य वह था, जिसमें लोग, विशेष रूप से महिलाएँ, रथ के आगे आकर आरती करती थीं और सिक्के चढ़ाती थीं, जैसे कि वे किसी मंदिर में प्रार्थना कर रही हों। मुझे शीघ्र ही अनुभव हुआ कि अनेक लोगों के लिए, इस अभियान की दृष्टि से मैं इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था और मेरे द्वारा इसका नेतृत्व करना मात्र एक संयोग था। मैं तो केवल एक सारथी था; रथयात्रा का प्रमुख संदेशवाहक स्वयं रथ ही था। और यह पूजा के योग्य इसीलिए था, क्योंकि यह श्रीराम मंदिर के निर्माण के पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए उनके जन्मस्थान अयोध्या जा रहा था।


इस बिंदु पर मैं उस 'रथ' के विषय में कुछ कहना चाहूँगा, जिसमें मैंने यात्रा की थी। वह वास्तव में एक मिनी ट्रक था, जिसे रथ का आकार देने के लिए रीडिजाइन किया गया था और इसमें मूलभूत सुविधाएँ प्रदान की गई थीं। 


'रथ' में यात्रा करना मेरे लिए वास्तव में एक अद्भुत और अविस्मरणीय अनुभव था, लेकिन इसने अपनी ही अनेक चुनौतियाँ भी प्रस्तुत कीं। वाहन के पीछे एक छोटा कमरा-सह-शौचालय था, जिसका उपयोग केवल तभी किया जा सकता था, जब वाहन चल न रहा हो, क्योंकि यह बहुत उछलता था। मुझे याद है कि अपना संतुलन बनाए रखने के लिए मुझे अधिकतर चलती गाड़ी के मंच पर सामने और किनारे पर लगी रॉड को पकड़कर खड़ा होना पड़ता था। निस्संदेह इस कारण लगातार गरमी और धूल का भी सामना करना पड़ता था, क्योंकि मंच तीन तरफ से खुला था।


इसके अलावा रथ के चलते समय यह असंभव था कि मैं पानी, जूस या चाय बिना गिराए पी सकूँ। इसलिए इस समस्या को दूर करने के लिए एक विशेष सिपर बोतल की व्यवस्था की गई। जहाँ तक भोजन की बात है, तो ऐसी व्यवस्था की गई थी कि रात का खाना उस शहर के अपनी पार्टी के किसी कार्यकर्ता के घर से आएगा, जहाँ हमें रात्रि विश्राम के लिए पहुँचना था। चूंकि अंतिम सार्वजनिक बैठक हमेशा आधी रात के लगभग ही समाप्त होती थी, इसलिए मैं सामान्यतया मुरब्बा टोस्ट के साथ सिर्फ एक गिलास दूध ही लेता था।


एक और समस्या हमें अक्सर रथ की ऊँचाई के कारण आती थी। हालांकि पार्टी के अधिकारियों ने यात्रा के मार्ग में विभिन्न गंतव्यों तक वाहन की ऊँचाई के बारे में अग्रिम जानकारी प्रसारित की थी, लेकिन जैसे-जैसे हम छोटे कस्बों और शहरों से गुजरते थे, ऊपर लटकते बिजली के तारों के कारण बार-बार रुकावट आती थी। इसलिए पार्टी के कार्यकर्ताओं ने तारों को रास्ते से हटाने के लिए लकड़ी के अधिक लंबे खंभों की व्यवस्था की और रथ के साथ चलना भी शुरू कर दिया। वैसे, ये सभी वास्तव में छोटी समस्याएँ थीं, जो मेरी 'श्रीराम रथयात्रा' की सुंदर व सुखद स्मृतियों का एक लघुतर भाग है।


यात्रा के सबसे मर्मस्पर्शी क्षण गाँवों और दूरदराज की बस्तियों में अनुभव हुए, जहाँ ग्रामीणों के चेहरे पर भक्तिभाव और श्रद्धा शहरों की तुलना में अधिक थी। उनमें से कई या तो अशिक्षित थे या नाममात्र के शिक्षित थे। उन्होंने श्रीराम के बारे में पढ़कर नहीं जाना था। यह ऐसा था मानो इनका ज्ञान उनके माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित हो रहा हो, लोककथाओं या मौखिक रूप से प्रसारित हो रहा हो, जैसा कि आमतौर पर भारतीय समाज में होता है।


कई स्थानों पर, मुझे कोई ऐसा ग्रामीण व्यक्ति मिल जाता था, जो बिना कोई नारा लगाए चुपचाप आता, रथ के सामने पूजा करता, मुझे अभिवादन करता और चला जाता। मैं वास्तव में इस तरह के अनुभवों से अभिभूत था, क्योंकि इससे मुझे प्रत्यक्ष रूप से पता चला कि भारतीय लोगों के जीवन में धार्मिकता की जड़ें कितनी गहरी जमी हुई हैं। यह रथयात्रा ही थी, जिसने मुझे अनुभूति कराई कि यदि मुझे धार्मिक बातों के माध्यम से राष्ट्रवाद का संदेश देना है, तो मैं इसे अधिक प्रभावी ढंग से और व्यापक जनसमूह तक पहुँचा पाऊँगा।


मेरे भाषण, जो अधिकतर वाहन पर विशेष रूप से बनाए गए ऊँचे मंच से दिए जाते थे, लगभग पाँच मिनट के ही होते थे, क्योंकि मुझे हर दिन सड़क किनारे ऐसे लगभग बीस से पच्चीस स्वागत समारोहों को संबोधित करना पड़ता था। अधिकांश कस्बों और शहरों में, मुझे नीचे उतरकर सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करना पड़ता था, जिसमें हजारों लोग शामिल होते थे।


मैं यात्रा के उद्देश्य और उन परिस्थितियों के बारे में बताता था, जिन्होंने भाजपा को रामजन्मभूमि आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए विवश किया था। हालाँकि रथयात्रा पर लोगों की प्रतिक्रिया मुख्य रूप से धार्मिक थी, जबकि मेरे भाषणों का बल राष्ट्रवाद पर था, क्योंकि मेरा हमेशा से मानना रहा है कि श्रीराम मंदिर का मुद्दा आंतरिक रूप से हमारी भारतीयता की भावना से जुड़ा है।


मेरे भाषणों में बार-बार दोहराया जाने वाला एक विषय यह था कि धार्मिक आस्था के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण की शक्ति सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्र-निर्माण में अहम योगदान दे सकती है। मैंने हमारे मुस्लिम भाइयों को स्वतंत्र भारत में समानता प्राप्त होने पर बल दिया, जो भारत के ईश्वर शासित न होने और धर्मनिरपेक्ष बने रहने के कारण संभव हुआ। मैंने कहा, यह मुख्यतः हिंदू धर्म के सदियों पुराने धर्मनिरपेक्ष लोकाचार के कारण था। मैंने मुस्लिम समुदाय के नेताओं से अयोध्या पर हिंदू भावनाओं का सम्मान करने की भी अपील की।


मेरी यात्रा 24 अक्तूबर, 1990 को उत्तर प्रदेश के देवरिया में प्रवेश करने वाली थी। हालांकि, जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, इसे 23 अक्तूबर को बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया गया और श्री लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार द्वारा मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। मुझे बिहार-बंगाल सीमा पर दुमका के पास मसानजोर नामक स्थान पर सिंचाई विभाग के एक निरीक्षण बंगले में ले जाया गया। इस कार्रवाई पर पूरे देश में आक्रोश और बड़ी संख्या में स्वतः स्फूर्त विरोध प्रदर्शन किए गए।


यह वह समय था, जब मोबाइल फोन नहीं थे। मेरी गिरफ्तारी की खबर मेरी बेटी प्रतिभा तक बड़े दिलचस्प ढंग से पहुँची, जो उस समय कोलकाता में थी। वह अपने घर वापस जाने के लिए टैक्सी की प्रतीक्षा में थी, तभी एक टैक्सी ड्राइवर ने उनसे कहा कि वह झटपट सवार हो जाएँ। जब प्रतिभा ने उनसे पूछा कि वह ऐसा क्यों कह रहे हैं, तो टैक्सी ड्राइवर ने उन्हें बताया कि आडवाणी 'बाबा' को गिरफ्तार कर लिया गया है और लोगों को डर था कि शहर में दंगे हो सकते हैं! दो दिन बाद, प्रतिभा ने लालू प्रसाद यादवजी से बात की, जिन्होंने मेरी हिरासत के दौरान उन्हें मसानजोर में मुझसे मिलने आने में सहायता की। पाँच सप्ताह हिरासत में बिताने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया।


इस प्रकार मेरी 'श्रीराम रथयात्रा' समाप्त हुई, जो वास्तव में मेरे राजनीतिक जीवन का एक अद्भुत अविस्मरणीय उत्साहवर्धक प्रसंग था। मुझे प्रसन्नता हुई कि यात्रा ने अपने अनगिनत प्रतिभागियों की आकांक्षाओं, ऊर्जा और उत्साह को अपूर्व विस्तार दिया।


श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान शुरू हुई एक महत्त्वपूर्ण बहस वास्तविक धर्मनिरपेक्षता और छद्म धर्मनिरपेक्षता के बीच का अंतर थी। एक ओर, आंदोलन को व्यापक जन समर्थन प्राप्त था, वहीं दूसरी ओर, अधिकांश राजनीतिक दल इस आंदोलन का समर्थन करने से इसलिए कतरा रहे थे, क्योंकि उन्हें मुस्लिम वोट खोने का डर था। वे वोट बैंक की राजनीति के लालच में आ गए और उसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उचित ठहराने लगे।


इस प्रकार, अयोध्या मुद्दा, जिसका प्राथमिक उद्देश्य श्री रामजन्मभूमि मंदिर का पुनर्निर्माण था, छद्म धर्मनिरपेक्षता के हमले के कारण धर्मनिरपेक्षता के वास्तविक अर्थ को पुनःस्थापित करने का प्रतीक भी बन गया।


मेरी श्रीराम रथयात्रा को 33 वर्ष हो गए हैं। तब से बहुत कुछ घटित हुआ, इसमें वो कानूनी लड़ाई भी शामिल है, जिसमें मुझ पर तथा विश्व हिंदू परिषद्, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के मेरे कई सहयोगियों पर मुकदमा चलाया गया। फिर लगभग तीन दशकों के बाद, 30 सितंबर, 2020 को, सीबीआई की विशेष अदालत ने मुझे और अन्य लोगों को बरी कर दिया और सभी आरोपों से मुक्त किया। यह ध्यान देने योग्य है कि एक तरफ जहाँ लंबी कानूनी लड़ाई चल रही थी, वहीं दूसरी तरफ, न केवल मैं, बल्कि भाजपा और संघ परिवार का प्रत्येक कार्यकर्ता भारतीयों की आत्मा को जागृत करने के कार्य में जुटा रहा ताकि रामलला को अपने वास्तविक निवासस्थान पर विराजमान करने का सपना साकार हो सके।


मुझे बहुत प्रसन्नता है कि नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णायक फैसले के कारण श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण का पथ शांति के वातावरण में प्रशस्त हुआ है। अब जब भव्य श्रीराम मंदिर अपने निर्माण के अंतिम चरण में है, तो मैं प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली वर्तमान सरकार, सभी संगठनों, विशेष रूप से विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, अनगिनत रथ यात्रा के सहयोगियों, संतों, नेताओं, कारसेवको और भारत तथा दुनिया के सभी लोगों के प्रति गहरी कृतज्ञता की भावना से भर गया हूँ, जिन्होंने कई दशकों तक अयोध्या आंदोलन में बहुमूल्य योगदान और बलिदान दिया।


आज मुझे दो व्यक्तियों की बहुत याद आ रही है। पहले व्यक्ति हैं स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, जो मेरे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा रहे हैं, राजनीतिक और व्यक्तिगत, दोनों ही तौर से और जिनके साथ मेरा एक अटूट और सदाकालीन विश्वास, स्नेह और आदर का संबंध था।


दूसरी व्यक्ति हैं मेरी दिवंगत पत्नी कमला, जो मेरे जीवन के लिए स्थिरता का मुख्य आधार रहीं और न केवल श्री राम रथ यात्रा के दौरान, बल्कि मेरे लंबे समय के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अद्वितीय शक्ति का स्रोत बनी रहीं।


आगामी 22 जनवरी, 2024 के विशेष अवसर से पहले पूरे देश का वातावरण सचमुच राममय हो गया है। यह मेरे लिए संतुष्टि का क्षण है, न केवल संघ और भाजपा के एक गौरवान्वित सदस्य के रूप में, बल्कि हमारी गौरवशाली मातृभूमि के एक गर्वित नागरिक के रूप में भी। सभी देशवासियों को मेरी अनंत शुभकामनाएँ!


जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में श्रीरामलला के विग्रह की 'प्राण प्रतिष्ठा' करेंगे, तो वह हमारे महान भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक का प्रतिनिधित्व करेंगे। यह मेरा अटल विश्वास है और मेरी आशा भी कि यह मंदिर सभी भारतीयों को श्रीराम के गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करेगा। मैं यह भी प्रार्थना करता हूँ कि हमारा महान देश न केवल वैश्विक शक्ति बनने के पथ पर तेजी से आगे बढ़ता रहे, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने आप को गरिमा और मर्यादा के एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करें। मैं श्रीराम के चरणकमलों में शीश झुकाता हूँ। वह अपना आशीर्वाद सभी पर बनाये रखें।


जय श्रीराम !


-लाल कृष्ण आडवाणी

(लेखक भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं।)

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