एक संन्यासी नेता और लोहिया के अनुपम शिष्य थे राजनारायण

By डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Nov 01, 2017

2017 राजनारायणजी का जन्म शताब्दि वर्ष है। आज वे जीवित होते तो उनका सौंवा साल शुरु होता। उनको गए 31 साल होने आ रहे हैं लेकिन हमारी युवा-पीढ़ी के कितने लोग उनका जानते हैं ? उनकी स्मृति में विट्ठलभाई हाउस में जो सभा हुई, उसमें कोई भी समाजवादी कहे जाने वाला नेता दिखाई नहीं पड़ा लेकिन मुझे खुशी है कि आयोजकों में कुछ ऐसे उत्साही नौजवान भी थे, जिन्होंने राजनारायणजी को देखा तक नहीं था। राजनारायण सारे संसार में क्यों विख्यात हुए थे? इसलिए कि उन्होंने तत्कालीन संसार की सबसे शक्तिशाली और परमप्रतापी प्रधानमंत्री को पहले मुकदमे में हराया और फिर चुनाव में हराया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से चुनाव हारने पर उन्होंने उन पर मुकदमा चलाया, चुनाव में गैर-कानूनी हथकंडे अपनाने के आरोप पर।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिराजी के खिलाफ ज्यों ही 12 जून 1975 को फैसला दिया, उन्होंने 26 जून को आपातकाल थोप दिया। सारे नेताओं को जेल हो गई। सारे देश को सांप सूंघ गया लेकिन मार्च 1977 में जब उन्होंने फिर चुनाव करवाया तो वे राजनारायण से तो हार ही गईं, सारे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। उस समय माना जा रहा था कि देश में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के मूलाधार राजानारायण ही हैं, हालांकि नेतृत्व की पहली पंक्ति में जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवनराम जैसे लोग थे। 

 

राजनारायणजी और मेरी घनिष्टता लगभग 20 साल तक बनी रही। उनके अंतिम समय तक बनी रही। लोहिया अस्पताल में राजनारायणजी से मिलने वाला मैं आखिरी व्यक्ति था। मध्य-रात्रि को विदेश से लौटते ही सीधे हवाई अड्डे से मैं उनके पास पहुंचा। वे बोल नहीं पा रहे थे। मैंने जैसे ही उनका हाथ पकड़ा, उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े। वहां से मैं जैसे ही अपने पीटीआई कार्यालय पहुंचा, राजनारायणजी के सचिव महेश्वर सिंह ने उनके महाप्रयाण की खबर दी। राजनारायणजी के असंख्य प्रसंगों- संस्मरणों को लिखूं तो एक ग्रंथ ही तैयार हो सकता है लेकिन यहां यही कहना काफी होगा कि डॉ. लोहिया के शिष्यों में वे अनुपम थे। वे गृहस्थ होते हुए भी किसी भी संन्यासी से बड़े संन्यासी थे। उनके-जैसे राजनेता आज दुर्लभ हैं। पद और पैसे के प्रति उनकी अनासक्ति मुझे बहुत आकर्षित करती थी। उनके अंतिम दो-तीन वर्ष काफी कठिनाइयों से गुजरे लेकिन काशी में उनकी शव-यात्रा (1986) में जितने लोग उनके पीछे चले, उस घटना ने भी इतिहास बनाया है। राजनारायणजी की जन्म-शताब्दि मनाने का सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि लोहिया की सप्त-क्रांति को अमली जामा पहनाने के लिए सारे समाजवादी एकजुट होकर काम करें।

 

- डॉ. वेदप्रताप वैदिक

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