अमृतसर के गुनाहगारों में रेलवे भी, क्लीन चिट देने की बजाय जाँच और कार्रवाई हो

By डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा | Oct 23, 2018

अमृतसर में रावण दहन के अवसर पर कुछ सेकंड में ही रेल से कटकर 61 लोगों की मौत और डेढ़ सौ से अधिक लोगों के घायल होने की घटना सार्वजनिक कार्यक्रमों के आयोजकों की लापरवाही, मुख्य अतिथियों की संवेदनहीनता, प्रशासनिक तालमेल का अभाव और भीड़ के मनोविज्ञान को नहीं समझने का साझा परिणाम है। इस तरह का यह पहला हादसा नहीं हैं पर अन्य हादसों में और इस हादसे में बड़ा अंतर भी है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि एक और हम तार्किक अधिक हो रहे हैं, श्रावण में शिवजी के दूध चढ़ाने, दीपावली पर पटाखें छोड़ने या शबरी माला में पूजा करने या बैलों की दौड़ या तांगा दौड़ जैसे आयोजनों के पक्ष विपक्ष में जुबानी तलवारें निकाल कर आ जाते हैं वहीं हर मौहल्ले में या यों कहें कि गली गली में रावण और वह भी सबसे बड़ा, ग्लेमरस रावण जलाने का चलन बढ़ता जा रहा है। घर घर में रावण जलाने का चलन कहां से आ गया यह समझ से परे है। आखिर पुलिस प्रशासन की भी सीमा है।

 

एक समय था जब जहां रामलीला का मंचन होता था या कुछ प्रमुख स्थानों पर ही रावण दहन होता था। पहले इनमें रावण की साइज को लेकर प्रतिस्पर्धा होने लगी तो फिर आतशिबाजी को लेकर और इसके बाद अन्य आकर्षणों को लेकर प्रतिस्पर्धा होने लगी। आयोजकों के जेहन में इस अवसर पर आने वाले लोगों के हुजुम को नियंत्रित करने का तो जैसे कोई रोडमेप ही नहीं होता। जहां तक अमृतसर हादसे का प्रश्न है इसमें सबसे बड़ी लापरवाही तो आयोजकों द्वारा प्रशासन से अनुमति नहीं लेना, मुख्य अतिथि का तय समय पर नहीं आकर भीड़ आने पर अपना भाषण सुनाना प्राथमिकता होना, रेलवे ट्रैक पास में होने के बावजूद रावण दहन के समय आने वाली ट्रेनों की समय सारणी को नजर अंदाज करना और रेलवे ट्रैक के पास में एलईडी पर डिसप्ले करना बड़ी भूलों में से हैं। पुलिस प्रशासन अनुमति नहीं लेने की बात कहकर जिम्मेदारी से इसलिए नहीं बच सकता क्योंकि जब रावण दहन जैसा कार्यक्रम हो रहा है और उसमें भीड़ जुटना स्वाभाविक है तो ऐसे में अनजाने में आयोजन की बात गले नहीं उतरती। आखिर प्रशासन का सूचना तंत्र ऐसे मौकों पर कहां चला जाता है। आयोजकों द्वारा अनुमति नहीं लेने की स्थिति में प्रशासन को इस तरह के आयोजन को रोकने जैसा सख्त कदम उठाना चाहिए था हालांकि सत्तारुढ़ दल का आयोजन होने से प्रशासन की अनदेखी भी एक कारण हो सकती है। पर 63 लोगों की मौत और डे़ढ़ सौ से अधिक लोगों के घायल होने के लिए सभी को कठघरें में खड़ा करने के साथ ही हत्या की धाराएं लगाकर सजा देने के कदम उठाना इसलिए जरूरी हो गया है कि आखिर अमृतसर का आज का जलियांवाला कांड लापरवाही का ही नतीजा है। रेलवे प्रशासन को भी क्लीन चिट इसलिए नहीं दी जा सकती कि जब रेलवे ट्रैक के पास कोई आयोजन हो तो लोगों के हुजुम को देखते हुए रेल प्रशासन को भी सतर्कता बरतनी चाहिए थी। इसी तरह से रेलों में धुंध के समय भी देखने के साधन होते हैं ऐसे में रेलवे ट्रैक पर लोगों की उपस्थिति के बावजूद रावण दहन के कारण धुआं व आतिशबाजी के कारण दिखाई नहीं देना ट्रेन चालक की लापरवाही को कम नहीं कर देती।

 

समाज के बदलते स्वरूप में देखा−देखी, परस्पर प्रतिस्पर्धा, राजनीतिक या सामाजिक माइलेज प्राप्त करने की ललक और अंधी दौड़ का परिणाम अमृतसर हादसें का प्रमुख कारण है। जब इस तरह के आयोजनों को लेकर सरकार गंभीर होती है, रोक लगाने या उसे सीमित करने का प्रयास होता है तो तूफान आ जाता है। नास्तिक भी आस्तिकता का चेहरा लेकर धार्मिक सहिष्णुता सहित ना जाने कितने तर्क वितर्क लेकर सामने आ जाते हैं। जबकि इस तरह की घटनाएं होते ही राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए आरोप−प्रत्यारोप या यों कहे कि दोषारोपण का दौर शुरू हो जाता है। इससे दुर्भाग्यजनक क्या होगा कि सोशल मीडिया पर इतने बड़े हादसे के बाद सरकार द्वारा घोषित मुआवजे को लेकर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जो लोग कम मुआवजे को लेकर आवाज उठा रहे हैं उनसे पूछा यह जाना चाहिए कि क्या मुआवजे से किसी की जिंदगी वापिस आ सकती है ? क्या मुआवजा ही समस्या का समाधान है ? क्या दोषियों को सजा तक पहुंचाना पहली आवश्यकता नहीं है ? अमृतसर हादसे में एक बात साफ है कि यह ना तो कोई आतंकवादी घटना है ना ही अफवाह जनित या सोशल मीडिया के वायरल मैसेज की प्रतिक्रिया स्वरूप हुई घटना है। बल्कि कहा जाए तो यह जिम्मेदारों के गैर जिम्मेदारी की घटना है और यही कारण है कि इस तरह की घटनाओं पर लगाम लगानी है तो ऐसे मामलों में सरकार व न्याय व्यवस्था को स्वयं प्रसंज्ञान लेकर दोषियों को ना केवल कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए बल्कि सजा के अंजाम तक पहुंचाया जाना जरूरी है। आयोजकों द्वारा सुरक्षात्मक कदम नहीं उठाना, प्रशासन से अनुमति नहीं लेना, पुलिस प्रशासन, रेलवे प्रशासन, फायर बिग्रेड, एंबुलेंस आदि की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं करना अपने आप में गंभीर है। आखिर हादसे किसी को बताकर या पूछकर थोड़े ना होते हैं। ऐसे में आवश्यक इंतजाम करने की जिम्मेदारी भी आयोजकों की हो जाती है। सबसे बड़ी बात यह कि मुख्य अतिथि तय समय सीमा पर जाने के स्थान पर लोगों के जुटने और अपने भाषण के चक्कर में लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करने तक नहीं चूकते। और संवेदनशीलता की तो इंतहा हो गई कि घटना के बाद मौके पर रुक कर राहत कार्य को नेतृत्व देना तो दूर उसकी जगह पर रेलवे या दूसरे पर आरोप लगाते हुए शर्म भी नहीं आ रही।

 

कुछ सालों पहले मुंबई में ही अफरातफरी के कारण मेट्रो के नीचे आकर लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। हालांकि इससे यह साफ हो गया है और स्पष्ट भी है कि देश के किसी भी कोने में भीड़भाड़ वाले स्थान पर छोटी सी अफवाह की छुर्री छोड़ कर कई निर्दोष लोगों को मौत के मुंह में धकेला जा सकता है। देश में किसी ना किसी स्थान पर साल में एकाध मौतों का कारण भगदड़ बनती जा रही है। पिछले साल सबरीमाला में भगदड़ के कारण मौत देख चुके हैं। हालांकि सबरीमाला की यह पहली घटना नहीं थी इससे पहले 14 जनवरी 2011 को सबरीमाला मंदिर में पूजा के दौरान मची भगदड़ में 106 श्रद्धालुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा वहीं करीब 100 लोग घायल हो गए। सबरीमाला मंदिर में सालाना आयोजन और इस अवसर पर उपस्थित होने वाले संभावित श्रद्धालुओं की जानकारी प्रशासन के पास पहले से होती है उसके बावजूद इस दौरान इस तरह की घटनाओं की पुनरावृति क्षम्य नहीं मानी जा सकती। सबरीमाला मंदिर वैसे भी महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे को लेकर लगातार चर्चा में है और सर्वोच्च न्यायालय के दखल से महिलाओं को प्रवेश की अनुमति मिल सकी है। पर आंदोलन का सिलसिला जारी है। इससे पूर्व 1 अक्टूबर, 2006 में दतिया में रतनगढ़ स्थित देवी मंदिर में पुल टूटने की अफवाह ने करीब 109 श्रद्धालुओं की जान ले ली। यह अकेले उदाहरण नहीं हैं देश में ही इस तरह की घटनाओं की लंबी सूची मिल जाएगी।

 

दरअसल इस तरह की घटनाएं होने पर दोषियों को सजा की जगह पर घटना को राजनीतिक रंग देना और मुआवजे या प्रशासन या एक दूसरे पर लापरवाही का आरोप-प्रत्यारोप होने और उसके बाद जांच की घोषणा के साथ ही इतिश्री हो जाना इन घटनाओं की पुनरावृत्ति का कारण है। एक के बाद एक हादसे होने के बाद भी इस तरह की घटनाओं को रोकने का तंत्र विकसित नहीं हो सका है। यदि आयोजक ने अनुमति नहीं ली और आवश्यक इंतजामात नहीं किए तो एक बार भी इस तरह के आयोजनों के आयोजकों को सजा मिल जाती है तो भविष्य के लिए यह सबक हो सकता है। पर घटना के बाद सब भूल जाते हैं और प्रशासन तंत्र यदि जांच रिपोर्ट आ भी जाती है तो ठंडे बस्ते में ड़ाल देते हैं। ऐसे में सरकार को भीड़ का मनोविज्ञान समझने और आयोजकों की भी जिम्मेदारी तय करनी ही होगी।

 

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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