राहुल सच में वंशवाद के खिलाफ हैं तो सबसे पहले अपने परिवार के खिलाफ खड़े हों

By राकेश सैन | Jun 11, 2019

आचार्य रजनीश ने कहा है कि धन्य हैं वे जिन्हें हार नसीब होती है, ईश्वर उस खुशनसीब को ही यह उपहार देता है जिसे जीना सिखाना चाहता है। तुलसी पत्नी प्रेम में हारे न होते तो उन्हें राम न मिलते, मंडन मिश्र शास्त्रार्थ में जीत जाते तो शंकराचार्य का सन्निध्य से वंचित रहते। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आज राजनीति के मैदान में चारों खाने चित्त नजर आ रहे हैं परंतु यह कोई बड़ी दुर्घटना नहीं है, दुख तो इस बात का है कि उन्हें आगे का मार्ग दिखाई नहीं दे रहा या फिर वे आंखें मूंदे हुए हैं। अगर उन्हें भविष्य में राजनीति करनी है तो मरणासन्न कांग्रेस का टोने-टोटकों से नहीं बल्कि कीमोथैरेपी से ईलाज करना होगा और संगठन के शरीर से निकाल फेंकना होगा हर गले सड़े अंग को जो शेष शरीर को भी रुग्ण बना रहा है।

 

वंशवाद और भ्रष्टाचार असल में राहुल गांधी की दो बेड़ियां हैं जिसके चलते चलना तो क्या उनके लिए उठ बैठना भी मुश्किल हो रहा है। आम चुनावों में कांग्रेस की हार की समीक्षा के लिए बुलाई गई बैठक में उन्होंने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ का नाम लिए बिना कहा कि वंशवाद पार्टी को ले डूबा। राहुल को इन दो राज्यों से बड़ी अपेक्षा थी, अभी तीन चार महीने पहले ही हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने यहां से भाजपा को सत्ता मुक्त किया था परंतु अशोक गहलोत अपने पुत्र वैभव व कमलनाथ अपने बेटे नकुल को लेकर इतने आसक्त हो गए कि अपने-अपने प्रदेशों की बाकी सीटों पर पार्टी के लिए समय भी नहीं निकाल पाए। राहुल का आकलन तो ठीक है परंतु दूसरों के वंशवाद की ओर इशारा करते हुए चार अंगुलियां स्वत: ही अपने ऊपर उठ गईं। कौन नहीं जानता कि कांग्रेस में वंशवाद की बीमारी नेहरु-गांधी खानदान की देन है और कोड़तुंबे की इस बेल के सबसे बड़े फल खुद राहुल ही हैं जो गांधी गौत्र के कारण ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन पाए और अपनी बहन प्रियंका वाड्रा को सीधे ही राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त कर दिया।

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अब समय है कि राहुल को अब खुद के, अपने परिवार व पार्टी के खिलाफ उठ खड़ा होना होगा। राहुल ने पार्टी को एक माह का समय दिया है कि वह उनका विकल्प चुन ले। इस दौरान राहुल को अपने आसपास डेरा जमाए उन दरबारियों की भी छुट्टी कर देनी चाहिए जो कहते हैं कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस बिखर जाएगी। कांग्रेस को अतीत का हिस्सा और किस्सा होने से बचाना है तो साधारण कार्यकर्ता को भी यह अधिकार देना होगा कि वह भी अपनी योग्यता अनुसार वार्ड प्रधान से लेकर पार्टी अध्यक्ष, मंत्री से प्रधानमंत्री तक बन सके। राहुल खुद वंशवादी बेल की उपज हैं तभी तो इस प्रश्न पर उन्हें जवाब देते नहीं बनता, हर दल में वंशवाद होने की दलील के आधार पर अपनी गलती को सही नहीं ठहराया जा सकता। राहुल के लिए इससे बेहतर समय कुछ और नहीं कि जिस जनता का नेतृत्व उन्हें करना है वह उसी में विचरन करें। दरबारी राग सुनने की बजाय जनता का राग सुनें। यही जनता है जो उन्हें सिखाएगी, पढ़ाएगी और तराशेगी। लोकतंत्र केवल सत्ता प्राप्ति की प्रणाली ही नहीं बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजयेपी का मानना था कि राजनीति विपक्ष की भी हो सकती है। वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष में रहते हुए भी देश की राजनीति को स्वच्छ परंपराएं व सही दिशा प्रदान की हैं। विपक्ष के नेता के आगे खुला अवसर होता है कि वह अपनी मानसिकता और पार्टी का खुल कर विकास कर सके और राहुल को इस मौके को चुनौती नहीं बल्कि सुअवसर के रूप में प्रयोग करना चाहिए। हार को साधन बना कर हरिनाम तक का सफर करना चाहिए।

 

भ्रष्टाचार कांग्रेस की दूसरी समस्या है जो पांव की मोच की तरह पार्टी को न तो आगे बढ़ने दे रही और न ही चैन से बैठने दे रही। पार्टी का दर्द इतना विकराल है कि हर बार उसी पर पलटवार करता है। लोकसभा चुनावों में राफेल-राफेल चिल्ला कर राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को तार-तार करने की कोशिश की परंतु इस बीच अपनी बहन को राष्ट्रीय महासचिव भी बना दिया जिनके पति रॉबर्ट वाड्रा जमीन घोटालों में घिरे हुए और देश में भ्रष्टाचार के एक पर्याय बन चुके हैं। इस विषय पर बड़े मियां-छोटे मियां दोनों ही सुभानअल्ला निकले, प्रियंका पूरे गाजे बाजे के साथ पहुंच गईं प्रवर्तन निदेशालय अपने पति को पेशी भुगतवाने के लिए। पार्टी को उम्मीद थी कि इंदिरा गांधी की छवि लिए प्रियंका कुछ वोट बटोरेंगी परंतु वह प्रतिछाया बन कर उभरीं रॉबर्ट वाड्रा की। राहुल को कड़े कदम उठाने होंगे खुद के खिलाफ, पार्टी के खिलाफ और अपने परिवार के विरुद्ध भी। कांग्रेस की नींव में भारत का समृद्ध इतिहास है तो इसका नेतृत्व भेड़चाल वाला नहीं हो सकता।

 

राहुल गांधी के समक्ष सबसे बड़ी प्रेरणा व अनुकरणीय उदाहरण खुद उनकी माँ सोनिया गांधी ही हैं। उनके प्रधानमंत्री पद के मार्ग में विदेशी मूल की बाधा आई तो उन्होंने कड़ा कदम उठाते हुए खुद को इस पद की दौड़ से बाहर कर लिया और डॉ. मनमोहन सिंह को देश का नेतृत्व सौंप दिया। ऐसा कर उन्होंने विपक्ष के विदेशी मूल के मुद्दे को न केवल सदा के लिए दफन कर दिया बल्कि कांग्रेस के लिए अनुकूल परिस्थितियों का भी निर्माण किया जिसके चलते लगातार दस साल पार्टी को देश के नेतृत्व करने का गौरव प्राप्त हुआ।

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आज राहुल गांधी कोपभवन में हैं तो पार्टी का बंटाधार होता दिख रहा है। राजस्थान में गलहोत-सचिन पायलट, मध्य प्रदेश कमलनाथ-सिंधिया, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह-नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर बुरी तरह अंतर्कलह से घिर चुकी है। तेलंगाना में 12 विधायक पार्टी का साथ छोड़ टीआरएस में शामिल हो गए। 2014 में भी सोनिया और राहुल ने आज की तरह इस्तीफे की पेशकश की थी परंतु बाद में दरबारियों की मानमनोव्वल की परंपरा के चलते अपने पदों पर चिपके रहे। आज भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है, पार्टी के प्रदेश प्रधानों ने इस्तीफों की झड़ी लगा दी तो खुद राहुल ने एक माह का समय दिया है। आशंका है कि 2014 की तरह इस बार भी यह पेशकश राजनीतिक ड्रामा साबित न हो जाए। सिंहसान कभी मखमली रास्ते पर चल कर नहीं मिलते, बल्कि कई तरह के लाक्षागृहों, खाण्डप्रस्थों और अज्ञातवासों के कंटीले मार्गों से गुजरना पड़ता है। राहुल के लिए परीक्षा की घड़ी है, वाजपेयी जी के ही शब्दों में कहें तो: - 


आग्नेय परीक्षा की, इस घड़ी में,

आइए, अर्जुन की तरह,

उद्घोष करें- न दैन्यं न पलायनं।

 

-राकेश सैन

 

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