देश में पलायन की समस्या इतनी विकराल तब दिखी जब कोरोना वायरस के कारण इतनी भारी तादाद में लोग शहरों से ग्रामों की ओर पलायन करने लगे। हालाँकि केंद्र सरकार ने लोगों को विभिन्न शहरों से उनके घरों तक पहुँचाने के लिए विशेष श्रमिक रेलगाड़ियाँ चलाईं हैं परंतु फिर भी कई लोग शहरों से ग्रामों की ओर पैदल ही चल दिए।
यूँ तो अभी भी भारत एक कृषि प्रधान देश ही है अतः यहाँ 80% से अधिक मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। भारत में भारी संख्या में लोग गांवों से शहरों की ओर रोज़गार प्राप्त करने के उद्देश्य से जाते हैं। जिस ग्रामीण को जहाँ रोज़गार मिलता है वह वहाँ चला जाता है। इसलिए भारी संख्या में लोग एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में चले जाते हैं। दरअसल, कोरोना वायरस की वास्तविक स्थिति का पूर्वाभास इन प्रवासी श्रमिकों को नहीं होने के कारण एवं सरकार द्वारा उनकी सहायता के लिए चलायी जा रही विशेष श्रमिक रेलगाड़ियों की सही जानकारी उन्हें नहीं होने के कारण श्रमिक लोग घबरा गए एवं वे बड़ी संख्या में शहरों से गांवों की ओर पैदल ही पलायन कर बैठे।
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फिर भी, यह तो कहा ही जा सकता है कि देश में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों के लिए समाजिक सुरक्षा का भी भारी अभाव है। देश में विकास का जो मॉडल पिछले 70 वर्षों के दौरान अपनाया गया था क्या वह मॉडल ही ग़लत था ? विकास के इस मॉडल के अंतर्गत जहाँ कच्चा माल उपलब्ध हो अथवा उत्पादित वस्तु की जहाँ माँग अधिक हो उसी क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना की गई। देश में ग्राम स्वराज एवं स्थानीय आत्म निर्भरता की परिकल्पना पर ठीक से काम ही नहीं हुआ। जिसके कारण ग्रामीण इलाक़ों से श्रमिकों का शहरों की ओर पलायन रुका ही नहीं, बल्कि जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ पलायन की मात्रा भी बढ़ती चली गई। वर्ष 1951 के पहले देश की आबादी जहाँ 36 करोड़ थी वह आज बढ़कर 138 करोड़ हो गई है। जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय परिवेश का ध्यान रखते हुए देश में औद्योगिकीकरण की नीति अपनाई गई उसके कारण धीरे-धीरे मानव श्रम का महत्व इन उद्योगों में कम होता चला गया। देश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देते समय भारतीय सिद्धांतों को तो बिल्कुल ही भुला दिया गया था।
उक्त कारण से आज पलायन का दबाव उन राज्यों में अधिक महसूस किया जा रहा है जहाँ जनसंख्या का दबाव ज़्यादा है एवं जहाँ उद्योग धंधों का सर्वथा अभाव है, यथा उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, आदि। उद्योग धंधे सामान्यतः उन इलाक़ों में अधिक स्थापित किए गए जहाँ कच्चा माल उपलब्ध था अथवा उन इलाक़ों में जहाँ उत्पाद का बाज़ार उपलब्ध था। महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु आदि प्रदेशों में इन्हीं कारणों के चलते अधिक मात्रा में उद्योग पनपे हैं। हालाँकि, माँग एवं आपूर्ति का सिद्धांत भी तो लागू होता है। महाराष्ट्र एवं गुजरात में बहुत अधिक औद्योगिक इकाईयाँ होने के कारण श्रमिकों की माँग अधिक है जबकि इन प्रदेशों में श्रमिकों की उपलब्धता कम हैं। इन प्रदेशों में पढ़ाई लिखाई का स्तर बहुत अच्छा है एवं लोग पढ़ लिखकर विदेशों की ओर चले जाते हैं अथवा ब्लू-कॉलर रोज़गार प्राप्त कर लेते हैं। अतः इन राज्यों में श्रमिकों की कमी महसूस की जाती रही है। श्रमिकों की आपूर्ति उन राज्यों से हो रही है जहाँ शिक्षा का स्तर कम है एवं इन प्रदेश के लोगों को ब्लू कॉलर रोज़गार नहीं मिल पाते हैं अतः इन प्रदेशों के लोग अपनी आजीविका के लिए केवल खेती पर निर्भर हो जाते हैं। साथ ही, गांवों में जो लोग उत्साही हैं एवं अपने जीवन में कुछ कर दिखाना चाहते हैं वे भी शहरों की ओर पलायन करते हैं क्योंकि उद्योगों की स्थापना भी इन प्रदेशों में बहुत ही कम मात्रा में हुई है।
कोरोना वायरस महामारी के बाद देश में पुनः जब आर्थिक गतिविधियों की शुरुआत हो तो केंद्र एवं राज्य सरकारों के पास अब एक मौक़ा आया है कि भारतीय सिद्धांतों का पालन करते हुए ही व्यापक विकास का एक स्वदेशी मॉडल राज्य स्तर पर बनाया जाये कि किस प्रकार के उद्योग राज्यों में शीघ्रता से विकसित किए जा सकते हैं जिसमें रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर स्थानीय स्तर पर ही सृजित किए जा सकें। इस प्रकार की योजनाएँ राज्यवार बनाये जानी की आज अत्यधिक आवश्यकता है। इस प्रकार की योजनाएँ विकसित करते समय असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने की ओर विशेष ध्यान देना होगा ताकि ग्रामीण इलाक़ों से शहरों की ओर श्रमिकों के पलायन को रोका जा सके।
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ग्रामीण इलाक़ों के साथ ही शहरों में पूर्व में स्थापित किए जा चुके उद्योगों में काम कर रहे असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को भी समाजित सुरक्षा प्रदान करनी होगी ताकि विपरीत रूप से हो रहे अर्थात् शहरों से गांवों की ओर हो रहे पलायन को भी रोका जा सके। शहरों में इन श्रमिकों को विशेष रूप से मकान की सुविधा उपलब्ध नहीं है, मासिक वेतन की मात्रा निश्चित नहीं है। न्यूनतम वेतन सम्बंधी नियमों का पालन ठीक तरीक़े से नहीं हो पा रहा है। यहाँ एक सुझाव यह दिया जा सकता है कि गांवों से श्रमिक को केवल 6 माह के लिए ही शहर में कारख़ाने में काम के लिए बुलाया जाए, ताकि वह अकेला ही शहर की ओर पलायन करे एवं परिवार को गाँव में ही रखे। 6 माह पश्चात ये श्रमिक गाँव वापिस चले जाएँ ताकि ये अपने परिवार की देखरेख कर सकें। अब अगले 6 माह के लिए दूसरे श्रमिकों को शहर में काम के लिए बुलाया जाये। इस प्रकार पूरे परिवार को गाँव से शहर में लाने की ज़रूरत नहीं होगी एवं शहर पर जनसंख्या के दबाव को भी कम किया जा सकेगा। साथ ही, रोज़गार भी अधिक परिवारों को उपलब्ध हो सकता है। चूँकि श्रमिक अकेले ही काम करने के लिए शहर आएँगे अतः उनके लिए हॉस्टल में रहने की व्यवस्था सम्बंधित उद्योग द्वारा की जानी चाहिए। उनके लिए खाने पीने की व्यवस्था भी इसी हॉस्टल में की जा सकती है। अतः देश में अधिक से अधिक हॉस्टल बनाए जाने चाहिए जो औद्योगिक इकाईयों के पास ही बनें। इससे श्रमिकों की उत्पादकता एवं दक्षता में भी सुधार होगा। महिला श्रमिकों के लिए अलग से होस्टल बनाए जाने चाहिए। मुंबई एवं दिल्ली आदि महानगरों में तो महिलाओं के लिए अलग से हॉस्टल बनाए गए हैं। अब समय आ गया है कि देश में कामगारों के बारे में सोचना ही होगा एवं शहरों में श्रमिकों के रहने की समस्या को हल करना ही होगा अन्यथा देश की अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाना बहुत ही मुश्किल कार्य होगा।
पूर्व में इस संदर्भ में एक प्रयास किया गया था एवं एक निर्माण श्रमिक क़ानून (कंस्ट्रक्शन लेबर ऐक्ट) बनाया गया था। जिसके अंतर्गत एक सेस फ़ंड की स्थापना की गई थी। दो वर्ष पूर्व राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी कि इस सेस फ़ंड में 25000 करोड़ रुपए से अधिक की राशि जमा है। इस राशि का इस्तेमाल यदि व्यवस्थित तरीक़े से श्रमिकों के हॉस्टल बनाने के लिए किया जाए तो श्रमिकों के शहरों से ग्रामों की ओर हो रहे पलायन को रोका जा सकता है।
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असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए विशेष सामाजिक बीमा योजना भी लाई जा सकती है। जिसके अंतर्गत विशेष आपदा के समय श्रमिकों को खाने-पीने एवं रहने के सारे ख़र्च की प्रतिपूर्ति बीमा कम्पनी करे। इससे भी श्रमिकों के शहरों से पलायन को रोका जा सकता है। दरअसल अभी तक असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों पर किसी भी राज्य सरकार की नज़र नहीं गई है। देश में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों के लिए किसी भी प्रकार का सुरक्षा कवच उपलब्ध ही नहीं है।
हालाँकि भारत में कोरोना वायरस महामारी के चलते, विशेष रूप से ग़रीब वर्ग को राहत देने के उद्देश्य से, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 26 मार्च को 1.7 लाख करोड़ रूपये का एक आर्थिक पैकेज प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत देने की घोषणा की थी। इस योजना के अन्तर्गत बुजुर्ग, गरीब विधवा और गरीब दिव्यांगों को आगामी 3 महीनों तक एक हजार रूपये की राशि सहायता के रूप में देने का निर्णय लिया गया था। बीस करोड़ महिला जनधन खाताधारकों के खातों में अगले तीन महीनों तक हर महीने 500 रूपये जमा किये जाने का निर्णय लिया गया था। पीएम किसान सम्मान निधि के तहत 2 हजार रूपये की किस्त की राशि 8.7 करोड़ किसानों के खाते में अप्रैल 2020 के पहले सप्ताह में ही अंतरित कर दी गई थी। साथ ही, लगभग 80 करोड़ गरीब नागरिकों को अगले तीन महीनों तक 5 किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल मुफ्त उपलब्ध कराए जाने की घोषणा की गई थी। इसी प्रकार, उज्ज्वला योजना के अन्तर्गत लाभार्थी महिलाओं को अगले तीन महीनों तक मुफ्त में गैस सिलेंडर देने की घोषणा भी की गई थी। मनरेगा के तहत दी जा रही मजदूरी को 182 रूपये से बढ़ाकर 202 रूपये प्रतिदिन कर दिया गया था ताकि मजदूरों को आर्थिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़े। परंतु, इस तरह के उपाय असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों को भी अल्पकाल में सहायता पहुँचाने के लिए ही कार्य कर सकते हैं एवं लम्बी अवधि के लिए इनकी समस्याओं का हल निकालने के लिए तो समग्र आधार पर ही योजना बनाए जाने की आज अत्यधिक आवश्यकता है।
-प्रह्लाद सबनानी,
सेवानिवृत्त उप-महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक